रा. सहारा, 30 नवंबर 2003: हिन्दी की अन्तरराष्ट्रीय स्थिति पर तीन मूर्ति भवन में संगोष्ठी चल रही है| अनेक देशों के विद्वान आए हुए हैं| चीन के युवा प्राध्यापक ज्यांग जिंग कुई ने चीन में हिन्दी की स्थिति पर अच्छा प्रकाश डाला| कैसे चीनी-हिन्दी शब्दकोश बन रहा है, कैसे रामचरितमानस का चीनी पद्यानुवाद हुआ, कैसे हिन्दी छात्रों की संख्या बढ़ रही है, आदि-आदि| हिन्दी विश्व भाषा बने, यह इच्छा भी उन्होंने प्रगट की| वे धाराप्रवाह और मुहावरेदार हिन्दी बोल रहे थे| श्रोतागण मंत्रमुग्ध थे| परम प्रसन्न हो रहे थे लेकिन अपने भाषण का समापन करते-करते अचानक ही वे भारत में हिन्दी की स्थिति पर बोलने लगे| भारत में हिन्दी की दुर्दशा पर उन्होंने क्या-क्या नहीं कहा ? उन्होंने कहा कि आपके देश के महान नेतागण जब चीन आते हैं तो अंग्रेजी में बोलते हैं| चीनी जनता को समझ नहीं पड़ता कि आखिर भारतीय लोग अंग्रेजी क्यों बोलते हैं ? क्या उनकी अपनी कोई भाषा नहीं है ? प्राध्यापक कुई ने बताया कि आपके प्रधानमंत्री जब चीन आए तो वे हर जगह अंग्रेजी में लिखे भाषण पढ़ते रहे| हमने सोचा कि पेइचिंग विश्वविद्यालय में जब वे हिन्दी केंद्र का उद्रघाटन करेंगे तो अवश्य ही हिन्दी में बोलेंगे| हमने जमकर तैयारी की ताकि हिन्दी से सीधे चीनी में अनुवाद हो सके| कुई का कहना है कि यह मेरे लिए बड़ी चुनौती थी लेकिन हतभाग्य कि वे वहॉं भी अंग्रेजी में भाषण पढ़ने लगे| खोदा पहाड़, निकली चुहिया ! अंग्रेजी की यह गुलामी की गंगा ऊपर से नीचे तक बह रही है| टैक्सीवाला, चायवाला और पानवाला भी विदेशी को देखते ही अंग्रेजी में बोलने की कोशिश करता है|
प्राध्यापक कुई के भाषण के पश्चात्र संगोष्ठी अध्यक्ष डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय ने मुझे और डॉ. लोकेशचंद्र को बोलने के लिए कहा| मैंने कहा कि यदि गॉंधी और लोहिया कुछ वर्ष और जिन्दा रहते तो भारत को सांस्कृतिक स्वतंत्रता भी मिल जाती| भारत राजनीतिक दृष्टि से स्वाधीन है लेकिन सांस्कृतिक दृष्टि से पराधीन है| इस सांस्कृतिक पराधीनता से भारत को मुक्त करवाने का काम क्या राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्रिगण आदि कर सकते हैं ? नहीं, यह इनके वश की बात नहीं है| यह काम बहुत बड़ा है और ये पद बहुत छोटे हैं| इन पदों पर बैठे लोग अंग्रेजी की ही नहीं, उन नौकरशाहों की भी गुलामी करते हैं, जो हमारे नेताओं से बेहतर अंग्रेजी जानते हैं| यह खोटा धंधा अंदर ही अंदर चलता है| आम आदमी को इसकी भनक भी नहीं लगती| हमारे नेता अपने मातहत अफसरों के आगे कैसे हकलाते हैं, इसका मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है| वे अफसरों के लिखे अंग्रेजी भाषण पढ़ने के लिए मजबूर तो होते ही हैं, उनकी बनाई नीतियों पर अमल भी करते हैं| हमारे नेताओं का ज्यादातर समय जोड़-तोड़, तिकड़म और अपनी कुर्सी-रक्षा में निकल जाता है| इसीलिए शासन का असली काम तो अफसर करते हैं, नेतागण प्राय: नौकरशाहों के प्रवक्ता होते हैं| नौकरशाहों को क्या गर्ज पड़ी है कि वे हिन्दी लाऍं ? केवल नेतागण हिन्दी लाने का नाटक करते रहते हैं| यह मैं इसलिए कह रहा हॅूं कि जब भाजपा सरकार ही नौटंकीबाज सिद्घ हो गई तो अब हिन्दी के लिए किसी अन्य दल से क्या आशा की जाए ? दिल्ली के उप-राज्यपाल ने इस अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी में भाग लेनेवाले विद्वानों के सम्मान में जो रात्रि-भोज रखा है, उसका निमंत्रण भी अंग्रेजी में और केवल अंग्रेजी में आया है| उसमें हिन्दी का एक शब्द भी नहीं था| उसे देखते ही मैंने कूड़े की टोकरी में फेंका| यदि भारत सांस्कृतिक दृष्टि से स्वाधीन होता तो अपने उप-राज्यपाल महोदय क्या इस हिमाकत के बावजूद अपने पद पर बने रह सकते थे ?
