R Sahara, 4 May 2004 : भारत के अखबारों और नेताओं को क्या दोष दिया जाए? वे चुनाव में इतने व्यस्त हैं कि इधर विश्व राजनीति का एक महाघोष हुआ लेकिन वह उनके कान तक ही नहीं पहॅुंचा| यह महाघोष है, यूरोपीय संघ के सदस्यों की संख्या का एक साथ 15 से 25 जो जाना ! यूरोपीय संघ की तरह राष्ट्रों के पारस्परिक सहयोग के अनेक संगठन लगभग सभी महाद्वीपों पर कार्य कर रहे हैं, जैसे दक्षेस, एसियान, आंजुस, ईईसी आदि लेकिन इन संगठनों में इतनी बड़ी बढ़ोतरी पहले कभी नहीं हुई| कई संगठनों में तो दस सदस्य तक नहीं हैं| यूरोपीय संघ में दस नए सदस्यों के जुड़ जाने से यूरोप की राजनीति पर ही नहीं, विश्व-राजनीति पर भी गहरा प्रभाव पड़ेगा| अब तक 1 मई का दिन श्रम-दिवस के तौर पर विख्यात था, अब वह अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्रीय सहयोग दिवस या यूरोप दिवस के रूप में जाना जाएगा| एक अर्थ में द्वितीय महायुद्घ के बाद की यह सबसे महत्वपूर्ण घटना है| यह ठीक है कि 1989 में जब बर्लिन की दीवार गिरी थी तो सारी दुनिया में खुशी की लहर दौड़ गई थी लेकिन अब 15 साल बाद इस घटना के कारण बर्लिन-दीवार जैसी सभी दीवारें ढह गई हैं| सिर्फ जमीन पर खींची गई भीषण दीवारें ही नहीं, दिलो-दिमाग में उग आईं दीवारें भी !
कौनसी दीवारें थीं, ये? ये दीवारें शीतयुद्घ के कारण खिंची थीं और उसके पहले रूस में हुई लाल क्रांति के कारण भी बनीं थीं| इन्हीं दीवारों को विन्सटन चर्चिल ने अपने पुल्टन भाषण में लौह-आवरण कहा था| एक तरफ थे, बि्रटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली आदि पश्चिम यूरोप के राष्ट्र और दूसरी तरफ थे, सोवियत संघ, हंगारी, पोलेंड, चेकोस्लोवाकिया, यूगोस्लाविया आदि पूर्वी यूरोप के राष्ट्र ! एक खेमे का नेता अमेरिका और दूसरे खेमे का रूस ! दोनों खेमे फौजी गठबंधनों में कसे हुए थे| अमेरिका खेमा नाटो और रूसी खेमा वारसा पैक्ट कहलाता था| इन खेमों की जानी दुश्मनी थी| एक यूरोप में दो यूरोप खड़े हो गए थे| पूंजीवाद और साम्यवाद की सैद्घांतिक जड़ाई के अलावा दोनों खेमों के दर्जनों राष्ट्रों के करोड़ों नागरिकों को लोहे के पर्दे के पार जाने की अनुमति नहीं थी| व्यापार, आवागमन, वैचारिक आदान-प्रदान तक पर रोक लगी हुई थी| जैसा रिश्ता कुछ वर्षों तक भारत और पाकिस्तान के बीच रहा है, उससे भी बदतर रिश्ता इन यूरोपीय राष्ट्रों की बीच था| सारे यूरोपीय राष्ट्रों की सभ्यता-संस्कृति और मज़हब लगभग एक ही हैं| भाषाओं की भिन्नता और कुछ उल्लेखनीय स्थानीयताओं के अलावा मास्को से मेडि्रड तक फैले इस विशाल भूभाग का मिजाज़ लगभग समान है लेकिन महा-शक्तियों के शीतयुद्घ ने इतना ताप उगला कि यूरोप का यह दर्पण कई जगहों से तड़क गया था| अब एक मई को इस तड़के हुए यूरोप को जोड़ने की नई प्रक्रिया शुरू हुई है|
जो 10 नए देश यूरोपीय संघ में मिल रहे हैं, उनमें से आठ ऐसे हैं, जो पहले सोवियत साम्राज्य के अंग थे| पोलैंड, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया, हंगारी, स्लोवेनिया, एस्तोनिया, लातविया और लिथुआनिया ! दो अन्य राष्ट्र हैं, साइप्रस और माल्टा ! अब भी रोमानिया, बल्गारिया, ऊक्रेन, बेलारूस और खुद रूस जैसे बड़े देश यूरोपीय संघ के बाहर हैं| तुर्की भी मिलने को उत्सुक है| हर देश की अपनी मजबूरियॉं हैं लेकिन वे भी बहुत देर तक टिकनेवाली नहीं हैं| तात्पर्य यह कि जिस यूरोप ने एक ही सदी में अपनी