नवभारत टाइम्स, 19 अप्रैल 2004: अपनी सम्पत्ति की घोषणा कौन करना चाहता है? एक भिखारी भी नहीं| भिखारी को भी यह पसंद नहीं कि लोग जानें कि उसकी गुदड़ी में कितने नोट छिपे हुए हैं| अगर ऐसा है तो फिर नेतागण अपनी सम्पत्ति का ब्यौरा क्यों पेश करने लगे? उन्हें करना पड़ रहा है, क्योंकि उन्हें चुनाव लड़ना है| हर उम्मीदवार के लिए यह आवश्यक हो गया है कि अपना नामांकन दाखिल करते समय वह शपथ-पत्र पर अपनी चल-अचल सम्पत्ति का ब्यौरा भी दर्ज करवाए| यह भारतीय राजनीति की विलक्षण घटना है| यह अकेला काम ऐसा है, जो भारतीय राजनीति के चरित्र में अमूल-चूल परिवर्तन कर सकता है, बशर्ते कि लोग इस पर उचित ध्यान दें|
नेताओं की सम्पत्ति के मामले को अगर लोग नेताओं के भरोसे छोड़ देंगे तो उन्हें कुछ भी हाथ लगना मुश्किल है| नेता तो सब एक-जैसे ही हैं| क्या किसी एक भी नेता ने यह कहा कि वह अपनी निजी सम्पत्ति को सर्वथा निजी मानता है और किसी भी कीमत पर उसकी सार्वजनिक घोषणा नहीं करेगा? नहीं, नहीं, हर नेता घोषणा के लिए तैयार है| घोषणा करने में उसका क्या बिगड़ रहा है? चुनाव के पहले उस घोषणा को अदालत या चुनाव आयोग में चुनौती नहीं दी जा सकती और चुनाव के बाद अगर चुनौती दी गई तो कौन देगा? ज्यादा संभावना यही है कि हारनेवाले उम्मीदवार देंगे| वे आयोग और अदालत को बताऍंगे कि फलॉं-फलॉं उम्मीदवार का ब्यौरा गलत है| उसने इतनी सम्पत्तियॉं छिपा ली हैं, इतनी बेनामी हैं और इतनी की क़ीमत कम ऑंकी है| इस तरह के आरोप उन लोगों पर भी लगा दिए जाऍंगे, जो दूसरों पर ऐसे आरोप लगाऍंगे| आपसी आरोपों की इस धुंध में किसी का भी असली चेहरा देख पाना असंभव होगा| खुद चुनाव आयोग और अदालतें चक्कर में पड़ जाऍंगी| जब तक फैसले आऍंगे, लोकसभा की अवधि ही खत्म हो जाएगी| इसीलिए नेतागण अपनी सम्पत्तियों की घोषणा बेधड़क करते चले जा रहे हैं|
लेकिन इन्हीं घोषणाओं को यदि जनता अपने सामान्य-ज्ञान के तराजू पर तौलना शुरू कर दे तो भारतीय राजनीति के शुद्घिकरण के युग का सूत्रपात हो सकता है| किसी भी उम्मीदवार को उसके मतदाता जितनी अच्छी तरह जानते हैं, शायद ही कोई अदालत जान सकती है| मतदाता सबसे पहले यह चेक करें कि उम्मीदवार ने जो ब्यौरा दिया है, वह सच्चा है कि झूठा है? यदि झूठा है तो उसके विरुद्घ शेष उम्मीदवारों को सतर्क करें, अखबारों और टी.वी. चैनलों को खबर दें और झूठे शपथ-पत्र भरनेवाले उम्मीदवारों के साथ सीधी मुठभेड़ करें| यदि इस चुनाव के दौरान सारे देश में यह अभियान चल पड़े तो यह निश्चित है कि देश के आधे से ज्यादा नेतागण भाग खड़े होंगे| वे चुनाव लड़ने का कभी नाम भी नहीं लेंगे| जो नेता आजकल बढ़-बढ़कर अपनी सम्पत्तियों का ब्यौरा दे रहे हैं, अगर उनसे पूछा जाए कि आप इनका स्रोत बताइए तो उनकी घिग्घी बॅंध जाएगी| जिन लोगों ने कभी कोई नौकरी नहीं की, व्यवसाय नहीं किया, खेती नहीं की, वे भी करोड़ों की सम्पत्ति दिखा रहे हैं| बेशर्मी की भी कोई हद होती है या नहीं? अभी तक जितने उम्मीदवारों के ब्यौरे छपे हैं, उनमें से ज्यादातर करोड़पति हैं| लखपति से नीचे तो एक भी नहीं दिखा| भारत की जनता कितनी भाग्यशाली है कि उसके सारे प्रतिनिधि लखपति और करोड़पति होंगे| देश के करोड़ों कौड़ीपतियों के लिए यह कितना बड़ा सहारा है? कितनी बढि़या संसद हम खड़ी कर रहे हैं कि उसमें गरीब आदमी घुस ही नहीं सकता| हमारी लोकसभा लखपति सभा बनती जा रही है|
