जनसत्ता, 28 जून 2007 : इस बार राष्ट्रपति का चुनाव पता नहीं किस-किस की बलि लेगा? यह भारतीय राजनीति का निगम-बोध घाट क्यों बन गया है? राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम अच्छे-खासे रिटायर हो रहे थे लेकिन तीसरे मोर्चे ने उनके गले में चुनाव का टायर बांध दिया| दुबारा राष्ट्रपति बनने की इमली लटकी देखकर कलाम के मुंह में पानी भर आया| सर्वसम्मति के कुतुब मीनार से उतरकर वे ‘जीत की संभावना’ के चौराहे पर आ बैठे| यों उनका कार्यकाल असाधारण रहा हो या राष्ट्रपति के तौर पर उनकी कोई एतिहासिक भूमिका रही हो, ऐसा भी नहीं है| फिर भी उन्हें पूरे मान-सम्मान के साथ ही बिदा किया जाता लेकिन उनके चौराहे पर उतरते ही चारों तरफ से ‘फूल और पत्थर’ बरसने लगे| पहले से डरे हुए नेता खिसिया गए| उन्होंने महामहिम को खरी-खरी सुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी| क्यों छोड़ें? यह आखिर राजनीति का अखाड़ा है, खाला का घर नहीं है| कलाम अगर नेता होते तो समरांगण में डटते और दो-दो हाथ करते लेकिन उन्होंने अपना पानी उतरने दिया| बढ़ा हुआ कदम वापस कर लिया| कलाम की कई अच्छी बातें इतिहास याद रखे या न रखे, इस वापसी को वह नहीं भूल पाएगा|
कलाम के पहले भारतीय राजनीति के कई दिग्गज कलम हो गए| उनके नाम कौन नहीं जानता? उन्हें गिनाने से क्या फायदा? वे रद्द क्यों हुए? वे स्वामिभक्ति की कसौटी पर खरे नहीं उतरे| मुख्य प्रश्न यह नहीं था कि वे लोग राष्ट्रपति पद के योग्य है या नहीं बल्कि यह था कि उनकी जी-हुजूरी का रेकॉर्ड कैसा है? जो जितना बड़ा जी-हुजूर है, वह उतना बड़ा पद पाएगा| जी-हुजूरी भारतीय राजनीति का ब्रह्रमास्त्र् है| सभी राजनीतिक दलों में इसका बोलबाला है लेकिन कॉंगे्रेस ने इसे उच्च कोटि की ललित-कला का रूप दे दिया है| उसके मापदंड बहुत ऊंचे हैं| सभी कोणों से सर्वांग सुंदर दिखनेवाली नृत्यागंना भी यह कहकर रद्द कर दी गई कि अगर यह नाचेगी तो नाचघर तो जगमगा जाएगा लेकिन रसोईघर सूना हो जाएगा| यदि उसका होना इतना ही अपरिहार्य था तो उसे प्रधानमंत्री ही क्यों नहीं बना दिया गया? एक के बाद एक दिग्गज उम्मीदवारी की फैशन परेड में रद्द होते गए| कुछ पर वामपंथियों ने अडंगा लंगा दिया और कुछ पर मायावती ने| ये सब दिग्गज घायल चीते की तरह जम़ीन से चिपके बैठे हैं| अपने घाव सहलाने के अलावा वे क्या कर सकते हैं? जीवन के आखिरी दौरे में उन्हें अपमान का घूंट जो पीना पड़ा है| राष्ट्रपति के पिछले चुनावों में इतने महारथी एक साथ कभी ऐसे ढेर नहीं हुए, जैसे इस बार हुए| भाजपा गठबंधन के उम्मीदवार भैरोंसिह शेखावत बिना लड़े ही चुनाव जीत गए|
