Dainik Bhaskar, 06 April 2011 : भ्रष्टाचार ने माहौल को इतना गर्म कर दिया है कि इस समय लोकपाल के मुद्दे की प्रतिध्वनि सारे देश में सुनाई पड़ रही है। लोकपाल का अर्थ है, ऐसे पद की स्थापना जो राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सर्वोच्च न्यायाधीश से लेकर छोटे से छोटे सरकारी कर्मचारी के भ्रष्टाचार को पकड़े और उसे सजा दिलवाए। यह बड़ी टेढ़ी खीर है। इस खीर को संसद के कढ़ाव में चढ़े 42 साल बीत गए, लेकिन यह अब भी पकी नहीं है। यह जल्दी पक जाए, इसलिए अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल जैसे लोगों ने इस कढ़ाव के नीचे अलाव लगा दिया है।
किसी कानून को पास करवाने के लिए आमरण अनशन जैसे ब्रहास्त्र का इस्तेमाल करना चाहिए या नहीं, यह विवाद का विषय हो सकता है और इस मुद्दे पर तो और भी ज्यादा विवाद हो सकता है कि कौन-सा लोकपाल विधेयक पास करने लायक है? सरकार द्वारा प्रस्तावित या आंदोलनकारियों द्वारा प्रस्तावित या इन दोनों से अलग कोई तीसरा भी? लेकिन इस पर क्या विवाद हो सकता है कि लोकपाल कानून शीघ्रतिशीघ्र बनना चाहिए और उस पर अविलंब अमल होना चाहिए। 1967 से लेकर अब तक बनी लगभग सभी संसदों में इस बिल को गाजर की तरह लटकाया गया, लेकिन यह अब भी दूर का ढोल बना हुआ है। 1965 में बने प्रशासनिक सुधार आयोग के अध्यक्ष मोरारजी देसाई ने प्रशासनिक भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के लिए ‘ओम्बड्समेन’ नामक पद के निर्माण का सुझाव दिया था। स्वीडन में ‘ओम्बड्समेन’ नामक संस्था 1809 से कार्य कर रही है। यह संस्था आजकल लगभग 60 देशों में सक्रिय है। इसके नाम और अधिकार अलग-अलग हैं, लेकिन लगभग हर देश यह मानता है कि जहां शक्ति होगी, वहीं भ्रष्टाचार होगा। राज्य का काम निगरानी रखना है लेकिन राज्य पर निगरानी रखना भी तो किसी का काम होना चाहिए। भारत में यह काम केंद्रीय सतर्कता आयोग को सौंपा गया है, लेकिन आयुक्त पीजे थॉमस की नियुक्ति को लेकर सरकार की जो थू-थू हुई है, उसने लोकपाल व लोकायुक्त की नियुक्ति को एक ज्वलंत प्रश्न बना दिया है।
सरकार का प्रस्तावित विधेयक और आंदोलनकारियों का प्रस्तावित विधेयक आमने-सामने है। आंदोलनकारियों का विधेयक निश्चय ही बेहतर है। सरकारी विधेयक मूलत: सरकारी विधिवेत्ताओं और अफसरों ने तैयार किया है, जबकि जनलोकपाल विधेयक की तैयारी में देश के जाने-माने विधिवेत्ताओं, समाजसेवियों, जननेताओं, सेवानिवृत्त अफसरों और न्यायाधीशों ने दिमाग खपाया है। यदि सरकारी भ्रष्टाचार को खत्म करने का विधेयक खुद सरकार बनाएगी तो वह खुद पर कितनी सख्ती करेगी? अपनी खाल बचाने के लिए वह हजार रास्ते निकाल लेगी। पिछले 42 साल तो उसने यूं ही काट दिए और अब जो विधेयक वह ला रही है, वह भी काफी लूला-लंगड़ा है। सरकारी विधेयक में प्रधानमंत्री के प्रतिरक्षा और विदेशी मामलों संबंधी कामों को नहीं छुआ जा सकता है यानी बोफोर्स जैसा कोई कांड हो जाए तो उस पर मुकदमा तक नहीं चल सकता। सांसदों के विरुद्ध यदि भ्रष्टाचार के आरोप लगें तो उनकी जांच लोकसभा अध्यक्ष की अनुमति के बिना नहीं हो सकती। किसी मंत्री या सत्तारूढ़ दल के सांसद के विरुद्ध क्या किसी अध्यक्ष की अनुमति प्राप्त करना सरल है?
