नवभारत टाइम्स, 25 नवम्बर 2005 : कांटों भरा ताज किसे कहते हैं, यह देखना हो तो श्रीलंका के राष्ट्र्रपति को देखें, जो मुश्किल से 2 प्रतिशत वोटों से जीते हैं| महिंद राजपक्ष को रनिल विक्रमसिंघ के मुकाबले सिर्फ एक लाख 80 हजार वोट ज्यादा मिले हैं| जीतनेवाले को 48 लाख 87 हजार और हारनेवाले को 47 लाख 6 हजार वोट मिले हैं| ऐसी नाजुक जीत श्रीलंका में अब से पहले किसी राष्ट्र्रपति की नहीं हुई| इसे कांटों का ताज न कहें तो क्या कहें? महिंद राजपक्ष पिछले 35 साल से राजनीति में सकि्रय हैं| उनके पिता ‘श्रीलंका फ्रीडम पार्टी’ के संस्थापकों में से थे और स्वयं राजपक्ष लोकपि्रय नेता रहे हैं| उन्हें सिंहल-केसरी कहा जाता है| इतना ही नहीं, पहले वे मंत्र्ी रह चुके हैं और चुनाव लड़ते वक्त वे श्रीलंका के प्रधानमंत्र्ी थे| इसके बावजूद वे इतने कम वोटों से जीत पाए| यह आश्चर्य इसलिए भी गहरा गया है कि उन्होंने दो सिंहल-उग्रवादी पार्टियों से भी समझौता कर लिया था| एक तो जनता विमुक्ति पेरामून और दूसरी जातिक हेला उरूमाया| ये दोनों दल पिछले चुनावों में जमकर सफल हुए और उन्होंने अपूर्व लोकपि्रयता अर्जित की| पहला दल मार्क्सवादी है लेकिन सिंहल राष्ट्र्रवाद और एकात्मवाद का समर्थक है और दूसरा दल बौद्घ भिक्षुओं का है, जो बौद्घ-सिंहल राष्ट्र्रवाद का प्रवक्ता और संघवाद का विरोधी है| इन दलों को साथ लेने पर राजपक्ष आशा कर रहे थे कि श्रीलंका के 75 प्रतिशत सिंहल मतदाता बाढ़ की तरह उनके लिए उलट पड़ेंगे लेकिन अब चुनाव-परिणामों का विश्लेषण करने पर ऐसा लगता है कि शायद सिंहल जनता का बहुमत भी स्पष्ट रूप से उनके साथ नहीं है| ज़रा सोचें कि लिट्रटे मतदान का बहिष्कार नहीं करता तो क्या होता? क्या सारे तमिल वोट राजपक्ष के विरुद्घ नहीं पड़ते? अगर पड़ते तो राजपक्ष हार जाते और विक्रमसिंघ निश्चय ही जीत जाते| पिछले चुनाव में तमिल क्षेत्रें के मतदाताओं ने 9 लाख वोट डाले थे| इस बार 40 हजार भी नहीं डाले| अगर वे डालते तो राजपक्ष 6-7 लाख वोटों से हार जाते| याने सिंहल उग्रवाद के समर्थक राजपक्ष की जीत का श्रेय तमिल उग्रवाद के प्रवक्ता प्रभाकरन को है, जिसने मतदान-बहिष्कार का नारा दिया था|
राजपक्ष की मुसीबत सिर्फ यही नहीं है कि न तो सिंहल लोग खुलकर उनके साथ हैं और न ही तमिल बल्कि यह भी है कि उनकी पार्टी ‘श्रीलंका फ्रीडम पार्टी’ के लोग भी उनके साथ नहीं हैं| अगर साथ होते तो अनूर बंडारनायक ने उदासीनता क्यों दिखाई? अनूर को राजपक्ष ने अपना भावी प्रधानमंत्र्ी घोषित कर दिया था, फिर भी उन्होंने राजपक्ष के चुनाव-अभियान में भाग नहीं लिया| वे अपनी बहन राष्ट्र्रपति चंदि्रका कुमारतुंग के मंत्रिमंडल में विदेश मंत्री थे| अनूर ही नहीं, पार्टी के अनेक दिग्गजों ने राजपक्ष का साथ नहीं दिया, क्योंकि राजपक्ष ने हेला उरुमाया और पेरामून से हाथ मिला लिया था| खुद चंदि्रका चकित थीं कि राजपक्ष ने ऐसा क्यों किया हालांकि राजपक्ष ने रत्नश्री विक्रमनायक को अपना प्रधानमंत्री घोषित कर दिया है लेकिन इससे बंडारनायक परिवार की राजनीति का अंत नहीं होगा| चंदि्रका और अनूर मिलकर राजपक्ष के मार्ग में कांटें बोने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे| राजपक्ष को अंदर और बाहर, दोनों मोर्चों पर लड़ना होगा|
