नवभारत टाइम्स, 12 जनवरी 2006 : वृंदा कारत ने किसका भला किया? न खुद का, न मजदूरों का, न देश का, न आयुर्वेद का, न मार्क्सवादी पार्टी का! हर दृष्टि से उनका अभियान गलत साबित हो रहा है| वृंदाजी ने पहले इतने सही मुद्दों पर लड़ाइयाँ लड़ी हैं कि जब उन्होंने स्वामी रामदेव के खिलाफ मोर्चा खोला तो किसी को भी उसमें से दुराशय की आहट तक नहीं मिली| सबने यही समझा कि दिव्य योग फार्मेसी के मजदूरों को वह न्याय दिलाना चाहती हैं लेकिन उन्होंने जैसे ही रामदेवजी की दवाइयों में मानव और पशु हड्डयिों तथा अन्य तत्वों की मिलावट की बात कही तो सारा देश उबल पड़ा| देश का कोई भी प्रमुख दल या नेता उनके साथ नहीं है| कैसी विडंबना है कि केवल उनके पति प्रकाश कारत और उनकी पार्टी – मार्क्सवादी पाटी – ही उनके साथ खड़े दिखाई पड़ रहे हैं| मार्क्सवादी पार्टी के सर्वोच्च नेता ज्योति बसु ने भी अपने हाथ झाड़ लिये हैं| बंगाली मार्क्सवादी नेता अशोक चक्रवर्ती ने तो रामदेव की जनसेवा की खुले-आम सराहना भी कर दी है| भारत की कम्युनिस्ट पार्टी भी वृंदाजी के पक्ष में सामने नहीं आई है| यह कितनी विडंबना है कि प्रकाश कारत और वृंदा कारत जैसे निष्कलंक छवि के उगते सितारों का प्रभा-मंडल इतनी जल्दी गर्दिश में आ गया है| इसका मूल कारण क्या है? क्या यह नहीं कि रामदेव के विरूद्घ जो तौर-तरीके इस्तेमाल किए जा रहे हैं, वे शुद्घ ब्लेकमेल हैं? यदि आप रामदेव को मजबूर नहीं कर सके कि वह आप की युनियन के मजदूरों को दोबारा नौकरी पर रख लें तो आपने यह कहना शुरू कर दिया की उनकी दवाइयों में यह मिला है और वह मिला है? मजदूरों के उचित वेतन और दवाई पर शक में कौनसा आपसी संबंध है?
इसके अलावा वृंदा कारत और मार्क्सवादी पार्टी क्या आहार-शुद्घि अभियान के पुरोधा हैं? क्या वृंदाजी स्वयं माँस, मदिरा आदि का सेवन नहीं करतीं और क्या उन्होंने तथा उनके पार्टी-नेताओं ने अपने लाखों कार्यर्कत्ताओं से कभी आहार-शुद्घि का संकल्प करवाया है? कम्युनिस्ट विचारधारा में इन चीजों का कोई महत्त्व नहीं है| वृंदाजी कार्ल मार्क्स को महर्षि दयानंद बनाने की कोशिश क्यों कर रही हैं? जब वे आयुर्वेदिक दवाइयों में पूर्ण सात्विक तत्वों की माँग करती हैं तो वे पोप से भी अधिक पवित्र् होने का ढोंग करती हैं| दुनिया की सारी दवाइयों में असंख्य अखाद्य पदार्थों का मिश्रण किया जाता है ताकि रोगों से निपटा जा सके| ये अखाद्य पदार्थ, हड्डयिाँ, चर्बी, माँस, मज्जा, विष, अफीम, धातु, रक्त, मूत्र्, मल आदि कुछ भी हो सकता है| वे यदि आयुर्वेद क्या, युनानी, चीनी और एलोपेथी चिकित्सा पद्घतियों के बारे में थोड़ा-सा भी पढ़ने का प्रयत्न करें तो? वे जान जाएँगी कि दवाई का मतलब सिर्फ आँवले का चूरण नहीं होता है| उन्होंने दिव्य योग फार्मेसी की जिन दवाइयों के नमूने सरकारी प्रयोगशाला में जँचवाए, उनमें भी सिर्फ यही कहा गया है कि शीशियों पर लेबल ठीक से नहीं लगे हुए हैं याने उनमें दवाई के घटकों का विवरण नहीं था| यदि प्रयोगशालाएँ यह भी कह देतीं कि इनमें माँस, मज्जा, या हड्डी या विष जैसी चीजें भी पाई गई हैं तो क्या होता? कुछ नहीं होता| ये दवाइयाँ हैं, मिठाइयाँ नहीं हैं| ये औषधि हैं, भोजन नहीं हैं| रोज़ खाने की चीज़ नहीं है| विष को मारने के लिए विष दिया जाता है, पेट भरने के लिए नहीं| जो लोग दमा ठीक करने के लिए जिन्दा मछलियाँ निगलत हैं, क्या वे सब के सब माँसाहारी ही होते हैं? लीवर के रोग ठीक करने के लिए कई शाकाहारी लोग भी ‘कॉड लिवर आइल’ पीते हैं या नहीं? चांदी के वरक बनाने में चर्बी का प्रयोग होता है