राष्ट्रीय सहारा, 22 जनवरी 2006 : हर 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस मनाया जाएगा, यह घोषणा सरकार ने इतनी दबी जुबान से की है कि बहुत से हिंदी अखबारों को ही कुछ पता नहीं चला है हैदराबाद के प्रवासी सम्मेलन के दौरान सरकार को याद आया कि पहला विश्व हिंदी सम्मेलन नागपुर में 10 जनवरी 1975 को आयोजित किया गया था| इस घोषणा को खुद सरकार ने कितना महत्व दिया है, वह इसी से साबित हो जाता है कि दिल्ली के ओबरॉय होटल में 10 जनवरी की रात को मुश्किल से 50 लोग एकत्र् हुए और विदेश राज्यमंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने प्रधानमंत्री का संदेश पढ़कर सुना दिया| न प्रधानमंत्री आए, न राष्ट्रपति, न गृहमंत्री, न विपक्ष के नेता और न ही कोई पूर्व प्रधानमंत्री| इसका मतलब क्या हुआ? क्या यह नहीं कि खुद सरकार को समझ नहीं पड़ रहा कि उसने कितना वड़ा एतिहासिक कार्य कर दिया है? उसने शायद समझ लिया कि जैसा 14 सितंबर, वैसा ही 10 जनवरी| जैसे राष्ट्रीय स्तर पर हर साल सरकारी दफ्तरों में राजभाषा – श्रद्घा आयोजित हुआ करेगा| जैसे यह औपचारिकता, वैसे वह औपचारिकता! इसका नगाड़ा क्या पीटना?
यह सरकारी सोच स्वाभाविक हो सकता है लेकिन अब 10 जनवरी का ढोल तो उसके गले में बँध ही गया है| वह इसे मजबूरी नहीं, चुनौती माने तो भारत
का बहुत भला हो सकता है| क्या दुनिया में हम किसी ऐसे देश को जानते हैं जो अपनी भाषा के बिना महाशक्ति बन बया हो? दुनिया की महाशक्तियों के उत्थान-पतन का इतिहास उनकी भाषाओं के उत्थान-पतन का ही इतिहास है| यूनान, रोम, मिस्र, पर्स, इंग्लैड, अमेरिका आदि ज्यों-ज्यों महाशक्ति बनते गए, उनकी भाषाएँ सूर्य की तरह उदय होती चली गईं और ज्यों-ज्यों वे शिथिल होते गए, उनकी भाषाएँ अस्ताचलगामी हो गई| हम भारत में कुछ अजूबा करना चाहते हैं| इतिहास में नया अपवाद खड़ा करना चाहते हैं| हम अपनी भाषा के बिना ही महाशक्ति बनना चाहते हैं| हम इतिहास को ठगना चाहते हैं| हम सोचते हैं, हमें अपनी भाषा की क्या जरूरत है? हम अपने पुराने मालिक की भाषा से ही काम चला लेंगे| हमारे लिए तो अंग्रेजी ही काफी है| यदि अंग्रेजी काफी है तो हिंदी को विश्वभाषा घोषित करने की क्या जरूरत है? हम यह भूल जाते हैं कि अंग्रेजी के जरिए हम दुनिया के मुश्किल से दर्जन भर देशों में छोटी-मोटी नौकरियाँ ही हथिया पाते हैं, जैसेकि अमेरिका, बि्रटेन, केनाडा, आस्ट्रेलिया जैसे देशों में! शेष पौने दो सौ राष्ट्रों में यदि हम अपना सिक्का जमाना चाहें तो क्या वह अंग्रेजी के जरिए जम सकता है? नौकरियाँ तो वहाँ भी हमें अंग्रेजी या तद्देशीय भाषाओं के जरिए मिल सकती है लेकिन क्या नौकरियाँ पाना महाशक्ति बनना है? महाशक्ति अपने नागरिकों को दूसरों का नौकर नहीं, अथवा मालिक बनना सिखाती है| जो अपना मालिक खुद होता है, वह अपनी भाषा बोलता है| वह गूंगा नहीं होता| हमारे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा अन्य नेतागण चीन, जापान, रूस और