राष्ट्रीय सहारा, 19 जनवरी 2007 : राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के अध्यक्ष सेम पित्रेदा के भोलेपन पर तरस आने के अलावा क्या आ सकता है ? उन्होंने प्रधानमंत्री को सिफारिश भेज दी है कि भारत के सभी बच्चों को पहली कक्षा से अंगे्रजी पढ़ाओ और अनिवार्य रूप से पढ़ाओ| पित्रेदा का आशय पवित्र् है| इरादा गलत नहीं है| वे कहते हैं कि देश में एक प्रतिशत लोग भी ऐसे नहीं हैं, जो अंगे्रजी को दूसरी भाषा की तरह इस्तेमाल करते हों| ऐसे में देश आगे कैसे बढ़ेगा ? इस देश में अंगे्रजी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता| जो सुविधा एक प्रतिशत को हासिल है, वह सौ प्रतिशत को हासिल क्यों नहीं हो ? इस दृष्टि से पित्रेदा का आशय ठीक है लेकिन सिर्फ आशय का ठीक होना अपने आप में काफी नहीं है| आशय के साथ आपके तथ्य, तर्क और निष्कर्ष भी ठीक होने चाहिए| यदि वे ठीक नहीं होंगे तो आपका कथन वैसे ही हास्यास्पद हो जाएगा, जैसे कि फ्रांसीसी राजकुमारी का हो गया था| फ्रांसीसी क्रांति के समय वर्साय के महल पर जमा क्रोधित भीड़ ने राजकुमारी से कहा कि जनता भूखी है| उसके पास खाने को ब्रेड (रोटी) नहीं है| वह क्या करे ? राजकुमारी ने कहा कि ”बे्रड नहीं है तो क्या हुआ ? जनता से कहो कि वह केक खाए|” भोली राजकुमारी को क्या पता कि जो जनता रोटियों को मोहताज़ है, वह केक कहां से लाएगी ? पित्रेदा का भोलापन इसी स्तर का है| राजकुमारी के मुहावरे को अगर हिन्दी में कहें तो वह यों बनेगा, ”अगर रोटी नहीं हैं तो रबड़ी खाओ|”
इस देश की जनता को पहले साक्षर बनाना जरूरी है या अंगे्रजी सिखाना ? उसे रोटी खिलाना जरूरी है या रबड़ी खिलाना ? सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अब भी देश में 40 करोड़ लोग बिल्कुल निरक्षर हैं| जिन साठ करोड़ लोगों को साक्षर कहा जा रहा है, वे केवल अपना नाम लिखना जानते हैं| मान लें कि यह साठ करोड़ का आंकड़ा सही है तो भी प्रश्न यह उठता है कि क्या इन साठ करोड़ लोगों को पढ़ना-लिखना आता है ? क्या ये अखबार और किताबें पढ़ सकते हैं ? ऐसे लोग 20 करोड़ भी नहीं हैं| जिस देश की 80 प्रतिशत आबादी वास्तव में निरक्षर या अशिक्षित है, उसे शिक्षित करने के बारे में हमारे ज्ञान-आयोग को कोई चिन्ता नहीं है लेकिन वह हर भारतीय पर अंगे्रजी लादने के लिए कटिबद्घ है| यदि कोई विदेशी भाषा इतनी आसानी से लादी जा सकती हो तो पिछले 200 वर्षों में वह भारत की जनता पर इतनी कम क्यों लद पाई ? खुद पित्रेदा का कहना है कि भारत के एक प्रतिशत लोग भी अंगे्रजी को अपनी दूसरी भाषा नहीं बना पाए हैं याने एक करोड़ लोग भी ठीक से अंगे्रजी नहीं जानते| जिन्होंने अंगे्रजी को अपनी दूसरी भाषा बना लिया है, उनसे कोई पूछे कि तुम्हारी पहली भाषा कौनसी है तो वे बगलें झांकने लगेंगे| सच्चाई तो यह है कि दूसरी भाषा के चक्कर में उनकी पहली भाषा का भी नास पिट गया है| स्वयं सेम पित्रेदा इसके जीते-जागते उदाहरण हैं| अंगे्रजी के चक्कर में वे अपनी मातृभाषा गुजराती में प्रवीण नहीं रहे और पूर्वजों की उडि़या भाषा तो बिल्कुल भूल ही गए| उनका नाम भी खोया गया| सत्येंद्र गंगाराम की बजाय लोग उन्हें सेम कहते हैं| सेम को दूसरी भाषा बहुत पि्रय है, लेकिन उसमें वे कितने प्रवीण हैं, वे स्वयं ही जानें| वे सारे भारत को भाषासंकर बनाने पर क्यों तुले हुए हैं? यदि सेम की बात मान ली जाए तो हमारी आगे आनेवाली पीढि़यों की भाषा न पहली होगी न दूसरी होगी| वह अद्धी होगी| आधी और लंगड़ी| वास्तव में विदेशी भाषा सिर्फ गुलाम देशों में ही पहली भाषा बन पाती है, वह भी सिर्फ एक-दो प्रतिशत लोगों की| सरकारी बाबुओं, नौकर-चाकरों, खानसामों और चौकीदारों की ! आजाद भारत में किसी विदेशी भाषा को पहली या दूसरी भाषा बनाने का सपना शुद्घ गुलामी का सपना है| विदेशी भाषा अगर तीसरी भाषा बने तो कोई बुराई नहीं है| पहले मातृभाषा, फिर राष्ट्रभाषा और सबके बाद विदेशी भाषा !
