नवभारत टाइम्स, 7 अप्रैल 2007 : उच्च शिक्षा में पिछड़ों को आरक्षण दिया जाए या नहीं, इस मुद्दे को उच्चतम न्यायालय ने एक बाद फिर जिंदा कर दिया है| देश के सभी राजनीतिक दल न्यायालय के फैसले का विरोध कर रहे हैं लेकिन अनेक संगठन एवं लाखों छात्र् इस फैसले पर फिदा हुए जा रहे हैं| राजनीतिक दलों की अपनी मजबूरी है| उन्हें वोट चाहिए| वे ठकुरसुहाती के अलावा कुछ कह ही नहीं सकते| उनके लिए न्याय, राष्ट्रहित, दूरंदेशी आदि मूल्य गौण हैं| उनके लिए कुर्सी ही ब्रह्म है| बाकी सब मिथ्या है| रानीतिक दलों के मुकाबले जो ऊँची जातियों के प्रवक्ता और छात्र्गण हैं, वे भी अपने स्वार्थ में डूबे हुए हैं| वे खुश हैं कि उच्चतम न्यायालय का फैसला उनके स्वार्थ की रक्षा करेगा| उन्हें देश के करोड़ों दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को आगे बढ़ाने की कोई चिंता नहीं है| दूसरे शब्दों में हमारा लोकतंत्र् स्वार्थतंत्र् में बदल गया है| हर वर्ग केवल अपने स्वार्थ की चिंता में मगन है| इसीलिए उच्चतम न्यायालय के फैसले को आधार बनाकर देश में दूरगामी चिंतन का दौर नहीं चल रहा है, केवल निंदा स्तुति की लहरें दौड़ रही हैं|
वास्तव में अदालत ने जिस आधार पर आरक्षण रोका है, वह काफी बोदा है| 1931 के बाद अभी तक एक भी जन गणना जाति के आधार पर नहीं हुई| इसीलिए अदालत का कहना है कि 76 साल पुरानी गणना के आधार पर 27 प्रतिशत आरक्षण कैसे दिया जा सकता है? अदालत से कोई पूछे कि उस समय भारत की कुल आबादी में पिछड़े कितने थे 1980 मेंं मंडल आयोग ने पिछड़ों की संख्या 52 प्रतिशत मानी थी या नहीं? यदि मानी थी तो क्या उन्हें 52 प्रतिशत आरक्षण कभी भी दिया गया? केवल 27 प्रतिशत दिया गया| क्यों दिया गया? इसलिए दिया गया कि इससे ज्यादा नहीं दिया जा सकता था| 22) प्रतिशत आरक्षण पहले ही अनुसूचितों और आदिवासियों को दिया जा रहा था| अब दोनों आरक्षणों को मिला दे ंतो 49) प्रतिशत बनेगा| यानि पिछड़ों को 27) प्रतिशत तक दिया जा सकता था| इससे ज्यादा नहीं| दूसरे शब्दों में पिछड़ों को जितना मिलना चाहिए था, उससे भी आधा मिला है| उच्चतम न्यायालय ने इस 27 प्रतिशत आरक्षण पर 1992 में अपने मुहर लगाई थी| यदि ताज़ा फैसले के कारण जातीय जन-गणना कराई जाए तो पिछड़ों की संख्या पहले से कहीं ज्यादा बढ़ी हुई पाई जाएगी| तो क्या अदालत आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाएगी? पिछड़े प्राय: ग्रामीण हैं, गरीब हैं, अशिक्षित हैं| उनकी संख्या बढ़ेगी या घटेगी? यहाँ अदालत अपने ही तर्कजाल में उलझकर रह जाएगी| यदि अदालत मंडल आयोग के 52 प्रतिशत के आँकड़े को न माने और राष्ट्रीय सेम्पल सर्वे के 32 प्रतिशत के आँकड़े को ही प्रामाणिक मान लें तो भी 27 प्रतिशत को वह अनुचित कैसे ठहराएगी? उच्चतम न्यायालय की बात मानकर यदि सरकार अब जातीय आधार पर जन-गणना करवाएगी तो वह देश को तबाही के रास्ते पर ले जाएगी| इसी कारण सरदार पटेल ने जातीय जन-गणना का सदा विरोध किया| अब 76 साल बाद इस मुर्दे को फिर जिंदा किया गया तो भारत-भवन जातीय संड़ाँध से भर जाएगा| जिस जात को खत्म करने के लिए डॉ. राममनोहर लोहिया और उनके शिष्य विंदेश्वरी मंडल ने आरक्षण का बीड़ा उठाया था, वह भारत की सामाजिक समरसता के लिए ज़हर का प्याला बन जाएगा|
