NavBharat Times, 16 June 2007 : सत्तारूढ़ दल ने प्रतिभा पाटिल को अपना उम्मीदवार बनाया तो लोग यह मानकर चल रहे हैं कि अगली राष्ट्रपति वही होंगी। संजीव रेड्डी के अपवाद को भूल जाएं तो अब तक ऐसा ही होता आया है। यदि प्रतिभा राष्ट्रपति महोदया कहलाएंगी, तो स्वतंत्र भारत केइतिहास में यह 1 नई बात होगी। भारत ने दुनिया को उस समय महिला प्रधानमंत्री दी थी, जब पश्चिमी जगत इस अजूबे की कल्पना भी नहीं कर सकता था। अब राष्ट्रपति के पद पर 1 महिला बैठ गई तो यह दूसरा बड़ा कीर्तिमान होगा।
विश्व राजनीति की दृष्टि से यह कीर्तिमान हो सकता है, लेकिन इसे महिला-गौरव का मामला कैसे माना जाए? महिला-गौरव का मामला तो इसे तब माना जाता जब इस बार किसी महिला को राष्ट्रपति बनाने का संकल्प शुरू से ही होता। नाम तो दर्जन भर नेताओं के उछले, उन पर गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श भी हुआ, लेकिन आखिर प्रतिभा पाटिल को ही क्यों चुना गया? इसलिए नहीं कि वह 1 महिला हैं और योग्य हैं, बल्कि इसलिए कि विपक्ष के संभावित उम्मीदवार भैरों सिंह शेखावत ने यूपीए के दम फुला दिए थे। उन्होंने उपराष्ट्रपति के चुनाव मेंविरोधी दलों के सांसदों को भी फोड़ लिया था। तब तक वह राजस्थान के प्रांतीय नेता भर थे, लेकिन 5 साल तक राज्यसभा का सफल और निष्पक्ष सभापतित्व करके उन्होंने अपनी अखिल भारतीय छवि भी बना ली है। राष्ट्रपति पद केउम्मीदवार के रूप में वह ज्यादा खतरनाक दिखाई पड़ रहे थे। इसी बीच उन्होंने 1 तुरुप का पत्ता और चल दिया कि वह किसी दल या गठबंधन के उम्मीदवार नहीं होंगे, यानी आप चाहें तो उन्हें सर्वसम्मति से राष्ट्रपतिबनाइए। जो उपराष्ट्रपति रह चुका हो, उसे वैसे भी राष्ट्रपति बनाने में कोई बुराई नहीं है, हालांकि यह जरूरी नहीं है। कृष्णकांत, हिदायतुल्ला, गोपालस्वरूप पाठक और जत्ती राष्ट्रपति नहीं बने तो नहीं बने। लेकिन राधाकृष्णन, जाकिर हुसैन आदि तो उपराष्ट्रपति से ही पदोन्नत हुए। यही आत्मविश्वास लेकर भैरों सिह शेखावत ने पिछले 2 माह से विधिवत अभियान चला रखा था। उन्होंने कोलकाता जाकर ज्योति बसु से तो बात की ही, लगभग सभी छोटे-मोटे दलों और नेताओं से संपर्क बिठा लिया था। अभी सत्तारूढ़ दल अपना उम्मीदवार ही तय नहीं कर पाया था और उधर शेखावत ने लगभग आधा मैदान मार लिया था। यही कारण था यूपीए की घबराहट का।
घबराहट के कारण तो कुछ और भी थे। ऐसे कुछ कांग्रेसी नेताओं के नाम भी उछले, जिनकी योग्यता में तो कोई कमी नहीं थी लेकिन उन्हें या तो वामदलों ने रद्द कर दिया या मायावती ने नकार दिया। कुछ नेताओं पर सब राजी हो सकते थे, लेकिन उनका कुछ भरोसा नहीं था। राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठकर वह पता नहीं क्या-क्या रूप दिखाएं। 