नवभारत टाइम्स, 03 जून 2005 : फ्रांस और हॉलेंड ने यूरोपीय संघ को जबर्दस्त झटका दे दिया है| यूरोपीय संविधान के टायरों में दो बड़े पंचर हो गए हैं| फ्रांस की जनता ने 55 प्रतिशत और डच जनता ने 63 प्रतिशत वोटों से यूरोप के नए संविधान को रद्द कर दिया है| इन दोनों से पहले जिस देश में भी यह संविधान पेश किया गया, उसने इसकी पुष्टि की| यूरोपीय संघ के 25 में से 10 देशों ने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया| जर्मनी, इटली, स्पेन, आस्टि्रया, हंगारी, स्लोवाकिया, स्लोवेनिया, लिथुआनिया और ग्रीस की मुहर लगने के बाद अब जबकि फ्रांस और हॉलेंड ने इसे कूड़ेदान के हवाले कर दिया है, दो प्रश्न सर्वत्र पूछे जा रहे हैं| एक तो यह कि पुष्टिकरण की यह प्रक्रिया अब आगे बढ़ेगी या नहीं? और दूसरा प्रश्न यह कि क्या यूरोपीय एकता खतरे में पड़ गई है?
पहले प्रश्न का पक्का जवाब तो वे देश ही दे सकते हैं, जिन्हें अभी इस संविधान की पुष्टि करनी है लेकिन बि्रटेन जैसे देश बिल्कुल नहीं चाहेंगे कि वे जनमत-संग्रह की अग्नि-परीक्षा से गुजरें| टोनी ब्लेयर किसी तरह दुबारा चुनाव तो जीत गए हैं लेकिन उन्हें पता है कि बि्रटेन की जनता यूरोपीय संविधान के प्रति जरा भी उत्साहित नहीं है| यदि वे जनमत संग्रह में पिट गए तो अपने बहुमत के बावजूद उन्हें इस्तीफा देना पड़ेगा, जैसे कि फ्रांसीसी प्रधानमंत्री को देना पड़ रहा है| फ्रांस और हॉलेंड, दोनों देशों की सरकारें अपने कारनामों से काफी अलोकपि्रय हो चुकी हैं| इस अलोकपि्रयता ने आग में घी का काम किया| इसीलिए यूरोपीय देशों में जहां-जहां कमजोर सरकारें हैं, जनमत-संग्रह को टालने का कोई न कोई बहाना खोज लिया जाएगा| जहां-जहां सरकारें मजबूत और लोकपि्रय हैं, वहां तर्क दूसरे होंगे लेकिन निष्कर्ष यही होगा| वहां भी जनमत-संग्रह या संसदीय पुष्टिकरण टाले जा सकते हैं| यूरोपीय संघ के नियम के मुताबिक यह नया संविधान तभी लागू होगा, जबकि सर्वसम्मति होगी| इस सर्वसम्मति को फ्रांस और हॉलेंड ने पहले ही भंग कर दिया है| अब शेष 23 राष्ट्र इसकी पुष्टि कर भी दें तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा| तो फिर जनमत-संग्रह पर करोड़ों ‘यूरो’ क्यों बहाए जाएं? इसके अलावा शेष राष्ट्रों में जनमत-संग्रह की प्रक्रिया चलाने का एक अर्थ यह भी होगा कि यूरोपीय संघ को दो खेमों में बांटा जा रहा है| एक ‘हां’ वाला और दूसरा ‘ना’ वाला ! इससे बेहतर तो यही होगा कि पुष्टिकरण की प्रक्रिया को फिलहाल रोककर कुछ समय बीतने दिया जाए| कुछ वर्ष बाद इसी संविधान या इस तरह के किसी नए दस्तावेज़ पर विचार किया जाए|
इस संविधान में ऐसा क्या है, जिसके वजह से वह फ्रांसीसियों और डच लोगों के गले नहीं उतरा? यह नया संविधान 2004 में बनाया गया| फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति जिस्कार द एस्तां इस संविधान-निर्मात्री परिषद् के अध्यक्ष थे| चार साल के लगातार विचार-विमर्श के बाद 400 से अधिक धाराओंवाला यह विस्तृत दस्तावेज इस मूल आकांक्षा के साथ तैयार किया गया कि यूरोपीय संघ नई चुनौतियों का सामना कर सके| इधर यूरोपीय संघ की सदस्य-संख्या 25 हो गई| उसमें पूर्व कम्युनिस्ट राष्ट्र भी जुड़ गए| यूरोप में ‘यूरो’ नामक साझा-मुद्रा भी चल पड़ी| यूरोपीय संघ विश्व शक्ति-केंद्र की तरह उभरने लगा| इन नई परिस्थितियों में इस संविधान ने एक चुने हुए यूरोपीय राष्ट्रपति और विदेश मंत्री का प्रावधान किया| इसने यूरोपीय संसद को कुछ विशेष अधिकार भी दिए| इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान यह किया कि पूरे यूरोपीय संघ के व्यापार का आधार मुक्त बाजार की अर्थ व्यवस्था को बना दिया| याने पूंजी और श्रम (नौकरियां) पूरे यूरोप में मुक्त भाव से घूमेंगी| उन पर कोई रोक-टोक नहीं होगी|
