राष्ट्रीय सहारा, 22 जनवरी 2006 : भारत के सिर पर बोफोर्स का भूत कब तक नाचता रहेगा? क्या इसे दफन करने का वक्त नहीं आ गया है? जिस भूत ने राजीव सरकार और नेहरू परिवार की प्रतिष्ठा को दफन कर दिया, जिसने वी.पी. सिंह, देवगौड़ा, गुजराल और अटल सरकार को निकम्मा सिद्घ कर दिया, जिसने नरसिंहराव सरकार के विदेश मंत्री को लील लिया, जिसने भारत की सी.बी.आई. की इज्जत दो कौड़ी कर दी, जिसने अदालती कार्रवाई के प्रति उदासीनता पैदा कर दी और जिस 64 करोड़ के भूत को पकड़ने में सैंकड़ो करोड़ खर्च हो गए, उसे हमें क्यों जिलाए रखना चाहते हैं? इससे भारत का क्या फायदा होनेवाला है?
जब – जब बोफोर्स का मरोड़ उठता है, सारी दुनिया में उसकी गड़गड़ाहट होती है| भ्रष्ट देशों कि सूची में भारत का नाम ऊपर की तरफ चढ़ता चला जाता है| सारी दुनिया में भारत के भ्रष्टाचार का सिक्का उछालने लगता है| लोग समझते हैं कि भारत के नेता भ्रष्ट ही नहीं हैं, भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने में ईमानदार नेता भी आ जाते हैं| दुनिया के लोगों को किसी खास प्रधानमंत्री का नाम याद नहीं रहता लेकिन यह याद रह जाता है कि भारत में ऐसे प्रधानमंत्री भी होते हैं, जो जनता की पीठ में छुरा भोंककर अपनी जेबें भरते हैं| जिनका काम देश का नेतृत्व करना होना चाहिए, वे खुद को दलाल के स्तर तक उतार लेते हैं| दुनिया और देश की जनता का यह नजरिया क्या किसी अदालत के फैसले से बदल सकता है? अदालत के फैसले तो कोढ़ में खाज फैला देते हैं| दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले ने क्या लोगों की राय बदल दी? फैसले में हिन्दुजा बंधुओं को बरी कर दिया गया? क्यों कर दिया गया? इसलिए नहीं कि बोफोर्स में पैसा नहीं खाया गया बल्कि इसलिए कि उसके पक्के सबूत नहीं मिल सके? पक्के सबूत देने की जिम्मेदारी किसकी थी? सी.बी.आई. की| अगर सी.बी.आई. ही पक्के सबूत ला सकती होती तो यह मामला क्या 20 साल से घिसटता रहता? सी.बी.आई. तो नेताओं की कठपुतली है| इसीलिए उसने पहले मना किया और फिर मान लिया कि क्वात्रेची का बंद खाता खुलवाने की जिम्मेदारी उसी की है| विधि मंत्री हंसराज भारद्वाज की खाल बचाने के लिए उसने अपनी हड्डयिाँ तुड़वा ली| क्या ऐसी संस्था से पक्के सबूत जुटाने की उम्मीद की जा सकती है? और सबूत नहीं होने का अर्थ क्या यह है कि घटना ही नहीं हुई? क्या किसी हत्या को हम हत्या इसलिए नहीं कहेंगे कि हत्यारा पकड़ में नहीं आ सका?