2 साल बाद आम चुनाव होंगे। जैसी स्थिति बनेगी, उसमें शायद राष्ट्रपति ही तय करेगा कि प्रधानमंत्री कौन बने। ऐसी हालत मेंशिवराज पाटिल जैसे लोगों पर ही विश्वास किया जा सकता था। कोई भी नेता ऐसा राष्ट्रपति क्यों चुनेगा, जो दूध का दूध और पानी का पानी करने का साहस दिखा सकता हो। यदि इसी आधार पर राष्ट्रपति चुनना हो तो सर्वोच्च न्यायालयके किसी सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश को ही उम्मीदवार क्यों नहीं बना दिया जाए? इसीलिए राजनीति के अनेक दिग्गजों को 1 तरफ बुहार दिया गया और 1 ऐसे उम्मीदवार को सामने लाया गया जो असाधारण तो नहीं है, लेकिन उस पर कोई उंगली भी नहीं उठा सकता। सत्तारूढ़ दल के इस उम्मीदवार का महिला होना महज संयोग है और अच्छा है, लेकिन अगर उन्हें इसलिए आगे लाया गया है कि वह राजपूत हैं, शेखावत है और उनका ससुराल मूलत: राजस्थानी है, तो यह शुद्ध राजनीति है। प्रतिभा पाटिल महाराष्ट्र की हैं, इस नाते शरद पवार और बाल ठाकरे भी जुड़ जाएंगे, यह सूक्ष्मतर राजनीति है। इसे गलत कैसे कहें, बुरा कैसे कहें? 1 बड़े मोहरे के विरुद्ध अपने मोहरे को बड़ा बनाने के लिए स्त्रीवाद, जातिवाद, प्रांतवाद, भाषावाद आदि सभी साधनों का इस्तेमाल करना अनैतिक तो नहीं कहा जा सकता। लेकिन इसके बावजूद राष्ट्रपति का यह चुनाव बहुत ही कटुतापूर्ण बन सकता है।
इस चुनाव को कटुता से कैसे बचाया जाए? अगर चुनाव हुआ तो सारा फैसला लगभग 1 लाख वोटों पर निर्भर होगा। दोनों गठबंधनों में लगभग 2 लाख मतों का अंतर है। 1 लाख से ज्यादा वोट तथाकथित तीसरे मोर्च के पास हैं और लगभग 75 हजार वोट निर्दलीयों के पास। ये वोट जिधर भी झुकेंगे, वही बाजी मार ले जाएगा। राष्ट्रपति के चुनाव में जीतने वाले और हारने वाले का अंतर वैसा नहीं होगा, जैसा प्राय: हुआ करता है। ऐसी स्थिति में क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हमारे राजनीतिक दल 1 नईपरंपरा कायम करें? ब्रिटिश संविधान में लिखित कानूनों से ज्यादा महत्व अलिखित परंपराओं का होता है।
हम ऐसी परंपरा कायम क्यों न करें कि सभी संवैधानिक पदों को दलीय राजनीति से मुक्त कर दें। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष के पद संवैधानिक पद हैं। इन पदों पर आने के पहले या बाद में लोग अपने दलों से आखिर इस्तीफा क्यों दे देते हैं? इसलिए कि ये पद निष्पक्ष, निर्दलीय और सर्वसम्मानीय माने जाते हैं। इनका चुनाव भी इसी आधार पर क्यों न हो? इन्हें पार्टी या गठबंधन के बंधन में क्यों बांध दिया जाता है? सभी सांसदों और विधायकों को यह छूट क्यों नहीं दी जाती कि वे अपने मनपसंद उम्मीदवार को अपना वोट दें? मतदान का आधार पार्टीबाजी नहीं, बल्कि शुद्ध रूप से उम्मीदवार की योग्यता हो। यों भी मतदान गुप्त होता है और कोई सचेतक भी जारी नहीं किया जाता। यानी वैधानिक तौर पर कोई मतदाता पार्टी लाइन पर मतदान करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। ऐसे में अगर दोनों प्रमुख उम्मीदवारों की समर्थक पार्टियां खुले मतदान की घोषणा करें तो 1 नया लोकतांत्रिक आदर्शकायम होगा। इन पदों के उम्मीदवारों पर सर्वसम्मति हो जाए तो उसका कहना ही क्या, लेकिन वह नहीं हो तो इस सुझाव पर किया गया अमल हमारी राजनीति की कटुता घटाएगा, इन पदों की गरिमा बढ़ाएगा और योग्य व्यक्तियों को राजनीति में आने के लिए प्रेरित करेगा। किसी भी पार्टी का नेता ऐसे किसी उम्मीदवार को खड़ा करने की हिमाकत नहीं करेगा जो अयोग्य हो, जो सिर्फ रबर स्टैंप हो और जो केवल अपनी ही पार्टी में लोकप्रिय हो।
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