छाती पर दो विश्व-युद्घों और लम्बे शीत-युद्घ के आरे चलते देखे, वह अब शांति की बांसुरी बजाने लगा है| पूर्व साम्यवादी राष्ट्रों का मिलन इसीलिए महत्वपूर्ण है कि यूरोपीय समुदाय या संघ के मूल छह सदस्य या अब तक के 15 सदस्य पूरी तरह पश्चिमी खेमे से जुड़े हुए थे| सोवियत संघ को टूटे 13 साल हो गए लेकिन दोनों खेमों के मिलने में इतना लम्बा समय इसीलिए लगा कि एक-दूसरे के प्रति गहरा अविश्वास था, जीवन-पद्घतियों और जीवन-स्तरों में काफी अंतर आ गया था और विश्व राजनीति की दिशा भी अनििश् चत थी| इस वैचारिक धुंधलके में आशा की नई किरणें भी उभरने लगीं| सोवियत संघ से अलग हुए राष्ट्रों के सामने फ्रांस और जर्मनी का जीता-जागता उदाहरण था| उन्होंने देखा कि यूरोप के इन सबसे बड़े दो शत्रु-राष्ट्रों को मित्रता का कितना चमत्कारी लाभ मिला है| पारस्परिक लाभ की यही प्रकि्रया अब सोवियत सीमांत तक पहॅुंच रही है| 1958 में यूरोपीय संघ में केवल छह राष्ट्र थे – फ्रांस, जर्मनी, बेल्जियम, इटली, लक्ज़मबर्ग और नीदरलैंड्रस ! 1973 में डेनमार्क, आयरलैंड और बि्रटेन जुड़े| 1981 में ग्रीस, 1986 में स्पेन और पुर्तगाल और 1995 में आस्टि्रया, स्वीडन और फिनलैंड जुड़े ! 1958 में छह मूल सदस्य राष्ट्रों में केवल 3000 कि.मी. की पक्की सड़क थी| अब वह 52000 कि.मी. है| तब केवल 100 में से 6 लोगों के पास कार होती थी, अब 100 में से 50 लोगों के पास है| हवाई यात्रा का अनुपात 3000 प्रतिशत बढ़ गया है| समस्त राष्ट्रों की राष्ट्रीय आय और व्यक्तिगत आय में भी जबर्दस्त वृद्घि हुई है| इसका श्रेय उन राष्ट्रों के निजी प्रयत्नों को तो है ही, उससे भी अधिक उनके पारस्परिक आर्थिक सहयोग को है| यूरोपीय साझा बाजार की गतिविधियों के कारण पिछले 10 वर्षों में संपूर्ण यूरोपीय संघ के सकल उत्पाद में लगभग दो प्रतिशत की वृद्घि हो गई| लगभग 25 लाख नए रोजगार कायम हो गए| यदि सदस्य-राष्ट्र एक-दूसरे के लिए अपनी सीमाऍं नहीं खोलते तो यह संभव ही नहीं होता| इसी प्रकार सीधे विनिवेश में 1200 प्रतिशत वृद्घि हुई और विनिर्मित वस्तुओं के व्यापार में 30 प्रतिशत ! यह असाधारण आर्थिक प्रगति इसलिए हुई कि सदस्य राष्ट्रों के करोड़ों नागरिकों को प्रत्येक देश में व्यापार, आवागमन, नौकरी, निवास आदि की छूट मिलने लगी| पारपत्रों का रंग एक-जैसा हो गया और यात्रा बेरंग होने लगी| वीज़ा अजायबघर में पहॅुंच गया| पूरे यूरोप ने ‘यूरो’ नामक एक ही मुद्रा अपना ली| आज वह डॉलर से भी अधिक मजबूत है|
ये जो नए 10 राष्ट्र यूरोपीय संघ में मिल रहे हैं, इनकी साढ़े सात करोड़ की आबादी जुड़ जाने से यूरोपीय संघ अब 45 करोड़ लोगों का दुनिया का सबसे बड़ बाजार बन गया है| चीन और भारत में इसके दुगुने से भी ज्यादा लोग रहते हैं लेकिन जैसी क्रय-शक्ति इन यूरोपीय लोगों की है, दुनिया के किसी भी जन-समुदाय की नहीं है| यूरोपीय संघ का सकल घरेलू उत्पाद अब 12.5 टि्रलियन डॉलर हो गया है, जो अमेरिका से भी ज्यादा है| नए देशों के जुड़ने से यूरोपीय संघ की ताकत तो बढ़ेगी लेकिन आर्थिक दृष्टि से फिलहाल उसका बोझा भी बढ़ेगा क्योंकि इन नए सदस्यों की आर्थिक स्थिति कमजोर है| यदि जर्मनी की प्रति व्यक्ति आय 10 है तो लातविया की केवल 1 है| सारे नए सदस्य-राष्ट्र मिलकर भी पूरे संघ की कुल सम्पदा में मुश्किल से पॉंच प्रतिशत की वृद्घि कर रहे हैं| अब भाषाओं का बखेड़ा भी फैलेगा| पहले 11 आधिकारिक भाषाऍं