NavBharat Times, 9 Feb 2007 : विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी की ईरान यात्रा से नाटकीय नतीजे निकलने की उम्मीद जिन लोगों को रही होगी, वे निराश हो सकते हैं। लेकिन जिन्हें भारत-ईरान संबंधों की वर्तमान पेचीदगियों का पता है, वे मानेंगे कि यह यात्रा सार्थक रही। सबसे बड़ी बात तो यह कि यात्रा के दौरान कोई बदमजगी नहीं हुई। भारत सरकार में मुखर्जी की जैसी वरिष्ठता है, उसे तेहरान में पूरी मान्यता और प्रतिष्ठा मिली। ईरान के नेताओं ने उनके साथ खुलकर बात की। यात्रा के पहले डर था कि कहीं दोनों पक्षों के बीच कुछ कहा-सुनी न हो जाए। इस डर के दो कारण थे। एक तो यह कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कुछ माह पहले कह दिया था कि भारत अपने पड़ोस में एक और परमाणु राष्ट्र को पैदा होते नहीं देखना चाहता। ईरान में इस बयान पर तीव्र प्रतिक्रिया हुई थी। दूसरा कारण यह था कि भारत ने अन्तरराष्ट्रीय परमाणु एजेंसी में दो बार अमेरिकापरस्त प्रस्तावों का समर्थन कर दिया। इस कदम के कारण ईरान में राजनीतिक लावा फूट पड़ा। औसत ईरानी मानने लगे कि भारत अमेरिका के दबाव में आ गया। ईरान के राष्ट्रपति अहमदीनेजाद ने तेल सप्लाई बंद करने की धमकी दे दी और यहां तक कह दिया कि भारत ने खुद तो बम बना लिया और वह ईरान के शांतिपूर्ण परमाणु कार्यक्रम को भी बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। ईरान में यह भी माना जा रहा था कि संयुक्त राष्ट्र ने ईरान के विरुद्ध जो प्रतिबंध लगाए हैं, उन्हें भी भारत का समर्थन प्राप्त है।
इधर भारत की चिंता यह थी कि ईरान के साथ उसके आर्थिक संबंध खराब न हो जाएं। तेल की सप्लाई बंद होने से यों तो दोनों का नुकसान होता लेकिन इस बीच संपन्न हुए गैस पाइप लाइन और गैस के समझौते खटाई में पड़ते दिखाई देने लगे। ईरान सरकार ने समझौते के बावजूद गैस के दाम बढ़ा दिए और पाइप लाइन पर पाकिस्तान के साथ अलग से समझौता कर लिया। इससे भी बड़ी चिंता यह थी कि कहीं ईरान भी युद्ध क्षेत्र में न बदल जाए। ईरान ने संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों की रत्ती भर परवाह नहीं की, बल्कि ईरानी राष्ट्रपति ने अमेरिकी महाद्वीप के देशों की यात्रा करके अनेक अमेरिका विरोधी बयान दिए। उधर अमेरिका ने ईरान के खिलाफ अपनी तैयारी भी तेज कर दी। उसने अपना दूसरा विमानवाहक जलपोत भी खाड़ी में तैनात कर दिया, ताकि वह इस्पहान और नतंज के परमाणु संयंत्रों को दूर बैठे-बैठे उड़ा सके। वह भारत जैसे देशों को भी ईरान से असहयोग करने के लिए प्रेरित कर रहा है। ईरान पर छा रहे अमेरिकी हमले के बादल आज उसी तरह गहरा रहे हैं, जैसे वे तीन साल पहले इराक पर गहराए थे। ऐसे में भारत की चिंता यह है कि यदि युद्ध छिड़ गया तो वह अफगानिस्तान और इराक से कहीं अधिक भयंकर होगा। लगभग सारा मध्य एशिया और दक्षिण एशिया इसकी लपटों में झुलस सकता है।
