दैनिक हिंदुस्तान, 27 नवंबर 2010: लिस्बन में हुआ नाटो, रूस और अफगानिस्तान का शिखर सम्मेलन विश्व राजनीति पर अपना गहरा प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहेगा। यदि इस सम्मेलन में रूस और अफगानिस्तान भाग नहीं लेते तो भी यह महत्वपूर्ण होता, क्योंकि इसमें यूरोप के 27 देशों के अलावा अमेरिका की भी भागीदारी होती, लेकिन इन दो गैर-नाटो देशों ने भाग लेकर इस सम्मेलन को एक ऐतिहासिक घटना बना दिया।
शीतयुद्ध की समाप्ति की घोषणा अब से 19 साल पहले हो गई थी, लेकिन अमेरिका और रूसी खेमे में प्रतिद्वंद्विता अभी तक समाप्त नहीं हुई। बुश प्रशासन ने प्रक्षेप्रास्त्र प्रतिरक्षा (मिसाइल डिफेंस) के सिद्धांत से एक तरह से रूस को धमकी दे दी थी कि वह नाटो-राष्ट्रों पर एक प्रक्षेप्रास्त्र-कवच तान देगा ताकि रूस किसी तरह की दादागीरी न कर सके। ये प्रक्षेप्रास्त्र सबसे पहले पोलैंड और चेक गणराज्य में तैनात किए जाने थे, जो कि कभी सोवियत संघ के गठबंधन- वारसा पैक्ट के सदस्य थे।
अमेरिका ने सोवियत खेमे के देशों को भी नाटो में प्रवेश देना शुरू कर दिया था, जो कि मिखाइल गोर्बाच्योफ को दिए गए वचन को भंग करना था। इसी प्रकार इन पूर्व सोवियत-राष्ट्रों में नाटो सेनाएं तैनात करके अमेरिका ने अपने उस वायदे को भी तोड़ा था, जो उसने बोरिस येल्तसिन से किया था। अमेरिका ने उक्रेन में ‘श्वेत क्रांति’ को प्रोत्साहित किया और पुराने सोवियत गणराज्य जार्जिया के विरुद्ध जब रूस ने सैनिक कार्रवाई की तो अमेरिका और नाटो ने जबर्दस्त विरोध किया। पिछले दो दशक से चले आ रहे इस महाशक्ति-तनाव को घटाने में इस सम्मेलन का विशेष योगदान होगा।
लिस्बन में यह तय हुआ है कि नाटो और रूस एक दूसरे का विरोध करने के बजाय एक-दूसरे के साथ सहयोग करेंगे। यों ब्रूसेल्स, मास्को और रोम में पहले भी नाटो और रूस के बीच सद्भाव पैदा करने के लिए कुछ घोषणाएं हुई थीं और एक नाटो-रशिया कौंसिल का निर्माण भी हुआ था, लेकिन अब यह समझौता हुआ है कि दोनों मिलकर संपूर्ण यूरोप की प्रक्षेप्रास्त्र-सुरक्षा का जिम्मा लेंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि यूरोप पर हमले की स्थिति में नाटो और रूस मिलकर उसका मुकाबला करेंगे। दोनों पक्षों की भूमिकाएं क्या होंगी और वे अपनी भूमिका को अंजाम कैसे देंगे, इन मुद्दों पर फैसले बाद में होंगे।
इस सहमति का असर दुनिया के दूसरे क्षेत्रों में भी पड़ेगा। अफ्रीका, लेटिन अमेरिका और एशिया के कई देशों में इस समय उथल-पुथल मची हुई है। कुछ में अमेरिका की सीधी फंसावट है, जैसे अफगानिस्तान, इराक और ईरान में। कोरिया और किरगिजिस्तान में काफी तनाव है। फिलस्तीन का मामला सुलझते-सुलझते फिर उलझ गया है।
ऐसे सभी मुद्दों पर अगर अमेरिका और रूस के बीच खींचतान न हो तो इनका समाधान खोजना आसान हो सकता है। ओबामा ने इच्छा व्यक्त की है कि रूस अब नाटो का प्रतिस्पर्धी नहीं, ‘भागीदार’ बने, लेकिन रूस ने भागीदार या सदस्य बनने पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की है। रूसी राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव ने यह आश्वासन जरूर दिया है कि रूस ‘सामंजस्य’ बनाए रखने का पूरा प्रयत्न करेगा और वह बराबरी के स्तर पर होगा।