शेखावत के मुकाबले जब प्रतिभा पाटिल का नाम उछला तो कुछ राहत-सी मिली| एक नया नाम, स्त्री नाम ! स्फुरण-सा हुआ| सत्तारूढ़ गठबंधन की मुहर लगते ही माना जाने लगा कि प्रतिभाजी बस राष्ट्रपति बन ही गई हैं| सचमुच ऑंकड़े तो आज भी उनके साथ हैं लेकिन प्रतिभा पाटिल के बारे में जलगॉंव से जैसी रोमांचक खबरें आ रही हैं, आज तक किसी भी राष्ट्रपति-पद के उम्मीदवार के बारे में नहीं आई| सारा राष्ट्र स्तब्ध है| स्वयं कॉंग्रेसी परेशान हैं| अब करें तो क्या करें? अब इतनी देर हो गई है कि अपने उम्मीदवार को कैसे बदला जाए? प्रतिभा पर लगे संगीन आरोप या तो सही हैं या गलत हैं| यदि वे गलत हैं तो उन अखबारों पर कठोरतम कार्रवाई तत्काल की जानी चाहिए, जो भावी राष्ट्रपति को बदनाम करने पर कमर कसे हुए है या प्रतिभा के बारे में तत्काल निर्णय किया जाना चाहिए| इस समय कांग्रेस के पास इंदिरा गांधी जैसा कोई जांबाज़ नेता नहीं है, जो रातों-रात चमत्कारी निर्णय ले ले| इस सॉंप-छछुंदर गति का खामियाज़ा सबसे ज्यादा सोनिया गॉंधी को भुगतना पड़ेगा| प्रतिभा पाटिल की खोज को नहले पर दहला माना जा रहा था| इस खोज का सारा श्रेय अकेले सोनिया गॉंधी को दिया जा रहा था| अब कहा जा रहा है, सोनिया गॉंधी को क्या पता था कि किसी राज्यपाल का भूतकाल इतना भयावह हो सकता है और वाकई यह भयावह था तो यह शोर अभी ही क्यों मच रहा है? पहले क्यों नहीं मचा?
डॉ. मनमोहन सिंह जैसे निष्कलंक व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाकर सोनिया गांधी ने जो छवि अर्जित की थी, वह अब चूर-चूर होने को है| प्रतिभा की उम्मीदवारी महिला सशक्तिकरण नहीं, महिला मोहराकरण की मिसाल है| इतिहास कहेगा कि एक महिला ने दूसरी महिला को अपना मोहरा बनाया| यदि यह मोहरा भी सौ टंच होता तो लोग मोहराकरण की बात भूल जाते| यदि प्रतिभाजी राष्ट्रपति बन गई तो उन्हें पद तो मिल जाएगा लेकिन पद की गरिमा कैसे मिलेगी? राष्ट्रपति का यह चुनाव दो-दो राष्ट्रपतियों की गरिमा को खटाई में डाल रहा है| ज़रा याद कीजिए कि कॉंग्रेस अध्यक्ष को स्वाधीनता संग्राम के दिनों में किस पद-नाम से पुकारा जाता था| क्या ‘ राष्ट्रपति’ नहीं?
प्रतिभा पाटिल में कितनी प्रतिभा है, इसका पता पिछले दो हफ्ते में सारे देश को चल गया है| पहले पर्दे और मुगलों पर उन्होंने मुसलमानों और इतिहासकारों को नाराज किया और अब ब्रह्रमकुमारियों के दादा लेखराज उनके सपने में आ गए| बेचारे कॉमरेड प्रकाश करात और सीताराम येचुरी अब अपनी खोपड़ी खुजला रहे हैं| क्या हमारा राष्ट्रपति भवन अब अज्ञान और अंधविश्वास का अड्डा बननेवाला है? प्रतिभाजी ये गच्चे जान-बूझकर नहीं खा रही हैं और न ही यह उनकी कोई आकस्मिक भूल-चूक है| वे जो कुछ कह रही हैं, उसके पीछे उनका गहरा विश्वास है| यह उनकी आदत है| राष्ट्रपति के चुनाव तक पहुंचते-पहुंचते वे अपनी स्थिति कितनी हास्यास्पद बना लेंगी, यह सोनियाजी को भी नहीं पता| उन्होंने कितने गर्व से कहा कि वे रबर स्टाम्प राष्ट्रपति नहीं होगी| उनके सत्साहस पर कौन फिदा नहीं होगा? ज़रा तुलना करें, ज्ञानी जैलसिंह के साथ, जिन्होंने कहा था कि अगर इंदिराजी कहेंगी तो मैं खुशी-खुशी झाड़ू भी निकालूंगा| जैलसिंह ने जो कहा, उसका उल्टा किया| प्रतिभाजी जो कह रही हैं, क्या वे भी उसका उल्टा नहीं करेंगी?
