Nav Bharat Times, 23 Feb 2005 : विदेश सचिव श्याम सरन न तो विदेश मंत्री हैं और न ही विदेश नीति-विचारक ! उनसे यह आशा करना उचित नहीं कि वे भारतीय विदेश नीति का कोई सिद्घांत प्रतिपादित करेंगे| 14 फरवरी को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में उन्हें सुनने को जैसी भीड़ जुटी थी, वह यह मानकर चल रही थी कि विदेश नीति के मामले में आज कोई धमाका होनेवाला है| लोग यह समझ रहे थे कि या तो वे नेपाल के बारे में धरती कॅंपाऍंगे या पाकिस्तान के बारे में आसमान हिलाऍंगे या विदेश नीति के किसी सिद्घांत की घोषणा करेंगे| लेकिन मज़ेदार बात यह हुई कि न तो इन दोनों देशों का नाम उन्होंने अपने मूल भाषण में लिया और न ही विदेश नीति का कोई गुरु-गंभीर सिद्घांत प्रतिपादित किया| प्रश्नोत्तरों के दौरान उन्होंने नेपाल और पाकिस्तान के बारे में पूछे गए सीधे प्रश्नों पर भारतीय नीति को स्पष्ट जरूर किया| पड़ौसी देशों के प्रति भारतीय नीतियों का इससे बेहतर प्रतिपादन क्या हो सकता था|
विदेश सचिव का मूल कथ्य यही था कि भारत किसी विशाल व्यवसाय की तरह आगे बढ़ रहा है| वह अपने पड़ौसी देशों को इस बड़े मुनाफे का शेयर होल्डर बनाना चाहता है| भारत की प्रगति उनकी प्रगति है| उनकी प्रगति भारत की प्रगति है| एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने यह भी कहा कि वे किसी भी पड़ौसी देश का बिखराव नहीं चाहते| उनकी शांति और स्थायित्व में ही भारत का हित है| लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि भारत को पड़ौसी देश धकियाते रहें, दक्षेस को उसके विरुद्घ इस्तेमाल करते रहें, भारत के विरुद्घ आपस में या बाहरी राष्ट्रों से सॉंठ-गॉंठ करते रहें| बड़ा राष्ट्र होना भारत की मजबूरी है| भारत अपने टुकड़े तो नहीं कर सकता| उसके साथ मिल-जुलकर रहने में ही सबका हित है| ये सब बातें सही हैं लेकिन उन्होंने इनका कोई सैद्घांतिक आधार खड़ा नहीं किया| यह नहीं बताया कि दक्षिण एशिया के सब राष्ट्र आपस में मिलजुलकर क्यों रहें? यूरोपीय समुदाय के मेल-जोल का कारण शुद्घ आर्थिक है| आर्थिक कारण का महत्व हमारे यहॉं भी है लेकिन उससे बड़ा कारण है – सांस्कृतिक और भावनात्मक ! भारत के सारे पड़ौसी ईरान से बर्मा तक – इतिहास में कई बार एक ईकाई की तरह रहे हैं| यह एकात्म-भाव हमारी विदेश नीति के नए सिद्घांत का सुदृढ़ स्तंभ बन सकता है| इसी आधार पर दक्षिण एशिया के सवा अरब लोगों में सीधा मेल-मिलाप बढ़ाया जा सकता है और हर साल जन-दक्षेस का आयोजन भी किया जा सकता है| यह असंभव नहीं कि अगले एक दशक में ही दक्षिण एशियाईर् महासंघ बन जाए|
विदेश सचिव ने यह भी कहा कि दक्षिण एशिया के देश किसी समान सुरक्षा सिद्घांत में विश्वास नहीं करते अर्थात्र वे एक-दूसरे की सुरक्षा को खतरा पहॅुंचाते रहते हैं, अपनी सुरक्षा के नाम पर बाहरी महाशक्तियों के साथ सॉंठ-गॉंठ करते रहते हैं और पड़ौसी राष्ट्रों को अंदर से हिलाने की भी कोशिश करते हैं| यहॉं बुनियादी प्रश्न यह है कि क्या भारत का भी कोई अपना सुरक्षा सिद्घांत है? अभी कोई सहयोग-सिद्घांत ही नहीं बना है तो सुरक्षा-सिद्घांत कहॉं से आ जाएगा? दोनों सिद्घांत नहीं बने हैं, इसका मतलब यह नहीं कि भारत सहयोग और सुरक्षा से अछूता है| भारत को पिछले 57-58 साल में पड़ौसी देशों के साथ सहयोग और सुरक्षा के गहरे अनुभव मिले हैं| इन अनुभवों के आधार पर व्यापक दक्षिण एशिया सिद्घांत की अविलंब स्थापना तो जरूरी है ही, उसकी आवश्यकता इसलिए भी है कि भारत अब परमाणु शक्ति भी बन गया है और कुछ ही वर्षों में वह आर्थिक महाशक्ति का दर्जा भी हासिल कर लेगा| सिद्घांत सर्चलाइट की तरह होता है| उसके रहते व्यवहार सरल हो जाता है| भारत की शक्ति और मर्यादा का बार-बार बखान करने की जरूरत नहीं रहेगी| पड़ौसी देश अपने आप अनुमान लगा लेंगे कि फलॉं स्थिति में भारत क्या करेगा और उन्हें क्या करना है|
