रा. सहारा, 29 जनवरी 2007 : रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की यह भारत-यात्र भारतीय विदेश नीति और विश्व राजनीति, दोनों को नई दिशा दे रही है| इस अजूबे का मूल कारण है, रूस में पैदा हुई अपूर्व समृद्घि और स्थायित्व| सोवियत संघ के भंग होते ही येल्तसिन का रूस अचानक बूढ़ा और बीमार हो गया था लेकिन पिछले सात वर्षों में पुतिन ने रूस को एक बार फिर उसी पायदान पर ला खड़ा किया है, जिस पर खड़े होकर वह कभी सारी दुनिया में खम ठोका करता था| क्यूबा से वियतनाम तक अगर कोई राष्ट्र अमेरिका से टक्कर लेने का दम भरता था तो वह सोवियत संघ ही था लेकिन गोर्बाच्योव और येल्तसिन का रूस दाने-दाने को मोहताज़ हो गया था| वह अमेरिका से टक्कर क्या लेता, वह खुद अमेरिका और नाटो की तरफ झुकने लगा था| उसकी दुर्दशा ने ही भारत जैसे गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों को भी मजबूर किया कि वे अमेरिका के साथ अपनी पींगें बढ़ाएं| हालांकि भारत, चीन और रूस के नेता जब भी आपस में मिलते तो वे बहुध्रुवीय विश्व का मंत्र्जाप जरूर करते लेकिन अंदर ही अंदर तीनों राष्ट्रों के नेता अमेरिका का कृपा-कटाक्ष पाने के लिए लालायित रहते| उनके बयानों पर कोई खास ध्यान नहीं देता था| गत वर्ष जून के शंघाई सम्मेलन और जुलाई के जी-8 सेंट पीटर्सबर्ग सम्मेलन में भी बहुध्रुवीय विश्व की पतंग उड़ाई गई लेकिन कोई ऐसा ठोस कदम नहीं उठाया गया कि जिससे अमेरिका की एकध्रुवीय दादागीरी के चेहरे पर कोई शिकन भी उभर आए|
लेकिन नई दिल्ली में जारी हुए संयुक्त बयान से वाशिंगटन की हड्डयिों में कंपकंपी दौड़ जाएगी| वह केवल दुनिया को बहुध्रुवीय बनाने की सैद्घांतिक बात ही नहीं कहता है, उसमें अमेरिकी नीतियों से दो-टूक असहमतियां भी व्यक्त की गई हैं| हर उस मुद्दे को छुआ गया है, जो अमेरिकी विदेश नीति का मर्म है| क्या ईरान, क्या एराक़, क्या अफगानिस्तान, क्या फलस्तीन, क्या परमाणु-मुद्दा–कुछ नहीं छूटा है| यह ठीक है कि भारत और रूस ने अमेरिका पर सीधा प्रहार नहीं किया है| उन्होंने कूटनीतिक लिहाज़ कायम रखा है लेकिन विश्व-राजनीति के ज्वलंत प्रश्नों पर अपनी सहमति जाहिर करके अमेरिका को बता दिया है कि उसकी नीतियां कितनी अवांछित, अप्रासंगिक और अयथार्थवादी हैं|
ईरान के मसले पर भारत अमेरिका से दब रहा था| उसने वियना के परमाणु अभिकरण में ईरान के विरुद्घ वोट दे दिया था| ईरान का मित्र् और पड़ौसी होने के बावजूद भारत हाथ पर हाथ धरे बैठा हुआ था| भारतीय विदेश नीति जड़ होती जा रही थी| भारत-रूस संयुक्त बयान ने इस जड़ता को तोड़ा है| दोनों राष्ट्रों ने ईरानी मसले को बातचीत से (दादागीरी से नहीं) हल करने की वकालत की है और इस दृष्टि से विदेश मंत्र्ी प्रणव मुखर्जी की मार्च में होनेवाली ईरान-यात्र का उल्लेख भी किया गया है| अब अमेरिका अकेला पात्र् नहीं रह गया है| ईरान के मसले में रूस और भारत ने भी अपनी चोंच घुसा दी है| इसी प्रकार एराक़ के मसले पर भारत और रूस ने पहले तो अमेरिकी फौजी कब्जे का विरोध किया था लेकिन अपने-अपने स्वार्थों के कारण उनकी आवाज ढीली पड़ गई थी| अब दोनों ने एराक़ के बिगड़ते हुए हालात पर चिंता व्यक्त की है| यद्यपि उन्होंने अमेरिकी वापसी की मांग नहीं की है लेकिन यह तो कह ही दिया है कि एराक़ी गुत्थी को अन्तरराष्ट्रीय समुदाय के सामूहिक प्रयत्न से ही सुलझाया जा सकता है| एराक़ के शिया और सुन्नियों के झगड़े को सुलझाए बिना वहां शांति नहीं हो सकती, ऐसा कहने का अर्थ यही है कि अमेरिका की एराक़-नीति विफल हो गई है|