अपमान-भोज
अन्य राष्ट्रों के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भारत आते हैं तो हमारे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री उनके सम्मान में राज-भोज का आयोजन करते हैं| इस तरह के भोजों में मंत्रियों के अलावा ऐसे लोगों को बुलाया जाता है, जिनका उस देश-विशेष के साथ व्यापारिक, सांस्कृतिक और कूटनीतिक संबंध रहा हो| कुछ प्रमुख संपादकगण और हमारे विदेश मंत्रालय के अफसर भी होते हैं| कुल मिलाकर प्राय: 30-40 अतिथि होते हैं| इस तरह के सैकड़ों राज-भोजों में मैं पिछले पैंतीस वर्षों में जाता रहा हॅूं| प्रारंभिक मेल-जोल के बाद सारे मेहमान और मेज़बान भोज-कक्ष में जाते हैं| भोज-कक्ष के द्वार पर रखी एक तख्ती पर नक्शा चिपका रहता है, जो यह बताता है कि कौन अतिथि कहॉं बैठेगा| सब अतिथियों के नाम लिखे होते हैं और उनका क्रम बना होता है| इस बार अजूबा हुआ| मोरिशस के प्रधानमंत्री पॉल बेरांजे के सम्मान में जो दावत हुई, उसका बैठक-क्रम देखकर लोग हक्के-बक्के रह गए| देश के नामी-गिरामी संपादकों और बालेश्वर अग्रवाल जैसे लोगों के नाम एकदम अंत में थे| मैं भी उन्हीं में था| हम लोगों से पहले ज्यादातर छोटे-मोटे अफसरों के नाम थे याने मेज़बान पहले और मेहमान बाद में| अटलजी जैसे अति शिष्ट और सुसंस्कृत व्यक्ति के प्रधानमंत्री रहते हुए यह भूल कैसे हो गई ? डॉ. मुरली मनोहर जोशी को यह स्थिति बड़ी अटपटी लगी| उन्होंने प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव ब्रजेश मिश्र को भी बताया| नव-नियुक्त विदेश सचिव शशांक को भी पता चला| लेकिन ऐन वक्त पर क्या हो सकता था| डॉ. जोशी के जबर्दस्त आग्रह के बावजूद मैंने भोजन नहीं किया और मैं चुपचाप चला आया| किसी अन्य प्रधानमंत्री के दौर में मुझे ऐसा नहीं करना पड़ा| शायद हम अटलजी से कुछ ज्यादा ही अपेक्षा करते हैं| इसीलिए छोटे-से कॉंटे की चुभन भी इतनी तेज़ होती है|
प्रो.सोंधी
प्रो. मनोहरलाल सोंधी का अचानक विदा हो जाना बड़ा आघात है| सड़क के बीच में लगे विभाजक-डंडों से उनकी कार टकराई, जैसे कि राजकुमारी डायना की टकराई थी| सिर पर चोट आई| उन्होंने डॉक्टरों को ठीक से इलाज़ नहीं करने दिया| अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व और शब्दों की बाढ़ में उन्होंने डॉक्टरों को भी बहा दिया| दो दिन में ही वे चल बसे| उम्र 68 साल ! उन्हें 1967 के चुनाव में भारत का केनेडी कहा जाता था| नई दिल्ली से जब वे लोकसभा में गए तो बड़े-बड़े नेताओं के दिल में डर बैठ गया था| लगता था कि यह आदमी कभी भारत का प्रधानमंत्री बनेगा| वे दुबारा कभी नहीं चुने गए लेकिन उनका महत्व बराबर बना रहा | वे विलक्षण प्रतिभा के धनी थे| बौद्घिक, वक्ता, संगठक क्या नहीं थे, वे ? स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ में पॉंच साल तक उन्होंने मेरे जैसे कई छात्रों को पढ़ाया| विदेश सेवा छोड़कर वे अध्यापन में आए थै| उनके साथ मिलकर लगभग 35 साल पहले मैंने कई प्रदर्शन, गोष्ठियों और सभाओं का आयोजन किया था| अटलजी की तरह वे भी भूतपूर्व आर्यसमाजी थे| आज जबकि हमारे नेतागण रिश्वत, शराब और व्यभिचार में डूबे दिखाई पड़ते हैं, उनके बीच सोंधी साहब उज्जवल-धवल सदाचार की प्रतिमूर्ति थे|
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