थीं, अब वे 20 हो गई हैं| 20 भाषाओं में समांतर अनुवाद के खर्चों की कल्पना की जा सकती है| नए राष्ट्रों में मजदूरी सस्ती है| उनके मजदूर मालदार राष्ट्रों में बाढ़ की तरह फैलना चाहेंगे| यही समस्या विभिन्न राष्ट्रों की ऊंची-नीची कर-पद्घतियों के कारण भी सामने आएगी| संघ के संविधान को भी कितने राष्ट्रों के जनमत-संग्रह स्वीकार कर पाऍंगे| इन सब दुविधाओं के बावजूद संघ का यह प्रयोग इसलिए सफल होगा कि यह युद्घ के विरुद्घ सबसे सशक्त गारंटी है और पारस्परिक समृद्घि का पर्याय है|
असली प्रश्न यह है कि यदि यूरोपीय संघ मजबूत होता गया तो क्या यूरोपीय राष्ट्रों की प्रभुता कमज़ोर नहीं होती चली जाएगी? पिछले डेढ़-दो सौ वर्षों में उभरे राष्ट्र-राज्य की अवधारणा का क्या होगा? इसमें संदेह नहीं कि राष्ट्रवाद हर बार जोर मारेगा और उसके कारण आपस में तनाव भी उत्पन्न होंगे, जैसे कि यूरोपीय समुदाय में पिछले पॉंच दशकों मंें हुए हैं लेकिन राष्ट्रीय स्वार्थ ही इन तनावों के हल का कारण भी होगा| निर्गुण राष्ट्रवाद के मुकाबले सगुण राष्ट्रहित की विजय स्पष्ट दिखाई पड़ रही है|
क्या यूरोपीय संघ विश्व राजनीति में एक नया ध्रुव बनकर उभेगा? क्या वह अमेरिका के लिए चुनौती बन सकता है? चुनौती बनी या न बने, वह सिरदर्द जरूर बन सकता है| एराक में अमेरिकी हस्तक्षेप इसका ज्वलंत प्रमाण है| फ्रांस और जर्मनी ने जैसा तगड़ा विरोध इस बार किया, वैसा ही वे भविष्य में भी कर सकते हैं| स्पेन की नई सरकार ने तो एराक से अपनी फौजें वापस बुला ली हैं| यदि सभी यूरोपीय राष्ट्र कुछ वर्षों में फ्रांस और जर्मनी की तरह आत्म-निर्भर और समृद्घ हो गए तो वे अमेरिका के लिए खट्टे अंगूर साबित हो सकते हैं| यद्यपि लगभग सभी राष्ट्र नाटो के सदस्य हैं या बनने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन अब नाटो भी कितने दिनों का मेहमान है? यदि साझा बाजार, साझा संसद और साझा न्यायालय बन सकता है तो साझा फौज क्यों नहीं बन सकती? साझी सुरक्षा और साक्षी राजनीति पर विचार करने के लिए अलग से विचार तो हो ही रहा है| यूरोप में जो प्रयोग हो रहा है, उसका असर अन्य महाद्वीपों पर भी पड़ेगा| यदि सभी महाद्वीपों में क्षेत्रीय सहयोग के संघ सफल हो गए तो विश्व की महत्तम शक्ति होने के बावजूद अमेरिका स्वयं को काफी असहाय और निरुपाय पाएगा| फ्रांस और जर्मनी की तरह यदि भारत और पाक में सद्रभाव हो जाए तो दक्षिण एशिया में अमेरिका की भूमिका कितनी प्रभावशाली रह जाएगी?
जहॉं तक भारत का प्रश्न है, यूरोपीय संघ उसका सबसे बड़ा व्यापार-भागीदार है| 24 अरब डॉलर का व्यापार अब और तेजी से बढ़ेगा| नए राष्ट्र पिछड़े हैं| उन्हें भारत का माल, सेवाऍं और तकनीक ज्यादा पसंद आएंगे| उनकी सस्ती मजदूरी के कारण भारत की प्रतिस्पर्धा जरूर बढ़ेगी लेकिन वे सारे राष्ट्र मिलकर भारत के एक प्रांत के बराबर भी नहीं हैं| संघ के पुराने राष्ट्रों में भारत की जरूरत बराबर बनी रहेगी| शक्तिशाली यूरोपीय संघ और भारत के अन्तरराष्ट्रीय नज़रिए में भी विलक्षण समानताऍं उभरेंगी| राजनीति अर्थनीति को मजबूत करेगी और अर्थनीति राजनीति को| भारत में विविधता में एकता प्रयोग यदि यूरोपीय संघ के लिए अनुकरणीय है तो यूरोपीय संघ का क्षेत्रीय सहकार दक्षिण एशिया के लिए अनुकरणीय है| इसीलिए यूरोप में उभर रही नई विश्व शक्ति का भारत में स्वागत ही होगा|
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