जर्मनी जैसे देशों में जाकर भी अंग्रेजी में बोलते हैं| उन्हें कोई शर्म नहीं आती| उन देशों के नेता अपनी-अपनी भाषा में बोलते हैं लेकिन हम गुलामों की तरह परदेसी जुबान में लड़खड़ाते रहते हैं| अब हिंदी को अपने विश्वभाषा कह दिया, अब तो कुछ लाज-शर्म रखिए| कम से कम औपचारिक अवसरों पर विदेशियों के साथ हिंदी में बात करिए| अंग्रेजी की बजाय संबंधित देश की भाषा का दुभाषिया रखिए| जार्ज बुश अब 2000 अमेरिकियों को हिंदी, चीनी, फारसी, अरबी आदि सिखाने पर 11 करोड़ डॉलर खर्च करने पर आमदा हैं| उन्हें दुभाषिए और जासूस चाहिए| जब बुश का काम सिर्फ अंग्रेजी से नहीं चलता तो मनमोहन सिंह का कैसे चलेगा? संधियाँ-सब काम भारत की राजभाषा हिंदी में हो| संयुक्तराष्ट्र और हमारे सारे दूतावासों का समस्त औपचारिक मूल काम-काज हिंदी में हो| यदि वे अपना काम हिंदी में करेंगे याने अंग्रेजी की बैसाखी छोड़ेंगे तो वे जिन देशों में नियुक्त किए गए हैं, उन देशों की भाषाएँ सीखकर उनमें काम-काज करेंगे| भारत को अन्तराष्ट्रीय राजनीति में अपूर्व सफलता मिलेगी| हिंदी सचमुच विश्व-भाषा का दर्जा या जएगी| यह दर्जा मिलना बाकी है| दुनिया में सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली और समझी जानेवाली भाषा हिंदी ही है| दुनिया के 50 देशों में बसे 2 करोड़ भारतीय भी इसे अपनी पहचान मानते हैं| यह 40 देशों में पढ़ाई जाती है| अब सरकार पर दबाव पड़ेगा कि हिंदी को संयुक्तराष्ट्र की अधिकारिक भाषा बनाया जाए| नागपुर सम्मेलन ने 31 साल पहले यह प्रस्ताव पारित किया था| उसी सम्मेलन के कारण 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस घोषित किया गया है| अब भी अगर हिंदी संयुक्तराष्ट्र में नहीं पहुँचती तो सरकार की इस घोषणा पर पानी फिर जाएगा|
यदि सरकार अपना विदेशी काम-काज हिंदी में शुरू करें हिंदी संयुक्तराष्ट्र में प्रयुक्त हो तो उसका सीधा प्रभाव भारत पर पडे़गा और वे देश भी अछूते नहीं रहेंगे, जिनमें भारतवंशियों की संख्या लाखों में है| मोरिशस, फीजी, गयाना, सूरिनाम, त्रिनिदाद जैसे देशों में हिंदी का घटता प्रभाव थमेगा| दो देश भी संयुक्तराष्ट्र और अपने-अपने राष्ट्र में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देंगे| सबसे ज्यादा काम तो भारत के अंदर ही करने होंगे| हर हिंदी भाषा राज्य में एक-एक विश्सविद्यालय ऐसा बनना चाहिए, जो विज्ञान, इंजीनियरी, मेडिकल, बायो-टेक्नॉलाजी, कंप्यूटर-विद्या, प्रबंधन आदि आधुनिक विषयों की सर्वोच्च स्तर तक की शिक्षा केवल हिंदी माध्यम से दे| केवल अंग्रेजी ही नहीं, उसके साथ-साथ दुनिया की लगभग दो दर्जन प्रमुख भाषाएँ हिंदी माध्यम से सिखाई जाएँ| विश्व-हिंदी का नारा लगानेवाली सरकार चाहे जो करे, स्वयं हिंदीभाषी अपने रोज़मर्रा के जीवन में हिंदी का प्रयोग कितना करते हैं, इसी से तय होगा कि उसे राष्ट्र और परराष्ट्र में उसका उचित स्थान मिलेगा या नहीं|
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