उच्चतम न्यायालय ने पिछड़ों में मलाईदार परतों का मामला सहीं ढंग से उठाया है और पिछड़ापन, कैसे स्वार्थ सिद्घि और बेशर्मी का प्रतीक बन गया है, यह भी दो-टूक शब्दों में बताया है लेकिन जातीय जनगणना का मामला उठाकर उसने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है| उच्चतम न्यायालय चाहता तो आरक्षण के सवाल पर मौलिक चिंतन कर सकता था| वह भारत की दुखती रग पर उंगली रख सकता था| भारत को जातिवाद के दल-दल से बाहर निकाल सकता था| आरक्षण की अंधी राजनीति को सदा के लिए देश-निकाला दे सकता था| वह करोड़ों दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को जिंदगीभर लूले-लँगड़ों की तरह जीने की मजबूरी से मुक्त कर सकता था| पिछले 50 साल का आरक्षण का हमारा अनुभव क्या है? नौकरियों के आरक्षण ने मुट्ठीभर लोगों को कुर्सी पर जरूर बिठा दिया लेकिन उन्हें कुर्सी के लायक बनाने पर कभी जो़र नहीं दिया| जो कुछ लायक लोग आरक्षण के दरवाजे से अंदर घुसते हैं, जिंदगीभर उनके माथे पर भी अयोग्यता का टीका लगा दिया जाता है| आरक्षण अयोग्यता को आदरणीय और योग्यता को अनादरणीय बनाता है|
इसका समाधान हमारे नेताओं ने यह निकाला कि उच्च शिक्षा में आरक्षण दिया जाए याने नौकरियाँ देने के पहले पिछड़ों को योग्य बनाया जाए| अर्थात नौकरियाँ योग्यता के आधार पर दी जाँएं| तो यहां प्रश्न यह है कि फिर नौकरियों में से आरक्षण को खत्म करने का कानून साथ-साथ क्यों नहीं बनाया गया? योग्य व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर नौकरी पाएगा या अपनी जाति के आधार पर? हमारी संसद में पिछले साल जब यह कानून सर्वसम्मति से पारित किया तो किसी सांसद ने खड़े होकर यह नहीं पूछा कि उच्च शिक्षा और नौकरी, दोनों में आरक्षण का क्या अर्थ है? क्या यह परस्पर विरोधाभास नहीं है? क्या वोट की अंधी राजनीति नहीं है? क्या यह राजनीतिक बेईमानी नहीं है? यदि हमारे नेता ईमानदार होते तो विधानसभाओं, संसद और मंत्र्िमंडलों में भी 50 प्रतिशत आरक्ष्ण करते! राजनीति में तो वैसी औपचारिक योग्यता की भी जरूरत नहीं होती, जैसी नौकरियों में होती है| इसने ज़रा भी शक नहीं कि नौकरी में आरक्षण देने के मुकाबले शिक्षा में आरक्षण देना हजार गुना बेहतर है लेकिन इन नेताओं से कोई पूछे कि उच्च-शिक्षा में आरक्षण देना क्या शुद्घ ढोंग नहीं है? यदि मलाईदार पिछड़ों को हटा दें तो कितने पिछड़े ऐसे हैं, जो उच्च-शिक्षा के लिए अपने बच्चों पर 10 हजार से 30 हजार रू. प्रति माह खर्च कर सकते हैं? प्रवेश तो आप दे देंगे, फीस कौन भरेगा? दिल्ली में रहेंगे, मगर खाएँगे क्या? जो इतनी मोटी फिस भर सकते हैं? उन पिछड़ों को आरक्षण की कोई जरूरत नहीं है|
यदि दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को सचमुच हमें आगे बढ़ाना है, उन्हें अपने पाँवों पर खड़े करना है और उन्हें स्वाभिमानी बनाना है तो उनके लिए उच्च-शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण को अविलंब खत्म किया जाना चाहिए| उन्हें आरक्षण दिया जाना चाहिए, शिशुशाला से 10वीं या 12वीं कक्षा तक! और आरक्षण भी कैसा? जैसा कि अब से सवा सौ साल पहले महर्र्षि दयानंद सरस्वती ने कहा था| उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में लिखा था कि राजा का बेटा हो या रंक का, सभी छात्रें को ”तुल्य भोजन, तुल्य वस्त्र् और तुल्य निवास दिया जाए|” देश की सभी पाठशालाओ में, वे चाहे सरकारी हो या गैर-सरकारी, कम से कम 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित की जाँए और आरक्षित बच्चों को वे सब सुविधाएं मुफ्त दी जाएँ जो सवर्णोंं और समर्थों के बच्चों को मिलती है| इस आरक्षण का आधार भी जात नहीं, बच्चों की सामाजिक! आर्थिक स्थिति हो| यदि अवसरों को, सुविधाओं की समानता होगी तो योग्यता की समानता अपने आप उत्पन्न हो जाएगी| योग्य व्यक्ति आरक्षण स्वीकार ही नहीं करेगा| उसे वह अपना अपमान मानेगा| वह उच्च शिक्षा और नौकरी किसी की कृपा से नहीं, अपनी योग्यता से प्राप्त करेगा| जो आरक्षण हमारे संविधान निर्माताओं ने कभी दवा की तौर पर सुझाया था, उसे हमारे नेताओं ने नियमित भोजन बना दिया है| क्या हम कोई ऐसी तरबक़ीब निकालेंगे कि भारतीय समाज को इस कड़वी दवाई से छुटकारा मिले? वह स्वस्थ, सम्पन्न और समतामूलक बनें|
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