विदेशी भाषा को पहली भाषा या दूसरी भाषा बनाने का नतीजा क्या होता है, यह शायद ज्ञान आयोग के अध्यक्ष को पता नहीं है| इस देश में लगभग 11 करोड़ छात्र् हर साल प्राथमिक शालाओं में भर्ती होते हैं लेकिन बी.ए. तक पहुंचते-पहुंचते 10 करोड़ 70 लाख छात्र् भाग खड़े होते हैं| सिर्फ 30 लाख छात्र् रह जाते हैं याने मुश्किल से सिर्फ 3 प्रतिशत छात्र् शिक्षा की मुख्यधारा में टिके रहते हैं| 97 प्रतिशत छात्र् क्यों भाग खड़े होते हैं| ऐसा क्यों होता है ? इसके कई छोटे-मोटे कारण हैं लेकिन सबसे बड़ा कारण अंगे्रजी है| हर कक्षा में सबसे ज्यादा छात्र् अंगे्रजी में ही फेल होते हैं| जो पास होते हैं, उनके सबसे कम नम्बर अंगे्रजी में ही आते हैं| अंगे्रजी की रटाई-घुटाई के कारण छात्र् अन्य विषयों की उपेक्षा करते हैं| अंगे्रजी के कारण उन्हें पाठशाला और घर में भी प्रताड़ना मिलती है| उनका आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास घटता है| बच्चों का बचपन नष्ट होता है| वे शिक्षा के दुश्मन बन जाते हैं| शिक्षा फैलने की बजाय सिकुड़ने लगती है| अंगे्रजी ज्ञान को नहीं, अज्ञान को फैलाने का उपकरण बन जाती है| ऐसी अंगे्रजी को यदि सब बच्चों पर लादने का आग्रह हमारा ज्ञान आयोग करेगा तो उसका नाम बदलकर हमें अज्ञान आयोग रखना पड़ेगा|
जिस देश में मातृभाषा पढ़ाने की न्यूनतम व्यवस्था नहीं है, वहां विदेशी भाषा पढ़ाने का आग्रह फ्रांसीसी राजकुमारी के भोलेपन को मात देता है| सबसे पहले तो यह पूछा जाना चाहिए कि 15-20 करोड़ बच्चों को अंगे्रजी पढ़ाने के लिए आप अध्यापक कहां से लाएंगे ? पित्रेदा अमेरिका में रहे हैं| उन्हें शायद यह पता नहीं है कि ‘इंग्लिश लिटरेचर’ में एम.ए. करनेवाले छात्र् भी न तो शुद्घ अंगे्रजी बोल सकते हैं न लिख सकते हैं| भारत में जो अंगे्रजी पढ़ाई जाती है, वह थोक में पढ़ाई जाती है| उसे विदेशी भाषा मानकर उसका विशेष प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है| उसे मालिकों की भाषा मानकर गुलामों पर थोपा जाता है| उसे बच्चों को रटाया जाता है, उनके दिमाग में ठूंसा जाता है, उनके साथ बौद्घिक बलात्कार किया जाता है| हिरण पर घास लादी जाती है| इस शैक्षिक अत्याचार की चक्की में से जो बचकर साबुत निकल आते हैं, वे भी जीवन में कौनसा तीर मार लेते हैं ? वे आगे जाकर सरकारी नौकरियां पा जाते हैं| वह भी इसलिए कि नौकरी की भर्ती-परीक्षाओं में अंगे्रजी अनिवार्य होती है| यदि नौकरियों से अंगे्रजी हटा दी जाए तो अंगे्रजी का तो भट्टा ही बैठ जाएगा| उसका कबाड़ा हो जाएगा| लोग इतने मूर्ख नहीं हैं कि वे अपने बच्चों को अंगे्रजी माध्यम के स्कूलों में भेजेंगे| क्यों भेजेंगे ? अपनी जेब भी कटाएं और अपने मासूम बच्चों को शैक्षिक कसाईखानों के हवाले भी करें ? क्यों करेंगे ?