इस नए संविधान के ये प्रावधान ही उसे ले बैठे| संविधान के रद्द होने के कई कारण हैं| पहला, फ्रांस और हॉलेंड के लोगों को डर लगा कि उनकी नौकरियां छिन जाएंगी| यूरोप के अपेक्षाकृत गरीब देशों से लाखों मजदूर मालदार देशों में छा जाएंगे| दूसरा, फ्रांस और हॉलेंड के कल-कारखाने अपने देशों से उखड़कर पोलेंड, हंगारी और स्लोवाकिया जैसे सस्ते देशों में चले जाएंगे| तीसरा, मुक्त बाजार के कारण फ्रांसीसी कर्मचारियों को जो बीमा, पेंशन, छुट्टियां आदि मिलती हैं, उनमें काफी कटौती हो जाएगी| चौथा, तुर्की जैसे मुस्लिम राष्ट्र को संघ की सदस्यता मिल जाने से यूरोपीय सभ्यता को धक्का लगेगा और यूरोप का आर्थिक बोझ बढ़ेगा| यूरोप के ईसाई देशों को यह डर भी है कि तुर्की मजदूरों की ओट में ईरान और पाकिस्तान जैसे कठमुल्ला देशों के आतंकवादी यूरोपीय देशों में डेरा डाल देंगे| उन्हें पकड़ना और बाहर निकालना मुश्किल होगा| पांचवा, फ्रांस के वामपंथियों ने प्रचार किया कि यूरोपीय संघ के पूंजीवादी चरित्र के कारण भद्रलोक शक्तिशाली और आम लोग कमजोर होते चले जाएंगे| विषमता की खाई गहरी होगी| छठा, यूरोपीय संघ पर अंग्रेजी भाषा के बढ़ते हुए वर्चस्व के कारण फ्रांसीसी भाषा और संस्कृति खतरे में पड़ेगी| सातवां, यूरोप में अपने आपको सर्वश्रेष्ठ और महान समझनेवाला फ्रांस नए यूरोपीय संविधान में छोटे-मोटे राष्ट्रों के बराबर हो जाएगा| उसकी संप्रभुता और महिमा मंद पड़ेगी| आठवां, फ्रांस और जर्मनी के लोगों के दिलों में यह शक भी बना रहता है कि इन दोनों बड़े राष्ट्रों को यूरोप के राष्ट्रपति बनने का अवसर आसानी से नहीं मिलेगा| छोटे-मोटे राष्ट्र इन्हें अपने नेता क्यों चुनेंगे? इन शक और शुबहों के दूर होने में अभी वक्त लगेगा लेकिन संविधान के रद्द होने का मतलब यह नहीं है कि यूरोपीय संघ टूट जाएगा या यूरोपीय एकता का बिखराव शुरू हो गया है|
यह ठीक है कि फ्रांस और हॉलेंड जैसे राष्ट्रों की आवाजों में पहले-जैसी बुलंदी नहीं रह जाएगी और अब यूरोपीय संघ अमेरिका के मुकाबले जरा कमजोर पड़ जाएगा| लेकिन फिर भी ‘नीस की संधि’, जो वर्तमान संघ का आधार है, अब भी यूरोपीय एकता को बरकरार रख सकती है| संविधान के रद्द होने पर ‘यूरो’ की कीमत घटी है और यूरोपीय नेताओं को कंपकंपी भी चढ़ी है लेकिन यह घटना चलायमान बादलों की तरह है| अभी घिरे और अभी उड़े| यदि संविधान को दो-चार राष्ट्र न भी मानें तो क्या हुआ? शेष राष्ट्र प्रावधानों की औपचारिकता में पड़े बिना इस तरह का आचरण कर सकते हैं कि यूरोपीय एकता प्रबलतर होती चली जाए तथा फ्रेंच और डच जनता की शंका-कुशंकाओं का अपने आप निवारण होता चला जाए| अभी “यूरो” को 25 में से केवल 12 और शेनजेन वीज़ा (साझा वीज़ा) को केवल 13 देशों ने माना है| जैसे ये दोनों व्यवस्थाएं सर्वसहयोग के बिना भी चल रही हैं, वैसे ही अन्य व्यवस्थाएं भी चलती रह सकती हैं| कोई व्यवस्था कितनी भी लाभप्रद हो, अब वह जनता पर जबर्दस्ती थोपी नहीं जा सकती| यूरोप के लगभग 45 करोड़ लोग दुनिया के सबसे अधिक लोकतांत्रिक और मुखर लोग हैं| यदि वे आज किसी व्यवस्था को स्वीकार नहीं कर रहे हैं और उन्हें कुछ मुद्दों पर एतराज है तो उनके रवैए का सम्मान किया जाना चाहिए| यदि यूरोपीय संविधान की तरह कोई संविधान दक्षिण एशिया या आग्नेय एशिया या पश्चिम एशिया के क्षेत्रीय संगठनों पर लागू किया जाता तो उसकी कहीं अधिक दुर्दशा होती| इस संविधान को रद्द कर देने के बावजूद यूरोप में एकता की लहर किसी भी रूप में थमी नहीं है| क्षेत्रीय एकता विश्व राजनीति का अपरिहार्य अंग बन गई है| वह परवान जरूर चढ़ेगी, चाहे देर से ही चढ़े| यूरोपीय संविधान पंचर हुआ है, यूरोपीय एकता नहीं !
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