मूल प्रश्न यह है कि क्या नेतागण विधानसभा या संसद से मिलनेवाली अपनी तनखा में से पैसे बचाकर करोड़पति बने हैं? यदि हॉं तो उनसे कोई पूछे कि पिछले पचास साल से वे ये रोना क्यों रोते रहते हैं कि हमारे वेतन और भत्तों से गुजारा नहीं चलता? नहीं चलता, याने सब पैसे खर्च हो जाते हैं| पैसे कम पड़ते हैं| अर्थात्र आमदनी कम और खर्च ज्यादा ! तो फिर सम्पत्तियॉं कैसे बनीं? यदि इस प्रश्न का उत्तर सार्वजनिक हो जाए तो भारत की राजनीति से भ्रष्टाचार को घटाना आसान हो जाएगा|
उम्मीदवारों से ज्यादा जौहर उनकी पत्नियॉं दिखा रही हैं| पत्नियों की सम्पत्तियॉं कहीं दस गुना ज्यादा हैं तो कहीं सौ गुना ! इस भ्रष्टाचार के लिए भी क्या प्रमाण की आवश्यकता है? साधारण नागरिकों और व्यवसायियों की पत्नियों के पास इतनी सम्पत्तियॉं क्यों नहीं होती? नेताओं की पत्नियॉं ऐसा कौनसा रहस्यमय व्यवसाय करती हैं कि उनके पास बिना कुछ किए ही करोड़ों-अरबों की सम्पत्तियॉं इकट्ठी हो जाती हैं? अच्छा हुआ कि नेताओं के पुत्रों-पुत्र्िायों और पुत्रवधुओं और दामादों की सम्पत्ति शपथ-पत्र के दायरे में नहीं आती, वरना उसका हिसाब करते-करते हमारे मतदाता पागल हो जाते| यों भी चुनाव-क्षेत्र के मतदाताओं से ज्यादा कुछ छिपा नहीं रहता लेकिन वे क्या कर पाते हैं? सिर्फ चर्चा भर करके रह जाते हैं| जरूरी यह है कि अवैध स्रोतों से कमाई गई सम्पत्तियों को जब्त करवाया जाए और नेताओं, उनके रिश्तेदारों और नौकरों के घरों पर भी बाक़ायदा छापे डलवाए जाऍं| लोकतंत्र का यह कितना बड़ा मज़ाक है कि दिन-रात काम करनेवाले और हजारों-लाखों लोगों को रोजगार देनेवाले उद्योगपतियों के यहॉं तो छापे पड़ते हैं और भारत राष्ट्र-राज्य में सेंध लगानेवाले भ्रष्ट नेताओं की तरफ कोई उॅंगली भी नहीं उठा सकता| क्या वजह है कि स्वतंत्र भारत में एक भी नेता ने कभी इसलिए जेल की हवा नहीं खाई कि वह अवैध सम्पत्ति का मालिक है? भारतीय राजनीति सार्वजनिक लूट-पाट का शक्तिशाली लायसेंस बन गई है| प्रत्येक राजनेता का एक ही मूलमंत्र बन गया है – राजनीति से पैसा कमाओ और पैसे से राजनीति चलाओ|
इस मूलमंत्र ने सारे नेताओं और सारे दलों के नक़ाब उतार दिए हैं| अब सबके चेहरे एक-जैसे हो गए हैं| विचारधारा के नक़ाब, जनसेवा के नक़ाब, देशभक्ति के नक़ाब, निष्ठा के नक़ाब, सारे नक़ाब उतर चुके हैं| इसीलिए राजनीतिक दलों के बड़े से बड़े नेता और यहॉं तक कि उनके अध्यक्षों के इस दावे को भी कोई स्वीकार नहीं करता कि जो पैसे वे लेते हैं, पार्टी के लिए लेते हैं या चुनाव के लिए लेते हैं| पार्टी और चुनाव तो बहाना भर हैं| बस, उम्मीदवार बनना भर काफी है| चारों तरफ से पैसा बरसता है| जीतें तो पॉच साल पौ-बारह और हारें तो पॉॅंच साल के पूरे खर्चे का इंतजाम ! इसीलिए जब विधायक और सांसद अपना वेतन बढ़ाने की मॉंग करते हैं तो लोग हॅंसते हैं| वे सोचते हैं कि जितना वेतन नेतागण महीने भर में पाते हैं, उतना तो वे रोज खर्च करते हैं| मज़ा यह है कि वे अपना वैध वेतन भी बढ़ाते जाते हैं और अवैध खर्चे भी ! वे कभी कानून की गिरफ्त में नहीं आते, क्योंकि यह मुद्दा ही ऐसा है कि इस पर सभी हंस कौए हो जाते हैं और सभी कौए हंस ! सभी नेता एक-दूसरे की रक्षा करते हैं| यह प्रवृत्ति भारतीय राजनीति की अभेद्य दीवार है| अगर इसकी एक ईंट भी गिर जाए तो शेष दीवार की कौनसी ईंट बच पाएगी?
आज़ादी के बाद यह दीवार मोटी से मोटी होती क्यों चली जा रही है? इसीलिए कि जैसी जनता, वैसे नेता ! यदि समाज भ्रष्ट है तो राजनीति स्वच्छ कैसे होगी? नेताओं को रिश्वत कौन खिलाता है और क्यों खिलाता है? क्या रिश्वत लेनेवाले के मुकाबले देनेवाला कम अपराधी है? देनेवाले का अपराध कहीं ज्यादा है लेकिन जब देनेवाले का अंत:करण सोया हुआ है और वह भी पकड़ा नहीं जाता तो लेनेवाले पर कौन उंगली उठा सकता है? सारे कुए में ही भॉंग पड़ी हुई है|
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