रा. सहारा, 16 Nov 2003: पिछले कुछ माह से मुझे ऐसा लग रहा था कि सिर्फ भाषण देना और लेख लिखना बेकार-सा काम है| विचारों का न तो श्रोताओं पर कोई असर होता है और न ही पाठकों पर ! लेकिन इस हफ्ते हुई हैदराबाद-यात्रा ने मेरी निराशा को आशा में बदल दिया| स्वामी इन्द्रवेश, स्वामी अग्निवेश और मैं एक अत्यंत आधुनिक भवन का उद्घाटन करने हैदराबाद पहॅुंचे| यह भवन कई करोड़ की लागत से बना है| आंध्र की आर्य प्रतिनिधि सभा ने बनाया है| पं. नरेन्द्र की स्मृति में बना है| हवाई अड्डे से जब हम नरेन्द्र-भवन की ओर चले तो सभा के मुंत्री श्री विट्ठलराव से मैंने पूछा कि ‘इतने पैसों की व्यवस्था कैसे की आपने?’ उन्होंने तपाक से जवाब दिया कि “आपको याद नहीं कि लगभग पॉंच साल पहले दिल्ली की एक सभा में आपने कहा था कि आर्यसमाज की खरबों रुपए की सम्पत्तियॉं पड़ी-पड़ी सड़ रही हैं| उन्हें बेचो| नए भवन बनाओ और उनमें अनुसंधान और प्रकाशन-केंद्र खड़े करो| आपने शंघाई (चीन) के नगर निगम भवन का उदाहरण दिया था, जिसे बेचकर सारे शंघाई में नई सड़कें और पुल बना दिए गए थे| मैंने आपका भाषण सुनते-सुनते जो संकल्प किया था, वह आज पूरा हो रहा है| अब यहॉं हम अनुसंधान और प्रकाशन केंद्र भी खोलेंगे|” विट्ठलरावजी की बात सुनकर मुझे कैसा लगा होगा, इसकी कल्पना आप स्वयं कर सकते हैं|
नरेन्द्र-भवन के उद्घाटन के बाद आर्य-संसद हुई| उसमें हजारों लोग आए| मंच पर मेरे पास बैठनेवाले एक सज्जन ने आते ही गर्मजोशी से नमस्ते कहा| मैंने पूछा, ‘आपका शुभ नाम ?’ उन्होंने कहा ‘आचार्य आनंदप्रकाश’| मैंने उनसे क्षमा-याचना की और पूछा, ‘आपने कितने लाख शब्द और जोड़ लिये अपने शब्दकोश में ?’ यह सुनते ही वे खुश हो गए| करोड़ों शब्दों का कोश बनानेवाले वैयाकरण हैं, ब्रह्मचारी आनंदप्रकाश ! आनंदप्रकाशजी से चार-पॉंच साल पहले हैदराबाद के एक आर्यसमाज भवन में श्री कालिदास रेट्ठी ने भेंट करवाई| रेट्ठीजी ने कहा कि “एक ब्रह्मचारी दिन रात कुछ-न-कुछ लिखता रहता है| अपने लिखे हुए हजारों पृष्ठों की सामग्री उसने लोहे की बड़ी-बड़ी पेटियों में बंद कर दी है| उसे कागज और पेटियों की कमी पड़ रही है| आप उससे मिलें तो बड़ी कृपा हो|” हम दोनों वहॉं पहॅुंचे तो देखा लिखे हुए कागजों की थप्पियॉं लगी हुई हैं और जमीन पर बैठे ब्रह्मचारी दत्तचित्त कुछ लिख रहे हैं| जाते से ही बातचीत शुरू हो गई| किसी ने किसी का परिचय नहीं करवाया| ब्रह्मचारीजी ने बताया कि पाणिनी ने लगभग दो हजार धातुओं का उल्लेख किया है| यदि एक धातु में दस प्रत्यय, तीन पुरुष, तीन वचन, बीस उपसर्ग आदि लगाऍं तो लगभग 11 लाख शब्द बनते हैं| एक धातु से 11 लाख शब्द तो 2000 धातुओं से कितने बनेंगे ? जाहिर है कि करोड़ों ! उन्होंने मुझे एक-दो धातुओं से बने कुछ शब्द बताए| देखकर मैं अचरज से भर गया| जब घंटे भर बाद मैं वहॉं से चलने लगा तो मैंने उनसे उनका नाम पूछा| उन्होंने कहा, ‘आनंदप्रकाश|’| उन्होंने उदासीनतापूर्वक मुझसे पूछा, “और आपका?” मैंने ज्यों ही अपना नाम बताया, उन्हें बिजली का झटका-सा लगा और वे मेरे पॉंव छूने लगे| मैंने उन्हें रोका और इसका कारण पूछा| उन्होंने बताया कि “(15-20 साल पहले) मैं अलवर के आर्य महा सम्मेलन में उपस्थित था| वहॉं आपने अपने भाषण में भारतीय भाषाओं की शब्द-सम्पन्नता का जि़क्र करते हुए संस्कृत की धातुओं से शब्द-निर्माण की अनंत क्षमता का वर्णन किया था और यह भी कहा था कि कोई अकेला पंडित ही चोटी बॉंधकर बैठ जाए तो वह दुनिया का सबसे बड़ा शब्दकोश बना सकता है| तब से ही मैं इस काम में लगा हुआ हॅूं|” यही आचार्य आनंदप्रकाश मेरी बगल में बैठे थे| विट्ठलजी और आनंदजी, ये दोनों इस बात के जीवंत प्रमाण हैं कि विचारों का कुछ न कुछ असर जरूर होता है| बोलना और लिखना बेकार नहीं है| विचार अगर महत्वहीन होता तो रेने देकार्त ये क्यों कहता कि “मैं सोचता हॅूं, इसीलिए मैं हॅूं|”