या नहीं? यदि वृंदाजी को अखाद्य पदार्थों से इतना सख्त एतराज है कि वे उन्हें दवाइयों से भी बाहर करना चाहती हैं तो उन्हें भारत में आहार-शुद्घि और भेषज-शुद्घि का नया आंदोलन चलाना होगा| वे चरम अध्यात्म की परम प्रवक्ता बन जाएँगी| विश्व साम्यवाद के साथ यह क्रूर मज़ाक होगा| मार्क्स ने हीगल को सिर के बल खड़ा किया था| अब वृंदाजी मार्क्स को सिर के बल खड़ा करेंगी| वृंदाजी के रामदेव-विरोधी अभियान ने मार्क्सवादी वार्टी और उनके व्यंक्तित्व को हास्यास्पद बना दिया है| वे विज्ञान के सिर पर डंडा बजाती हुईर् दिखाई पड़ रहीं हैं|
यह कितना दुखद दृश्य है कि प्रकाश और वृंदा कारत की शानदार जोड़ी अब बहुराष्ट्रीय निगमों के दलालों की पंक्ति में खड़ी दिखाई पड़ रही हैं| रामदेव को ब्लेकमेल करते समय वृंदा ने यह कल्पना भी नहीं कि होगी कि वे अन्ततोगत्वा अंग्रेजी दवा कम्पनियों के स्वार्थ का औजार बन जाएँगी| रामदेव करोड़ों लोगों की जिंदगी में योगासनों के जारिए नया उजाला भर रहे हैं और योगासन तथा आयुर्वेद को नए अर्थों से मंडित कर रहे हैं| वे कोका-कोला जैसे अनेक विदेशी पदार्थों के सेबन से लोगों का मन हटा रहे हैं? वृंदा को उनका सबसे बड़ा समर्थक होना चाहिए था लेकिन हो रहा है, उल्टा| वे रामदेव पर नहीं, भारत पर, आयुर्वेद पर, योगासन पर और उनसे लाभान्वित हो रहे करोड़ों ग्रामीणों, गरीबों, और दलितों पर हमला बोल रही हैं| वे कहती हैं कि वे ऐसा नहीं कर रहीं लेकिन उनसे कोई पूछे कि वे जो कुछ कर रहीं हैं, उससे लाभ किसको हो रहा है? उन्हीं को हो रहा है, जो 10 पैसे का पेय 10रू. में बेचते हैं और पाँच पैसे की गोली 50रू. में टिकाते हैं| भारत के गरीब और भोले आदमी का पेट और जेब वे दोनों काटते हैं| आज भी भारत की 80 प्रतिशत जनता आयुर्वेदिक दवाइयों का सेवन करती है और लगभग 6 करोड़ डॉलर की औषधियाँ निर्यात करती है| यह निर्यात 100 करोड़ डॉलर तक बढ़ सकता है| इस प्रबल संभावना से पश्चिम पहले ही प्रकंपित है| उसने च्यवनप्राश जैसी चीजों पर यह कहकर प्रतिबंध लगा दिया है कि उसमें धातुओं की मात्र ज्यादा है| किसी बहुराष्ट्रीय निगम की दवाइयों पर भी क्या भारत इस तरह की मनमानी रोक लगा सकता है? बजाय इसके कि दवाइयों के बाजार में भारत दिग्विजय हो, भारतीय दवाइयों की टाँग-खिचाई ही हमने अपना धंधा बना लिया है| इसका नतीजा क्या होगा? भारत में तो मार्क्सवादी पार्टी की जड़ें हिलने ही लगेंगी, सारे संसार में भारत का बाजार और इज्जत दोनों घटेंगे| अच्छा होता कि वृंदाजी माँग करती कि रामदेव मज़दूरों को उचित वेतन ही न दें बल्कि आयुर्वेद को एलोपेथी से भी अधिक वैज्ञानिक याने प्रामाणिक और परीक्षणीय भी बनाएँ|
जो भी हो, वृंदाजी की छोटी-सी भूल ने आचार्य रामदेव, आयुर्वेद और भारत को अनुभव के एक नए धरातल पर पहुँचा दिया है| इतने दल और इतने नेता पिछले 40 साल में पहली बार किसी एक व्यक्ति के पक्ष में बोले हैं, बिल्कुल वैसे ही जब मई 1966 में मैंने अन्तराष्ट्रीय राजनीति में पी एच डी का शोधग्रंथ हिन्दी में लिखने का दुस्साहस किया था| मेरा सौभाग्य था कि मुझे दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने खुला समर्थन दिया था| वंृदा कारत की कृपा से स्वामी रामदेव आज भारत के स्वनामधन्य महानायकों की श्रेणी में पहुँच गए हैं| वे रामदेव को जितना तपायेगी, वे कुंन्दन की तरह उतने ही दिपदिपाते चले जाएँगे| भाषा, भूषा, भोजन, भजन और भेषज की पंच-क्रान्तियों में से रामदेव भेषज की क्रान्ति के प्रतीक बन गये हैं|
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