हां, जिन्हें विदेश जाना है, विदेशी तकनीक सीखना है, विदेशी साहित्य, दर्शन या विज्ञान पढ़ना है, वे हर क़ीमत पर विदेशी भाषा सीखेंगे| जरूर सीखें लेकिन अच्छी सीखें| कम समय में ज्यादा सीखें| अभी उल्टा होता है| सारी दुनिया में विदेशी भाषा-शिक्षण का साल-छह माह का पाठ्रय-क्रम काफी होता है लेकिन हमारे यहां अकेली अंग्रेजी 16 साल तक लदी रहती है| अकेली अंग्रेजी, अन्य विदेशी भाषाएं नहीं ! हमारे देश में चीनी, रूसी, हिस्पानी, जापानी, अरबी, फ्रांसीसी आदि महान भाषाओं की घोर उपेक्षा होती है| यदि हमारे देश में इन भाषाओं को जाननेवाले लाखों नहीं, सिर्फ कुछ हजार लोग भी होते तो भारत का विदेश-व्यापार कई गुना बढ़ जाता| इस समय विश्व-व्यापार में भारत का हिस्सा एक प्रतिशत भी नहीं है| इस वर्ष चीन के साथ भारत का व्यापार सबसे ज्यादा हो गया है| अमेरिका पिछड़ गया है| यदि भारत के लाखों नौजवान चीनी, रूसी, हिस्पानी और यूरोपीय भाषा सीख लें तो उन्हें इन देशों में अच्छी नौकरियां भी मिल सकती हैं| हर बच्चे पर अंग्रेजी थोपने की बजाय जिन्हें जरूरत है, उन्हें सिर्फ अंगे्रजी नहीं, अन्य विदेशी भाषाएं भी स्वेच्छया सीखने की सुविधा दी जाए| कुछ लाख छात्रें को विदेशी भाषाएं सिखाने की बजाय 15-20 करोड़ छात्रें पर सिर्फ अंगे्रजी थोपना ऐसा ही है, जैसे किसी घर की नई बहू परिवार के चार सदस्यों के लिए उचित मात्र में भोजन बनाने की बजाय रोज़ एक मन खिचड़ी रांध कर पटक दे| पता नहीं, हमारा ज्ञान आयोग इस मूर्ख बहू की भूमिका क्यों निभाना चाहता है ?
जहां तक विदेशों में नौकरियां पाने का सवाल है, यह ठीक है कि यदि हमारे नौजवान अंगे्रजी नहीं जानते तो उन्हें अमेरिका-जैसे देशों में नौकरियां नहीं मिलतीं लेकिन ऐसे अंगे्रजीभाषी देश दुनिया में कुल कितने हैं? कुल साढ़े चार हैं| अमेरिका, बि्रटेन, आस्टे्रलिया, न्यूजीलैंड और आधा केनाडा| अंंग्रेज के पुराने गुलाम देशों की संख्या लगभग 50 है| लेकिन वे गरीब हैं और प्राय: अपनी भाषाओं में काम करते हैं| वहां अंगे्रजीदां भारतीयों के लिए नौकरियां हैं लेकिन बहुत कम ! यदि अंगे्रजीभाषी देशों में 25-30 लाख लोगों को नौकरी मिली हुई हैं तो हम यह न भूलें कि 30 लाख से भी ज्यादा भारतीयों को सिर्फ खाड़ी देशों में नौकरियां और काम-धंधे मिले हुए हैं| कई लाख भारतीय अन्य देशों में भी काम करते हैं| अंगे्रजी के ज़रिए नौकरी पानेवाले कौन हैं ? डॉक्टर, इन्जीनियर, अफसर, प्रोफेसर, अध्यापक वगैरह ! इन लोगों को तैयार करने पर देश के अरबों रु. खर्च होते हैं और तैयार होते ही ये लोग अमेरिका और बि्रटेन की सेवा में जुट जाते हैं| अब बताइए कि अनिवार्य अंगे्रजी की पढ़ाई से किसका भला हो रहा है ? जबकि अन्य देशों में जानेवाले लोग मजदूर, बढ़ई, मेकेनिक, दर्जी, ड्राइवर, चौकीदार, सफाई कर्मचारी आदि लोग होते हैं| ये अपनी मेहनत की कमाई से अपने परिवारों को भारत में पालते हैं| यदि इन्हीं लोगों को सचमुच साक्षर या शिक्षित कर दिया जाता तो देश का कहीं अधिक कल्याण होता| लेकिन यह कल्याण कैसे हो ? हम तो रोटी को मोहताज़ लोगों को रबड़ी खिलाने पर आमादा हैं|
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