डॉ. कलाम के पक्ष में अपना नाम वापस लेने की बात से शेखावत की छवि में चार चांद जरूर लगे हैं लेकिन उनसे कोई पूछे कि वे इतिहास में किस रूप में याद किए जाना चाहते हैं? भारत के एक श्रेष्ठ उपराष्ट्रपति के रूप में या राष्ट्रपति-पद के हारे हुए उम्मीदवार के रूप में? और हारना भी किससे? प्रतिभा पाटील जैसी महिला से? इसका विकल्प यह भी है कि भैरोंसिंह शेखावत राष्ट्रपति पद तश्तरी में रखकर प्रतिभाजी को भेंट कर दें| कहें कि अब यह पद इतना महान हो गया है कि इस पर अब आप ही बिराजें| अब यह आपके लायक ही रह गया है| यदि शेखावतजी राष्ट्रपति पद छोड़ने को तैयार हों तो राष्ट्र उन्हें प्रधानमंत्र्ी पद देने को तैयार हो सकता है| राष्ट्रपति का चुनाव सांसद और विधायक करते हैं जबकि प्रधानमंत्री का चुनाव जनता करती है| उस चुनाव में सिर्फ दो साल की देर है| क्या इस समय भाजपा-गठबंधन के नेता राष्ट्र की नब्ज़ पर हाथ रख सकते हैं? क्या वे यह जुआ खेलने को तैयार हैं? क्यों खेलें वे ऐसा जुआ? शेखावत-जैसे रणबांकुरे को वे क्यों बनने दें, रणछोड़दास? अब उनके पास ‘अतरात्मा की आवाज़’ के अलावा कोई रास्ता बचा नहीं रह गया है| इन भोले स्वयंसेवकों से कोई पूछे कि यदि नेताओं के पास अंतरात्मा होती तो ये लोग कभी राजनीति में आते? राजनीति के महात्माओं के पास केवल बहिर्रआत्मा होती है, अंतरात्मा नहीं| बाल ठाकरे और शरद पवार उसके जीते-जागते प्रमाण हैं| क्या नेतागण बहिर्रआत्मा की आवाज़ भी सुनेंगे? पता नहीं, वह भी सुनेंगे या नहीं? क्या वे राष्ट्रपति पद की गरिमा की रक्षा नहीं करेंगे? क्या वे अपने सर्वोच्च नेता की छवि को मलिन होने से नहीं बचाऍंगे? क्या वे राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, और स्पीकर के पद को पार्टीबाज़ी के दल-दल से ऊपर नहीं उठाऍंगे? शायद न उठाऍं लेकिन हमारे सांसदों और विधायकों को इतना तो पता है कि यदि राष्ट्रपति का फैसला वे करेंगे तो उनका फैसला जनता ही करेगी|
राष्ट्रपति का चुनाव करते समय सांसदों और विधायकों को पूरी छूट होती है कि वे अपने स्वविवेक का प्रयोग करें| पार्टियॉं व्हिप (सचेतक) जारी नहीं करतीं और मतदान गुप्त होता है| यह राष्ट्रपति के मतदाताओं पर निर्भर है कि वे अपने अधिकार का प्रयोग कैसे करते हैं| वे चाहें तो अपने मतदान में जनता की राय को प्रतिबिंबित कर सकते हैं या केवल अपने नेताओं के आदेश का अंध पालन भी कर सकते हैं| सांसद और विधायकगण जनता के जितने करीब होते हैं, नेतागण नहीं होते| उम्मीदवारों के नाम नेता तय करते हैं| वे अपने हिसाब से बेहतरीन आदमी नामज़द करते हैं लेकिन सांसदो और विधायकों को पता होता है कि उस बेहतरीन उम्मीदवार की छवि जनता में कैसी है| उनका हाथ जनता की नब्ज पर होता है| जिसका हाथ नब्ज पर हो, वही मरीज़ को दवा क्यों न दे? क्यों नही नब्जवाले हकीम को छूट दी जाए कि वह अपने विवेक के अनुसार दवा दे? इंदिरा गांधी ने यही फार्मूला संजीव रेड्डी और वराह गिरि के वक्त लागू किया था| उस समय और आज भी राष्ट्रपति का चुनाव अप्रत्यक्ष नहीं, प्रत्यक्ष मतदान का विषय बन गया है| इस चुनाव में कोई भी हारे या जीते, इसका प्रभाव दूरगामी होगा|
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