अमेरिका के मुकाबले आज का रूस हर तरह से कमजोर है, लेकिन इसके बावजूद वह अन्य नाटो देशों की तरह उसका अनुचर बनने को तैयार नहीं है। अब अमेरिका को जॉर्जिया और उक्रेन जैसे पूर्व-सोवियत राष्ट्रों में हस्तक्षेप करने की नीति को बदलना होगा। यह भी जरूरी है कि गत वर्ष प्राहा में संपन्न हुई सामरिक शस्त्रों की सीमा बांधने की संधि को अमेरिका वैधता प्रदान करे यानी अपनी सीनेट से उसकी पुष्टि करे। यह आसान नहीं है, क्योंकि सीनेट में ओबामा के डेमोक्रेट सदस्यों का दो-तिहाई बहुमत नहीं है।
रूस और अमेरिका के बीच आखिर पारस्परिक सहयोग का यह भाव उदित कैसे हुआ? इसके मूल में अफगानिस्तान दिखाई पड़ता है। जहां तक रूस का सवाल है, उसे अफगानिस्तान ने इतना कड़ा सबक सिखाया है कि वह उसे सदियों तक नहीं भूल सकता।
वह अफगानिस्तान को दूर से ही नमस्कार करता है, लेकिन इधर दो बातों ने उसे दोबारा परेशान कर दिया है। एक तो अफगान अफीम की तस्करी ने, जिसके कारण रूस के हजारों नौजवान नशेड़ी बनते जा रहे हैं और दूसरी जिहादी इस्लाम की लहरों ने, जो न केवल उसके पूर्व मध्य एशियाई मुस्लिम गणराज्यों में फैल रही है। जिसके कारण आतंकवाद मास्को के द्वार पर भी दस्तक देता है। रूस अपने इस सिरदर्दं का निवारण खुद नहीं कर सकता, लेकिन यदि वह अमेरिका के साथ हाथ मिला ले तो न सिर्फ उसका कष्ट-निवारण हो सकता है, बल्कि अमेरिका को भी अफगान-संकट का सामना करने में प्रचुर सहायता मिल सकती है।
अमेरिका की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि अफगानिस्तान में अपने हथियार, फौजी तथा अन्य सैन्य साज-सामान की सप्लाई निरंतर कैसे बनाए रखे? पाकिस्तान होकर जो रास्ता अभी जलालाबाद और काबुल जाता है, उस पर कभी तालिबान और कभी खुद पाकिस्तानी सरकार ऐसे अड़ंगे लगा देती है कि अमेरिका का दम फूलने लगता है।
इस अड़ंगे का लिस्बन-सम्मेलन ने पूरा इलाज कर दिया है। पहले जो तात्कालिक और अनौपचारिक व्यवहार था, उसे अब बाकायदा औपचारिक मान्यता मिल गई है। अब रूस नाटो को अपने रास्तों से अफगानिस्तान तक आने-जाने की सुविधा देगा। अफगानिस्तान के उत्तर में बने तरमेज तथा कुछ अन्य छोटे-मोटे स्थानों से नाटो का यातायात चलता रहेगा। यदि ईरान के साथ अमेरिका कुछ बात कर सके तो भारत द्वारा निर्मित जरंज-दिलाराम सड़क कहीं ज्यादा सुगम और फायदेमंद सिद्ध हो सकती है। फारस की खाड़ी से आया हुआ माल इस भारतीय सड़क के जरिए आसानी से हेरात, कंधार और काबुल तक पहुंच सकता है।
लिस्बन-समझौते ने मादक-द्रव्य विरोधी अभियान को भी औपचारिक रूप दे दिया है। अभी कुछ दिन पहले ‘इसाफ’ सेनाओं ने रूसी विशेषज्ञों की मदद से कंधार के पास मेरिजुआना की कुछ फैक्टरियों पर छापा मारा था। अब रूस इस काम में अफगान-सैनिकों को भी प्रशिक्षित करेगा। अफीम के पैसे की बड़ी भूमिका है। तालिबान, आतंकवादी और तस्कर इसी पर निर्भर हैं। इस पर काबू हुआ तो अफगानिस्तान में अमेरिकियों को सफल होने में काफी मदद मिलेगी।
नाटो के लिस्बन-वक्तव्य का मूल-पाठ देखने से यह मालूम पड़ता है कि वह अफगान-सेना को 2014 तक आत्मनिर्भर बनाना चाहता है, ताकि उसकी फौजें वापस आ सकें। ओबामा तो अपनी फौजें जुलाई 2010 से ही वापस बुलाना चाहते हैं। इस मामले में अभी ओबामा और नाटो की दृष्टि स्पष्ट नहीं है। वे चाहें तो भुक्तभोगी रूस से इस मामले में भी सही सलाह ले सकते हैं।
लेखक भारतीय विदेश संबंध परिषद के अध्यक्ष हैं
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