आज नेपाल को लेकर विभ्रम क्यों फैला हुआ है? क्योंकि दुनिया को यह पता नहीं कि पड़ौसी देश में लोकतंत्र की हत्या पर भारत का रवैया क्या होगा? जिस बांग्लादेश को हमने आज़ादी दिलाई, उसी में जब फौजी शासन कायम हुआ तो हमने क्या किया? बर्मा और पाकिस्तान में लोकतंत्र के दीप बुझे तो भारत का दुर्वासा क्यों नहीं जागा? एक ही स्थिति के बारे में दो परस्पर-विरोधी रवैयों से हम कब तक काम चलाऍंगे? दूसरे देशों पर लोकतंत्र थोपने की किशोराना कार्रवाई क्या हम उसी तरह करेंगे जैसे कि सोवियत संघ और अमेरिका करते रहे हैं? क्या विदेश नीति में हम पादरीवाद और मुल्लावाद चलाऍंगे? यदि नहीं तो क्या अपनी नाक के नीचे हम लोकतंत्र की भू्रण-हत्या होने देंगे? तानाशाहियों के टापुओं से घिरा हुआ भारत क्या अपना लोकतंत्र का बागीचा सुरक्षित रख सकेगा? इसी प्रकार कश्मीर में घुसने के लिए हम राजा का निमंत्रण स्वीकार करते हैं और हैदराबाद में घुसने के लिए जनता का आह्रवान मानते हैं, निजाम का नहीं| जैसे कश्मीर, हैदराबाद और गोवा एक तरह के प्रश्न उपस्थित करते हैं तो श्रीलंका (1971), पूर्वी पाकिस्तान (1971) और मालदीव (1987) दूसरे तरह के| कश्मीरी आतंकवाद, बांग्ला-बर्मा सीमाओं से जारी तोड़-फोड़ और अंदरूनी साजिशें – तीसरे तरह के प्रश्न उछालती हैं| इतना ही नहीं, अपने परमाणु शस्त्रास्त्रों की तैनाती हम कैसे और कहॉं करें और उनके प्रयोग के नियम और उपनियम क्या हों, यह चौथे तरह की सुरक्षा-समस्या है| भारत यदि महाशक्ति है या बनना चाहता है तो क्या केवल पड़ौस से आए खतरों से ही निपटना काफी है? क्या भौगोलिक सुरक्षा ही एक मात्र सुरक्षा है? क्या आर्थिक, सांस्कृतिक और आनुवंशिक सुरक्षा का कोई महत्व नहीं है? विदेशों में बसे दो-ढाई करोड़ भारतीयों के प्रति क्या हमारा कोई दायित्व नहीं है? यदि भारती पूर्वी पाकिस्तान में घुस सकता है तो फीजी में जॉर्ज स्पैट को मजा क्यों नहीं चखा सकता?
भारत का सुरक्षा सिद्घांत यह स्पष्ट करेगा कि वे कौनसी परिस्थितियॉं हैं, जिनके उत्पन्न होने पर वह पड़ौसी-देशों में सैन्य-हस्तक्षेप करेगा, सैन्य-हस्तक्षेप कितने प्रकार के हो सकते हैं, भारत की सामुदि्रक सुरक्षा-सीमा कहॉं तक है, उसका आज्ञा-क्षेत्र, उपाज्ञा-क्षेत्र और प्रभाव-क्षेत्र कहॉं तक होगा, भारत का सहनशीलता सूचकांक कौनसा है याने बर्दाश्त की हद कहॉं तक है| पड़ौसी देशों में अराजकता इतनी फैल जाए कि कोई न्यौता देनेवाला ही न मिले तो वह क्या करेगा? इस तरह के अनेक ज्ञात और अज्ञात प्रश्नों का उत्तर किसी सिद्घांत के जरिए ही पाया जा सकता है| भारतीय विदेश नीति का अपना कोई सिद्घांत-विशेष आज तक उभरकर सामने नहीं आया है| जहॉं तक गुट-निरपेक्षता के सिद्घांत का सवाल है, वह अकेले भारत का नहीं, संपूर्ण तीसरी दुनिया का सिद्घांत रहा है| अब इस एकध्रुवीय दुनिया में यह सामूहिक सिद्घांत भी अप्रासंगिक हो गया है| सिद्घांत प्रतिपादित करना बड़ा टेढ़ा काम है| सिद्घांत और नीतियों में फर्क होता है| सिद्घांत दीर्घकालिक होते हैं और नीतियॉं अल्पकालिक| सिद्घांत के लिए लक्ष्य-विधान, लक्ष्य को प्राप्त करने की रणनीतियॉं, नीतियों के लिए उपाय, उपायों के लिए साधन और सब कुछ उपलब्ध होने पर भी अपवादों की संभावनाओं पर विचार करना होता है| यह जरूरी नहीं कि विदेश नीति का सिद्घांत, विदेश नीति की बेड़ी बन जाए| विदेश नीति का सबसे बड़ा सिद्घांत राष्ट्रहित संपादित करना है| इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अगर कोई बेड़ी तोड़नी पड़ती है तो समर्थ राष्ट्र कभी कोई संकोच नहीं करते|
tylv���otx@f��angal;mso-ascii-font-family:Mangal;mso-hansi-font-family: Mangal;mso-bidi-language:HI’>जाएँ, वे किसी भी भाषा के हों, उनका स्वागत होना चाहिए। शब्दों में छुआछूत नहीं बरती जा सकती लेकिन वे सबको समझ में आएँ, क्या यह आग्रह गलत है?