ऐसी स्थिति में मुखर्जी की तेहरान यात्रा बहुत ही महत्वपूर्ण बन गई थी। इसी समय पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ भी तेहरान गए। कुछ लोग मान रहे हैं कि ये दोनों यात्राएं अमेरिका के इशारे पर हुई हैं। अमेरिका अपने शिकार कोआखिरी चेतावनी दे रहा है। यदि अब भी ईरान नरम नहीं पड़ा तो उसका हश्र वही होगा, जो इराक का हुआ है। यदि यह अनुमान सही हो तो भी मानना पड़ेगा कि भारतीय विदेश मंत्री ने तेहरान में कोई ऐसी बात नहीं कही जिससे यह मालूम पड़े कि भारत किसी महाशक्ति का पिछलग्गू है। मुखर्जी ने यह बिल्कुल ठीक ही कहा कि ईरान की गुत्थी को बातचीत के द्वारा सुलझाया जाना चाहिए, यानी युद्ध की धमकी को भारत उचित नहीं मानता। उन्होंने ईरान को भी लचीला और संयमी होने की सलाह दी। यानी उन्होंने भारत को किसी एक पक्ष से नत्थी नहीं होने दिया। उन्होंने खुले तौर पर ईरान से अनुरोध किया कि वह अंतरराष्ट्रीय परमाणु एजेंसी के कायदों का पूरी तरह पालन करे। दूसरे शब्दों में, हमारे विदेश मंत्री ने ईरानी मसले पर एक कूटनीतिक संपादकीय लिख दिया। ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर! लेकिन असली सवाल यह है कि क्या कोई संपादकीय कूटनीति कास्थानापन्न बन सकता है? कूटनीति की जगह कूटनीति ही आवश्यक है। यह दुखद है कि अपने पड़ोस के इतने संगीन घटनाचक्र के बारे में भारत अब तक निष्क्रिय रहा। प्रणव मुखजीर् ने मौन तो तोड़ा है, लेकिन यह काफी नहीं है। यह अच्छी शुरुआत है। यह शुभारंभ है। इसे इसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाया जाना चाहिए। भारत की यह भूमिका स्वाभाविक ही कहलाएगी कि वह अपने पड़ोस को परमाणु दुर्घटना का शिकार न बनने दे। यदि उसकी ओर से अमेरिका और ईरान, दोनों पर हठ छोड़ने का दबाव डाला जाए और उन दोनों में सीधी बातचीतका रास्ता खोला जाए, तो भारत का महत्व तो बढ़ेगा ही, एक भीषण दुर्घटना से भी संसार को निजात मिलेगी।
जहां तक गैस पाइप लाइन का सवाल है, इस यात्रा के दौरान वह हल नहीं हो सका है। ईरान अब भी पाकिस्तान के मुकाबले भारत से गैस की ज्यादा कीमत मांग रहा है, हालांकि उसने अपनी नई कीमत को थोड़ा घटाया है। वह भारत से २५ साल कापक्का करार करना चाहता है जबकि भारत इतनी लंबी अवधि का समझौता नहीं करना चाहता, क्योंकि इस बीच भारत में ही गैस के प्रचुर भंडार निकल सकते हैं। यहां ऐसा नहीं लगता कि ईरान लालच में फंसा हुआ है। वास्तव में वह इन समझौतों काइस्तेमाल हम पर कूटनीतिक दबाव डालने के लिए कर रहा है। इसीलिए उसने प्रस्ताव रखा है कि भारत, ईरान और पाकिस्तान के राष्ट्रपति तेहरान में मिलें और खुद समझौता करें। इसका आशय क्या है? क्या अमेरिकियों को यह बताना नहीं कि ये तीनों एकजुट हैं? यदि गैस की कीमत तरल गैस और पाइप लाइन पर समझौते हो भी जाएं तो उन्हें परवान चढ़ने में बरसों लगेंगे। 2500 किलोमीटर की 15 हजार करोड़ लागत वाली पाइप लाइन कोईएक-दो वर्ष में बनकर तैयार होने वाली नहीं है। इसके अलावा बलूच क्षेत्रों की अराजकता और ईरान पर संभावित अमेरिकी हमले की वजह से फिलहाल त्रिपक्षीय सहयोग की बातें कोरी कागजी कार्रवाई से ज्यादा नहीं हैं। जरूरी यह है कि भारत-ईरान सहयोग का वर्तमान ढांचा किसी तरह बना रहे, टूटे नहीं, दरके नहीं। इस सीमित मिशन में प्रणव मुखर्जी की यात्रा सफल रही है।
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