आजकल फिलाडेल्फिया से दो सज्जन भारत आए हुए हैं| एक हैं, श्री विजय कपूर और दूसरे हैं, श्री शमशेर बहादुर टंडन ! ये दोनों सज्जन सत्तर-पार हैं| दोनों लगभग पचास साल पहले अमेरिका गए थे| दोनों ने अमेरिकी महिलाओं से शादी की थी| दोनों अत्यंत आकर्षक व्यक्तित्व के धनी हैं| श्री कपूर और टंडन दोनों अच्छे-खासे व्यवसायी हैं लेकिन दोनों इस उम्र में भी कुछ विचारों से ऐसे प्रेरित हैं कि उनकी खातिर वे अपना सर्वस्व समर्पित कर सकते हैं| श्री कपूर अमेरिकियों द्वारा किए गए भारत-विरोधी प्रचार का जबर्दस्त जवाब देते हैं| भारत-विरोधियों को नकेल पहनाने में वे कोई कसर उठा नहीं रखते| वे पानीपत के प्रसिद्घ रामलाल कपूर ट्रस्ट के उत्तराधिकारी हैं| इस ट्रस्ट ने भारत-विद्या संबंधी अनेक महत्वपूर्ण ग्रथ प्रकाशित किए हैं| श्री कपूर चाहते हैं कि अमेरिका में बसे 20लाख भारतीयों के बच्चों के लिए अब वे दयानंद एंग्लो-वैदिक स्कूलों और कॉलेजों की एक श्रृंखला खोल दें| इसी प्रकार टंडनजी चाहते हैं कि एक नया मज़हब शुरू किया जाए, जिसमें सभी मज़हबों की अच्छी-अच्छी बातें ले ली जाऍं | अभी तक वे यह तय नहीं कर पाए हैं कि अच्छी-अच्छी बातें कौनसी हैं और अच्छी-अच्छी बातें लेना बेहतर होगा या सर्वमान्य बातें लेना बेहतर होगा| जो भी हो, वे तो धुन के धुनी हैं| वे हर माह भारत आते हैं| उनकी धुन से उनकी बेटियॉं भी डरती हैं| दोनों बेटियों ने अपने पापा से कहा है कि हमारी शादी के समय आप जो भाषण देंगे, कृपया उसकी लिखित अगि्रम प्रति हमें जरूर दिखा दें|
चम्पालिमए
चम्पा लिमए नहीं रहीं, यह जानकर बड़ा धक्का लगा| चम्पाजी कभी सांसद, मंत्री, राज्यपाल आदि नहीं बनीं, लेकिन उनके बड़े होने के लिए यही क्या कम था कि वे चम्पा लिमए थीं| मधु लिमए, क्या मधु लिमए रह पाते, अगर चम्पाजी उनकी पत्नी नहीं होतीं? मधुजी ने कभी कोई नौकरी नहीं की| सांसद बनने के पहले तक उनका सारा खर्च चम्पाजी के वेतन से चलता था| चम्पाजी बंबई के किसी कॉलेज में संस्कृत पढ़ाती थीं और मराठी विभाग की अध्यक्षा थीं| छुट्टियों में अक्सर बेटे पोपट (अनिरुद्घ) को लेकर दिल्ली आ जाया करती थीं| डॉ. राममनोहर लोहिया के घर पर रोज शाम को हम लोगों का अड्डा जमता ही था| वे जब दिल्ली होतीं तो मधुजी के घर में मधुरता को संचार हो जाता| कढ़ी, श्रीखंड, पोहे-पता नहीं क्या-क्या महाराष्ट्रीय पकवानों का आस्वाद मिलता| वे राजनीतिक बहसों में बराबरी से भाग लेती थीं और धर्मयुग, न.भा.टा. आदि में लेख भी लिखतीं| मधुजी और चम्पाजी जब-जब मेरे यहॉं आते तो कहते अपने ‘म्यूजिक सिस्टम’ पर हमें कुमार गंधर्व सुनवाओ| मेरी पत्नी और चम्पाजी, दोनों में खूब पटती, क्योंकि दोनों ही संस्कृत की पंडिता थीं| चम्पाजी ने लगभग आधा दर्जन पुस्तकें लिखीं और अनूदित भी की हैं| उन्हें विनम्र श्रद्घॉंजलि !
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