मधुकरजी
श्री ब्रजेंद्रकुमार भगत `मधुकर’ मोरिशस के राष्ट्रकवि माने जाते हैं। 86 वर्ष की आयु में अभी कुछ माह पहले ही उनका निधन हुआ है। मोरिशस और भारत में उनसे मिलने का मौका कई बार मिला है। वे उत्कट हिंदीप्रेमी थी। वे भव्य और आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। भारत में उनका परिचय किस-किस से नहीं था? महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, शिवमंगल सुमन, पुरुषोत्तमदास टंडन, धर्मवीर भारती, हजारीप्रसाद द्विवेदी – सभी से उनका मिलना-जुलना और पत्र-व्यवहार था। डॉ राजेंद्रपस्राद और डॉ संपूर्णानंद के अलावा जवाहरलाल नेहरु और इंदिरा गाँधी से लेकर अटलबिहारी वाजपेयी तक लगभग सभी प्रधानमंत्री उन्हें जानते थे। अपने लगभग 65 साल के रचना-काल में उनके दर्जनों काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए, अनेक सम्मान मिले और मोरिशस में अपूर्व लोकप्रियता भी मिली।
लेकिन भारत के साहित्य-जगत में उनकी पहचान अभी भी बाकी है। इस दिशा में प्रेमचन्द-विशेषज्ञ के तौर पर विख्यात डॉ कमलकिशोर गोयन्का ने सराहनीय पहल की है। उन्होंने मधुकर `काव्य रचनावली’ का प्रकाशन किया है। इस बड़े आकार के सुरुचिपूर्ण ग्रंथ में मधुकरजी की सभी काव्य-रचनाओं का संकलन तो है ही, ऐसे दुर्लभ चित्र, पत्र, दस्तावेज, पांडुलिपियाँ आदि भी हैं, जो इसे किसी भी उत्तम अभिनंदन गं्रथ से भी बेहतर बना देते हैं। यह गं्रथ पठनीय और दर्शनीय, दोनों हैं। डॉ गोयन्का की 37 पृष्ठ की भूमिका मधुकरजी के रचना-संसार का विहंगम मूल्यांकन करती है। अभिनंदन गं्रथों में छपे प्रशस्ति-मूलक लेखों के बजाय ऐसा मूल्यांकन साहित्यिक दृष्टि से अधिक उपयोगी हो सकता है। इस तरह के ग्रंथ प्रवासी भारत के सभी प्रमुख रचनाकारों पर निकलें तो हिंदी जगत के विस्तार और सौष्ठव से साधारण हिंदीप्रेमियों का भी परिचय बढ़ेगा।
देहदुबई द़िलदेश
किसी काव्य-संग्रह का यह शीर्षक क्या ज़रा अटपटा नहीं लगता? लगता तो है लेकिन यह एक ऐसे कवि का संग्रह है, जो दुबई में रहता है और जिसका दिल उज्जयिनी में बसता है। उज्जैन में पले-बढ़े गंगाधर जसवानी मूलत: सिंधी हैं लेकिन हिंदी में कविता लिखने का शौक उन्हें बचपन से ही है। छोटी उम्र में रोजगार की तलाश में वे जब दुबई पहॅुंचे तो कविता भूल गए लेकिन ज्यों-ज्यों समृद्बि बढ़ती गई और अवकाश मिलता गया, वे कविता की तरफ्ऎ लौटते गए। इस पहले काव्य-संग्रह की भूमिका डॉ शिवमंगलसिंह सुमन ने लिखी है। शायद सुमनजी की लिखी यह आखिरी भूमिका थी। संग्रह का प्रकाशन राजकमल ने किया है और उसका लोकार्पण श्री अटलबिहारी वाजपेयी करेंगे।
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