R Sahara, 8 June 2003 : विश्व हिंदी सम्मेलन का सम्मान स्वीकार करना कितना भारी पड़ रहा है| औपचारिक सम्मानों और पुरस्कारों के प्रति यों ही मेरे मन में वितृष्णा का भाव रहा है| फिर हिंदी के नाम पर सम्मान लेना तो बहुत ही असमंजसकारी है| जिस भाषा का राज-काज में निरंतर अपमान होता हो, उस भाषा के नाम पर सम्मान कैसे ले लें| सम्मान समिति के तीन सदस्यों ने जब मुझे फोन किया तो मैंने उन्हीं अपनी स्वत:स्फूर्त प्रतिक्रिया बताई| तीनों ने कहा कि यदि आपने सम्मान अस्वीकार किया तो सम्मेलन की अप्रतिष्ठा होगी और उन लोगों की भी, जिन्होंने सर्वसम्मति से आपका नाम सहर्ष पारित किया| भारी मन से मैंने हॉं भरी| हां भरने के बावजूद मैं सम्मान लेने सूरीनाम कतई नहीं जाता| अमेरिका में व्याख्यान-यात्रा का कार्यक्रम दो माह पहले से बना हुआ था| केवल पॉंच घंटे की अतिरिक्त उड़ान लेने की बात थी| सो मयामी से जहाज पकड़कर पारामरिबो आ गया हॅूं| सम्मेलन का उद्घाटन भी हो गया| विदेश राज्यमंत्री दिग्विजय सिंह का भाषण अच्छा हुआ| भाषण से क्या होता है? विदेश मंत्रालय का कौनसा काम हिंदी में होता है? भाषण तो अटलजी से अच्छा कौन देता है लेकिन पॉंच साल में हिंदी कितनी आगे बढ़ी? सरकार की भाषा आज भी अंग्रेजी ही है| विश्व हिंदी सम्मेलन का उद्रघाटन भी अंग्रेजी में ही हुआ| सूरीनाम के अश्वेत राष्ट्रपति वेनेत्सियान हिंदी कैसे बोलते? बोलते तो प्रधानमंत्री देवेगौड़ा की तरह रोमन में लिखकर बोलते लेकिन नेताओं को इतना डर कहॉं है? सवाल यह है कि भाषा और साहित्य के मामले में भी नेताओं को हम सिर पर क्यों बिठा लेते हैं?
यदि नेताओं को हम अपनी लकीर पर चलने के लिए प्रेरित या विवश कर सकें तब तो ऐसे सम्मेलनों में उन्हें बुलाना ठीक है, वरना उनकी उपस्थिति के कारण गरीबी में आटा गीला होता है| सूरीनाम की सबसे बड़ी हिंदी सेविका इंदिरा ज्वालाप्रसाद की अनुपस्थिति बहुतों को खटक रही थी| इंदिराजी यहॉं की लोकसभाध्यक्ष भी रही हैं| आजकल वे प्रतिपक्ष में हैं| इसीलिए उनकी उपेक्षा हो रही है| कई सूरीनामी मित्रों में मुझसे कहा कि यह मामला मैं उठाऊं| मैंने राष्ट्रपति वेनेत्सियान और प्रधानमंत्री रत्नकुमार अयोध्या से पूछा तो वे बगलें झांकने लगे| हिंदी पर राजनीति हावी है| हम भी कम नहीं हैं| प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित करनेवाले मधुकरराव चौधरी और लल्लनप्रसाद व्यास हमारे बीच में अब भी हैं लेकिन उन्हें किसी ने नहीं पूछा| इस सम्मेलन में हिंदी के अनेक दिग्गज आए हुए हैं लेकिन वे कहीं इधर-उधर उपेक्षित बैठे हुए हैं| उन्हें विदेश मंत्रालय के अफसर जानते ही नहीं| सम्मेलन के असली आयोजक वे ही हैं| समझ नहीं आ रहा कि यह कैसा सम्मेलन है? मेले-ठेले की दृष्टि से यह पिछले सम्मेलनों के मुकाबले ठीक-ठाक है लेकिन कुल मिलाकर सभी लोग पूछ रहे हैं कि इन सम्मेलनों का उद्देश्य क्या है? अभी तक जितने भी सम्मेलन हुए, उनकी ठोस निष्पत्ति क्या है? 27 साल में अनेक प्रस्ताव पारित हुए लेकिन आज तक उनमें से एक भी लागू नहीं हुआ| अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय आजकल अनाथ है और पहले भी वह लंगड़ाता ही रहा| इसी प्रकार मोरिशस स्थित अंतरराष्ट्रीय सचिवालय सिर्फ कागज पर बना हुआ है| संयुक्तराष्ट्र में हिंदी के लिए नारेबाजी चल रही है लेकिन आश्चर्य है कि राष्ट्र में तो हिंदी को हम मान्यता नहीं देते और संयुक्तराष्ट्र में उसे मान्यता दिलाने के लिए करोड़ों खर्च करना चाहते हैं| यह सम्मेलन उन सब देशों की सरकारों से, जिनमें हिंदीभाषियों की संख्या करोड़ों और लाखों में है, यह क्यों नहीं पूछता कि आपने हिंदी को गुलाम-भाषा क्यों बना रखा है? उसके गुलाम-दर्जे को खत्म करने के लिए क्या कर रहे हैं? सम्मेलन अभी शुरू ही हुआ है| देखें, आगे-आगे क्या होता है?
पिछले हफ्ते लद्दाख जाना हुआ, सिंधु-दर्शन के लिए| सिंधु नदी भारत में बहती है, यह बहुत कम लोगों को पता था| सब यही समझते थे कि बंटवारे के बाद वह पाकिस्तान में चली गई| तीन हजार कि.मी. लंबी सिंधु मानसरोवर से निकलती है और सिर्फ 4-5 सौ कि.मी. भारत में बहती है| वास्तव में सिंधु और वक्षु को जोड़कर देखा जाए तो चीन (तिब्बत), भारत, ताजि़किस्तान, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और उज़बेकिस्तान के कई हिस्सों को ये नदियॉं स्पर्श करती हैं|
ये आर्य सभ्यता की जननी हैं| ये बहुराष्ट्रीय नदियॉं हैं| इन्हें तीर्थ के रूप में चित्र्िात करने और वहां प्रतिवर्ष उत्सव का आयोजन करने का श्रेय श्री लालकृष्ण आडवाणी और पांचजन्य के संपादक तरुण विजय को है| इस बार देश भर से पॉंच हजार लोग लेह (लद्दाख) पहुंचे| साधु-संत, पादरी मिश्नरी, मौलवी-काज़ी सभी पहुंचे| शंकराचार्य ने देश को जाड़ने के लिए चार धाम कायम किए लेकिन वे हिन्दू तीर्थ बने लेकिन आडवाणी, जो तीर्थ कायम कर रहे हैं, वे राष्ट्रीय तीर्थ बनेंगे|
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