राष्ट्र्रपति पद की शपथ लेते समय राजपक्ष ने नरमी और लचीलेपन के संकेत दिए हैं| वे नए श्रीलंका का सपना देख रहे हैं लेकिन वे शायद भूल गए कि वे शेर की सवारी कर रहे हैं| हेला उरुमाया और पेरामून, दोनों ही तमिल अलगाववाद के कट्टर विरोधी हैं| वे राजपक्ष पर दबाव डालेंगे कि वे तमिल उग्रवादियों से बिल्कुल भी बात न करें| इन दलों ने राष्ट्र्रपति-चुनाव के कुछ दिन पहले कोलंबो में जबर्दस्त धरनों और जुलूसों का आयोजन किया था| सूनामी-संकट के समय उन्होंने लिट्रटे के ब्लेकमेल से टक्कर लेने की मुहीम भी चलाई थी| ये दल बिल्कुल नहीं चाहते कि सिंहलों और तमिलों के बीच नॉर्वे मध्यस्थता करे| वे नार्वे को निकाल बाहर करना चाहते हैं| राजपक्ष ने भारत जैसे पड़ौसी देशों से अनुरोध किया है कि वे शांति-प्रकि्रया में सहयोग करें| यह ठीक है कि लिट्रटे के आतंकवाद का भारत और अमेरिका, दोनों ही स्पष्ट विरोध करते हैं लेकिन कई कारणों से वे इस फटे में अपना पांव नहीं फंसाना चाहते| भारत तो दूध का जला हुआ है| वह छाछ भी फूंक-फूंककर पिएगा| राजपक्ष क्या, यदि प्रभाकरन भी नाक रगड़े, तब भी भारत को सोचना होगा कि वह श्रीलंका में कोई सकि्रय भूमिका अपने जिम्मे ले या न ले| वह तमिलों और सिंहलों, दोनों से बुराई मोल ले चुका है| सिंहल सिपाही ने राजीव गांधी पर कोलंबो में हमला किया था और तमिल उग्रवादियों ने उन्हें पेराम्बुदूर में मार ही डाला| श्रीलंका की वर्तमान सरकार के साथ भारत के उत्तम संबंध हैं| दक्षिण एशिया में अकेले श्रीलंका से भारत का मुक्त व्यापार हो रहा है और श्रीलंका सुरक्षा परिषद्र में भारत की स्थायी सदस्यता का भी खुलकर समर्थन कर रहा है| इसके अलावा भारत दक्षिण एशिया के किसी भी देश के विभाजन के विरुद्घ है| इसीलिए वह लिट्रटे का समर्थन तो दूर, उसके प्रति सहानुभूति भी नहीं दिखा सकता|
ऐसी स्थिति में राजपक्ष को अपना रास्ता खुद निकालना होगा| 2002 से चल रहा तथाकथित युद्घ-विराम चलता रहे, सुदृढ़ हो जाए या खत्म हो जाए, यह स्वयं उन्हें तय करना पड़ेगा| खून-खराबे और आर्थिक परेशानियों से ग्रस्त श्रीलंकाई लोग शांति के लिए तरस रहे हैं| राजपक्ष के पांव में कांटों की खड़ाउ और सिर पर कांटों का ताज़ धरा हुआ है लेकिन चंदि्रका की तरह उनका प्रधानमंत्री विरोधी दल का नहीं है| उनका अपना है| वे अपने प्रधानमंत्री, मंत्रिमंडल और पार्टी सांसदों के अलावा सहयोगी दलों और विरोधियों के साथ मिलकर कोई ऐसा समूह-गीत तैयार कर सकते हैं, जिसे शायद श्रीलंका के तमिल भी सुनना पसंद करें| वे चाहे कितने ही कम वोटों से जीते हों, आखिरकार किसी भी राष्ट्र्रपति की तरह वे अब श्रीलंका के राष्ट्र्रपति हैं| जॉर्ज बुश तो राजपक्ष से भी कम वोटों से जीते थे लेकिन उन्होंने अपने इस दूसरे कार्यकाल में जितने गंभीर कदम उठाए, किसी भी अन्य अमेरिकी राष्ट्र्रपति ने नहीं उठाए| वे सही थे या गलत, यह एक अलग प्रश्न है| लेकिन यदि कोई राष्ट्र्रपति अपने राष्ट्र्र को सही पटरी पर चलाने के लिए जोखिमभरा निर्णय लेना चाहे तो उसे कौन रोक सकता है ? यदि निर्णय के पीछे सदाशय है तो उनके विरोधी भी उनका स्वागत करेंगे|
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