दोनों राष्ट्रों ने अमेरिका की अरब-इस्राइल नीति पर भी प्रश्न-चिन्ह लगाए हैं| दोनों राष्ट्रों ने अन्तरराष्ट्रीय कानून की अवहेलना को गलत बताया है और फलस्तीन के स्थायी हल की अपील की है| दोनों राष्ट्रों ने फलस्तीन के साथ लेबनान और सीरिया का भी जि़क्र किया है| इन दोनों राष्ट्रों की ज़मीन पर भी इस्राइल का कब्जा है| भारत-रूस ने संयुक्तराष्ट्र के प्रस्तावों के साथ-साथ मेडि्रड सिद्घांतों और 2002 की बेरुत पहल को भी समग्र समाधान का आधार बनाने की बात कही है| अमेरिका इन आधारों की वास्तव में उपेक्षा करता रहा है और इस्राइल की पीठ ठोकता रहा है| भारत और रूस ने मिलकर इस मुद्दे पर शीतयुद्व की भाषा तो नहीं बोली लेकिन उनकी भाषा वैसी ही है, जैसी कि कभी गुट-निरपेक्ष आंदोलन की हुआ करती थी|
इसी प्रकार अफगानिस्तान के सवाल पर भारत और रूस ने अपने समान रवैए को जग-जाहिर किया| इस समय अफगानिस्तान को अराजकता से बाहर निकालने की जिम्मेदारी अमेरिका ने अपने कंधों पर ले रखी है लेकिन अफगानिस्तान दिनोंदिन निराशा के गर्त में गिरता चला जा रहा है| इस दुर्दशा को दोनों राष्ट्रों ने रेखांकित किया है| दोनों राष्ट्रों ने अफगानिस्तान की सहायता बढ़ाने का संकल्प किया है| पिछले हफ्ते ही भारत ने अफगानिस्तान को 10 करोड़ डॉलर की नई सहायता देकर कुल राशि 75 करोड़ तक पहुंचा दी है जबकि अमेरिकी सहायता की लंबी-चौड़ी घोषणाओं के बावजूद अफगानिस्तान को ठोस मदद बहुत कम मिल रही है| हामिद करज़ई सरकार की दाल पतली होती चली जा रही है| पठानों के बीच अमेरिका की लोकपि्रयता तेजी से घट रही है| वे करज़ई को अमेरिका की कठपुतली कहने लगे हैं| भारत और रूस ने अपने संयुक्त बयान में अफगानिस्तान की ”स्वतंत्र्ता” और उसके ”लोकतंत्र्” पर काफी जोर दिया है| अर्थात्र उसके आंतरिक मामलों में अमेरिका और खास तौर से पाकिस्तानी हस्तक्षेप को अनुचित बताया है| अफगानिस्तान को मिल रही भारत की ठोस और सार्थक सहायता को पाकिस्तान टेढ़ी नजर से देखता है| रूस को यह नज़रिया पसंद नहीं है| इसीलिए येल्तसिन के रूस की तरह पुतिन का रूस पाकिस्तान को अनावश्यक महत्व नहीं दे रहा है| जैसे रूस ने अपने पूर्व-प्रांतों–जार्जिया और बेलो-रूस आदि में बढ़ते हुए अमेरिकी-प्रभाव पर सफलतापूर्वक बे्रक लगा दिया, वैसे ही अब वह नहीं चाहता कि उसके सुदूर दक्षिण याने ईरान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान आदि देश अमेरिका के उपग्रह बन जाएं|
रूस की यह महत्वाकांक्षा भारत के सहयोग के बिना पूरी नहीं हो सकती| इस समय रूस गैस का सबसे बड़ा और तेल का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है| पिछले सात साल में उसकी प्रति व्यक्ति आय कई गुना बढ़ गई है| उसका विदेशी मुद्रा-कोश 12 अरब से कूदकर 315 अरब डॉलर हो गया है| मास्को में डॉलर की नदियां बह रही हैं| पुतिन ने विश्वास व्यक्त किया है कि ढाई अरब डॉलर का भारत-रूस व्यापार तेज़ी से आगे बढ़ना चाहिए| भारतीय व्यापारियों के लिए वीज़ा की दिक्कतें दूर करने का आश्वासन भी उन्होंने दिया है| दोनों राष्ट्रों की सामरिक भागीदारी के तहत ब्राह्मोज सुपरसोनिक क्रूज़ मिसाइल तैयार हो ही रहे हैं लेकिन इस यात्र के दौरान पुतिन ने जो चमत्कारी काम किया है, वह है, भारत को चार नए परमाणु-संयंत्र् देने, परमाणु-इंर्धन देने और अन्य क्षेत्रें में परमाणु-सहयोग देने का समझौता ! उन्होंने आश्वस्त किया है कि वे 45 राष्ट्रों के परमाणु सप्लायर्स गु्रप से भी आग्रह करेंगे कि वह भारत के लिए अपने नियमों को ढीला करे और उसे भी अन्य जिम्मेदार परमाणु-राष्ट्रों की तरह माने| दूसरे शब्दों में भारत के साथ रूसी परमाणु समझौता जैसे ही लागू होगा, ये कानून-क़ायदे अपने आप ताक़ पर चले जाएंगे| यह स्थिति अमेरिका के लिए असह्य होगी| अमेरिका जिस सुविधा को दिलाने के लिए भारत पर अहसानों का हिमालय खड़ा कर रहा था, वह सुविधा रूस ने पलक झपकते ही प्रदान कर दी| भारत चाहे तो अब परमाणु मामलों में अमेरिका के साथ निर्भयतापूर्वक बात कर सकता है| वास्तव में भारतीय विदेश नीति के लिए पुतिन की यात्र वरदान सिद्घ हो सकती है| उसने अमेरिका के नहले पर दहला तो मार ही दिया है, भारत की नीतिगत स्वाधीनता में चार चांद लगा दिए हैं|
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