NavBharat Times, 14 Oct 2005 : बिहार के मामले में उच्चतम न्यायालय ने सभी की फजीहत कर दी है| कोई भी नहीं बचा| क्या राष्ट्रपति, क्या प्रधानमंत्री, क्या मंत्रिमंडल, क्या राज्यपाल, क्या सत्तारूढ़ दल और क्या खुद उच्चतम न्यायालय ! राज्यपाल बूटासिंह के निर्णय को उच्चतम न्यायालय ने ‘असंवैधानिक’ जरूर कहा लेकिन बिहार विधानसभा को उसने पुनर्जीवित नहीं किया| इस अधर में लटके हुए फैसले से सभी राजनीतिक दल खुश हैंं| सत्तारूढ़ दल इसलिए खुश हैं कि नई विधानसभा का चुनाव रद्द नहीं हुआ याने उसकी मूल बात रह गई और विरोधी दल खुश हैं कि राज्यपाल के असंवैधानिक कृत्य के कारण सत्तारूढ़ दल की बदनामी हो रही है| विरोधी नेता यों भी सोचते हैं कि अगर न्यायालय विधानसभा को पुनर्जीवित कर देता तो दुबारा राजनीतिक संकट खड़ा हो जाता| अब सत्तारूढ़ दल की बदनामी का फायदा उन्हें मिलेगा और वे पटना में आसानी से सरकार बना सकेंगे| कोई भी दल न्यायालय पर प्रहार नहीं कर रहा है लेकिन न्यायालय से पूछा जाना चाहिए कि उसने न्याय देने में इतनी देर क्यों लगाई कि दिया हुआ न्याय कोरा झुनझुना साबित हो रहा है? यदि यही फैसला वह चुनाव की घोषणा के पहले दे देता और विधानसभा को जीवित कर देता तो न्याय का जलवा ही कुछ और होता| बोम्मई मामले में अदालत ने जो अधिकार अपने हाथ में ले लिया था, उसका प्रयोग करने में वह झिझक क्यों गई| यदि वह यह चुनाव रद्द कर देती तो क्या बिगड़ जाता? कम से कम कुछ अरब रु. की बचत होती| दर्जनों लोग मरने से बच जाते| कुछ हफ्तों के लिए जो प्रशासनिक अवसाद उत्पन्न हो गया है, उससे छुट्टी मिलती और यह भी किसे पता है कि दुबारा किसी दल को स्पष्ट बहुमत मिलेगा या नहीं? यदि अदालत अपने फैसले को उसके तार्किक लक्ष्य पर पहुंचा देती तो देश के सभी दलों और नेताओं को गहरा सबक मिलता| गवर्नरों को ‘गोबरनरों’ की तरह इस्तेमाल करने की कुप्रथा पर रोक लगती| बिहार और बंगाल में गवर्नर शब्द का उच्चारण गोबर-नर किया जाता है| यह गलत उच्चारण इस शब्द का एकदम सही अभिप्राय प्रकट करता है| पता नहीं, जब अदालत अपना पूरा फैसला सुनाएगी तब ठीकरा किसके माथे फूटेगा? गोबरनरजी के माथे या केंद्र सरकार के माथे ?