इसके अलावा सरकारी लोकपाल का नौकरशाही से कोई लेना-देना नहीं होगा। नौकरशाहों का भ्रष्टाचार नेताओं के भ्रष्टाचार से अधिक सूक्ष्म और अधिक व्यापक है, लेकिन उसे पकड़ने के लिए वही पुरानी व्यवस्था कायम रहेगी यानी भ्रष्ट अफसर का विभाग ही उसकी जांच करेगा और यह जांच भी उच्च अफसर की अनुमति के बिना शुरू नहीं होगी। सीवीसी जिस तरह की नखदंतहीन संस्था है, लगभग वैसी ही संस्था लोकपाल के रूप में खड़ी हो जाएगी। सरकारी लोकपाल विधेयक में लोकपाल की नियुक्ति में भी उसी धांधली का राजमार्ग खुला हुआ है, जो थॉमस के मामले में हुई थी। तीन सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को लोकपाल बनाया जाएगा, लेकिन अगर किसी के नाम पर मतभेद हुआ तो चयन समिति क्या करेगी? समिति में बैठे प्रधानमंत्री और उनके साथी अपने मनपसंद लोगों को देश पर थोप सकेंगे। सरकारी लोकपाल जिस पद्धति से चुना जाएगा, उसी पद्धति से वह काम करेगा। वह अपने कृपानिधानों पर आंच क्यों आने देगा? यूं भी उसे सजा देने या सीधी शिकायतों पर जांच करने का अधिकार नहीं होगा।
आंदोलनकारियों को इस बात का श्रेय देना होगा कि वे केवल निंदा अभियान में नहीं जुटे हुए हैं। उन्होंने मेहनत की है और जनलोकपाल विधेयक तैयार किया है। इस वैकल्पिक विधेयक में सीबीआई और निगरानी आयोग को लोकपाल के मातहत रखा गया है और लोकपाल को शक्तिसंपन्न बनाया गया है। निश्चित समय में भ्रष्टाचार की जांच करना और दोषियों को दंडित करना इस जनलोकपाल का काम होगा। इस काम के लिए उसे और उसके सहयोगियों को किसी की अनुमति की जरूरत नहीं होगी। वह पूर्ण स्वायत्त होगा। लोकपाल की नियुक्ति में प्रधानमंत्री, गृहमंत्री तथा विपक्षी नेताओं का कोई हाथ नहीं होगा। यह लोकपाल अपने जाल में नेताओं के साथ-साथ अफसरों और जजों को भी समेट सकेगा। इस वैकल्पिक विधेयक में भी कई कमियां और अंतर्विरोध हैं, लेकिन इसमें नए-नए सुझाव रोज जोड़े जा रहे हैं। वास्तव में इस प्रक्रिया से सरकार को ही मदद मिलेगी।
सरकार व आंदोलनकारियों के बीच जिस बात पर ठन गई है, वह यह है कि दोनों मिलकर विधेयक तैयार करें। आंदोलनकारियों का कहना है कि यह प्रक्रिया महाराष्ट्र विधानसभा में अपनाई गई थी, संसद में क्यों नहीं अपनाई जा सकती? सरकार का कहना है यह परंपरा संसदीय प्रभुता का उल्लंघन करेगी। चुने हुए सांसदों का फिर क्या महत्व रह जाएगा? सच पूछा जाए तो यह झगड़ा झूठा है। यदि आंदोलनकारियों और सांसदों की संयुक्त बैठकें हो जाएं तो सांसदों को नए सुझाव ही मिलेंगे। उन्हें मानना या न मानना तो उनके हाथ में ही है। दूसरी ओर आंदोलनकारी अपने आपको विधेयक कमेटी पर लादना क्यों चाहते हैं? विधेयक के लिए संयुक्त कमेटी बनाई जाए, क्या यह मुद्दा आमरण अनशन योग्य है? बहरहाल, अनशन अपने आपमें इसलिए स्वागतयोग्य है कि इससे देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनजागरण की आंधी उमड़ सकती है।
लेखक प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक हैं।
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