यह हत्या ऐसी है कि इसका हत्यारा कभी पकड़ में नहीं आएगा| क्या आज तक इस तरह की हत्याओं के हत्यारे पकड़ में आए हैं? कभी नहीं आए हैं| केवल वे ही अपराधी पकड़े जाते हैं, जिनका कोई माई-बाप नहीं होता, जैसे अबू सालेम! अपराधों पर पर्दा डालना उच्च कोटि की राजनीतिक ललित-कला बन गई है| तू मेरे अपराधों पर पर्दा डाल और मेरे तेरे अपराधों पर पर्दा डालता हूँ| वरना क्या वजह है कि छह साल तक चलनेवाला भाजपा-गठबंधन-राज बोफोर्स की सच्चाई को उजागर नहीं कर सका? अखबारों में एक-दूसरे के खिलाफ बयान देना और जनता को बेवकूफ बनाना तथा राज को लुटने में एक-दूसरे से अंदर ही अंदर हाथ मिलाए रखना हमारे नेताओं की सुनिश्चित कार्य-शैली बन गई है| इसी तरह बोफोर्स की तह तक जाना भी पक्का ढ़ोंग-सा बन गया है| यह ढ़ोंग बना रहे तो काँग्रेस-विरोध की गीली लकड़ी सुलगती रहेगी| बोफोर्स अब तोप नहीं रह गई है (राजीव गाँधी की तोप का सफल इस्तेमाल अटलबिहारी करगिल में कर चुके हैं)| अब तो वह काठ की हाँडी रह गई है| क्या यह हाँडी अब दुबारा चूल्हे पर चढ़ेगी? अगर आप इसे दुबारा चढ़ाएँगे तो इस बार यह तड़क चाएगी, टूट जाएगी, जल जाएगी|
पता नहीं, काँग्रेस इस काठ ही हाँडी को सोने की हाँडी बनाने पर क्यों तुली हुई है? इसे वह एक दु:स्वप्न मानकर भूल क्यों नहीं जाती? किसी अदालत का कोई प्रमाण-पत्र् उसके किसी काम नहीं आएगा| इस कांड की कठोरतम सजा काँग्रेस को मिल चुकी है| अब वह इसे जितना कुरेदेगी, उतना अपना नया नुकसान करेगी| पहली पीढ़ी की भूल का खामियाज़ा दूसरी पीढ़ी बल्कि तीसरी पीढ़ी को भी भुगतना पड़ेगा| 21 करोड़ की क्या कीमत है? इतनी राशि तो हमारे सारे नेतागण मिलकर रोज़ झटक लेते हैं| 21 करोड़ के लिए सोनिया गाँधी पर आँच क्यों आए? क्वात्रेची को उसकी दलाली के पैसे वापस मिल जाएँ, इसलिए हम अपने विधि-मंत्री की बलि क्यों चढ़ाएँ? बेचारे भारद्वाज ने अपनी दुर्गति माधवसिंह सोलंकी से भी ज्यादा कर ली है| उन्होंने क्वात्रेची की बंद खाता खुलवाने के लिए अपना अफसर लंदन भेजा और यह भी कह दिया कि क्वात्रेची निर्दोष है| भारद्वाज ने अपनी स्वामिभक्ति को शिखर पर पहुँचा दिया लेकिन सरकार की प्रतिष्ठा तो खाई में चली गई| सी.बी.आई. को बलि का बकरा बना देने पर भी भारद्वाज को कौन बख्श सकता है? भारद्वाज के कारण प्रधानमंत्री और सोनिया गाँधी भी कठघरे में खड़े हो गए हैं| प्रधानमंत्री का यह कथन कि उनकी सरकार पारदर्शी है और वे कोई गलत काम नहीं करेंगे, सभी मान लेंगे लेकिन वे ये भी मानने को मजबूर हो रहे हैं कि भारत में दो सत्ताएँ हैं| एक पारदर्शी और दूसरी अपारदर्शी! पारदर्शी सत्ता को पता ही नहीं चलता कि गोआ, झारखंड और बिहार के राज्यपाल क्या करते रहते हैं और नटवर और क्वात्रेची जैसे मामलों का यथार्थ क्या है| अपारदर्शी सत्ता ही असली सत्ता है| पारदर्शी सत्ता प्रशासन चलाती है और अपारदर्शी सत्ता शासन! अपारदर्शी सत्ता किसी के प्रति भी जबावदेह नहीं है| न संसद, न सरकार, न न्यायपालिका और न ही खबरपालिका के प्रति| मौन ही उसका ब्रह्यास्त्र् है| एक मौनवाली सत्ता और भी है| वह भी चुपचाप खेल देख रही है| उसका नाम है, जनता! वह निष्फर है, निर्मल है, निर्भय है| क्या वह इस मौन सत्ता के लिए मौंन सज़ा का फंदा तो नहीं बुन रही है?
यह मौन जितनी जल्दी टूटें, उतना अच्छा! क्वात्रेची का मामला जितना राजीव से जुड़ता है, उससे ज्यादा सोनिया से जुड़ रहा है| सोनिया गाँधी ने प्रधानमंत्र्ी पद छोड़कर जो दिव्यता अर्जित की है, उसमें चार चाँद लग जाएँगें, अगर वे क्वात्रेची से कहें कि आप 21 करोड़ रू. का चेक लौटती डाक से प्रधानमंत्री कोष में भिजवा दीजिए| इतना ही नहीं, वे चाहें तो यह भी मालूम करवा सकती हैं कि शेष 43 करोड़ रू. कहाँ रखे हैं| यदि वे भारत की गरीब जनता को उसके 64 करोड़ रू. वापस दिलवा सकें तो भारत ही नहीं, विश्व राजनीति के इतिहास में उनका नाम अमर हो जाएगा| बोफोर्स के जिस भूत को सरकारें, संसदें और अदालतें नहीं पकड़ सकीं, वह अपने आप दफन हो जाएगा|
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