चारों तरफ से मांग आ रही है कि बूटासिंह कोे बर्खास्त करो| राज्यपाल दोषी है, इसमें जरा भी शक नहीं लेकिन ऐसा कौनसा राज्यपाल है, जो स्वायत्त हो या जो अपने फैसले खुद करता हो? राज्यपाल उन्हीं हारे-थके नेताओं को बनाया जाता है जो सत्तारूढ़ दलों के काम के नहीं रह जाते| वे अपनी पाली खेल चुके होते हैं| अब केंद्र का हुकुम बजा लाने के अलावा उन्हें कुछ नहीं करना होता है| ऐसे राज्यपालों को यदि बर्खास्त कर दिया जाए तो उससे क्या भारत की राजनीति का शुद्घिकरण हो सकता है? बिल्कुल नहीं हो सकता| इसीलिए सत्तारूढ़ और विरोधी दल, दोनों सिर्फ राज्यपालों को बर्खास्त करने की रट लगाए रहते हैं| दोनों नहीं चाहते की बकरे की मां पकड़ी जाए| बकरे की मां है, केंद्र सरकार| पिछले 55 साल में लगभग 100 बार हमारे राज्यपालों से संवैधानिक कुकर्म करवाया गया लेकिन आज तक एक बार भी किसी गृहमंत्री या प्रधानमंत्री की गर्दन नहीं नापी गई, उनका अपराध सिद्घ नहीं किया गया, उन्हें दंड नहीं दिया गया| किसी प्रांत की विधानसभा या सरकार को यथेष्ट कारण के बिना भंग कर देना क्या कोई मामूली अपराध है? यदि राज्यपाल गलत रपट भेज दे या खुद ही हेराफेरी में शामिल हो तो केंद्रीय मंत्रिमंडल का कर्तव्य क्या है? क्या उसके लिए यह जरूरी है कि वह राज्यपाल की सिफारिश को माने ही? बूटासिंह की सिफारिश जिस फुर्ती से मानी गई और मास्को में राष्ट्रपति से मध्य-रात्र्िा में जिस तरह से दस्तखत करवाए गए, उससे क्या सिद्घ होता है? क्या यह नहीं कि राज्यपाल कोरी कठपुतली के अलावा कुछ नहीं थे| सिफारिश भेजनेवाले ओर उसे माननेवाले एक ही थे| अलग-अलग नहीं| यह ठीक है कि प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने अपनी जिम्मेदारी मानी है लेकिन अगर वे सचमुच जिम्मेदार हैं तो उन्हें अदालत के सामने डट जाना चाहिए और सारे मामले को बड़ी या पूर्ण बेंच के सामने लाकर इस कलंक को धोना चाहिए| यदि वे केवल बूटासिंह को हटाते हैं तो यह तो शुद्घ कायराना कदम होगा| बूटासिंह अपनी जगह डटे रहें, पटना में नई सरकार बनवाएं और मनमोहनसिंह मुकदमा लड़कर बचें, यह भारतीय लोकतंत्र की पवित्रता के लिए जरूरी है| मनमोहन सिंह जैसे स्वच्छ छवि के प्रधानमंत्री बहुत दुर्लभ होते हैं और उन्हें यह कहकर बचाया नहीं जा सकता कि बिहार संबंधी निर्णय कहीं और से उन्हें तैयारशुदा मिला था, जिसे उन्होंने लागू भर किया है| उन्हें देश को यह बताना है कि वे भारत के प्रधानमंत्री हैं या नहीं हैं|
बिहार के फैसले ने मनमोहनसिंह और उनके मंत्र्िामंडल की छवि तो विकृत की ही है, राष्ट्रपति-पद की गरिमा भी घटाई है| डॉ. अब्दुल कलाम कोई नेता नहीं हैं, जो धांधलेबाजी के लिए आसानी से तैयार हो जाएं| आश्चर्य है कि उन्होंने मास्को से ही अपने दस्तखत क्यों कर दिए| सारे मामले को पूरी तरह तौल कर उन्होंने ‘स्वविवेक’ का प्रयोग क्यों नहीं किया? वे चाहते तो मंत्रिमंडल की सिफारिश को दो-चार दिन अपने पास रोके रखते या उसे राष्ट्रपति नारायणन की तरह पुनर्विचार के लिए वापस भेज देते| अब उनके पास क्या जवाब है? क्या यह दुखद नहीं कि संविधान का सबसे बड़ा रक्षक ”असंवैधानिक” कार्य करता हुआ दिखाई दे रहा है? या तो उच्चतम न्यायालय सही है या राष्ट्रपति सही है| यदि राष्ट्रपति और मंत्रिमंडल सही हैं तो उन्हें संसद से संविधान-संशोधन पारित करवाकर उच्चतम न्यायालय के पर कतर देना चाहिए और राज्यपालों को कठपुतलियों की तरह इस्तेमाल करने का निरंकुश अधिकार अपने हाथों में ले लेना चाहिए| पूरा देश यह देखकर भौंचक है कि एक वैज्ञानिक और एक अर्थशास्त्री मिलकर वही बर्ताव कर रहे हैं, जैसे हमारे स्वार्थांध नेतागण करते हैं| यदि अब्दुल कलाम और मनमोहनसिंह कुछ नैतिक बल जुटाएं तो दोनों मिलकर भूल सुधार करें और राज्यपाल पद की नियुक्ति, मर्यादा, महिमा और उपयोगिता के नए प्रतिमान कायम करें| वे चाहें तो ‘गोबरनर’ को सच्चा महामहिम बना सकते हैं|
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