सांसदों का वेतन और सुविधाएं बढ़नी चाहिए, इसमें जरा भी शक नहीं है, लेकिन क्या वजह है कि इस बढ़ोतरी की इतनी निंदा हो रही है? क्या कारण है कि स्वयं सरकार भी स्थायी समिति के सुझाव को नहीं मान रही है और बढ़ोतरी में कंजूसी कर रही है? कौन नहीं जानता कि एक औसत सांसद का रोजमर्रा का खर्च कितना होता है? उसे कम से कम दो घर चलाने होते हैं और सैकड़ों लोगों की चाय-पानी का रोज इंतजाम करना होता है।
दर्जनों लोगों को वेतन देकर सेवा में जुटाना होता है। एक लाख रुपए से अधिक वेतन पाने वाले सरकारी अफसर का दफ्तर का समय 10 से 5 होता है लेकिन सांसद का दफ्तर और घर तो 24 घंटे ही खुले रहते हैं। सरकारी अफसर एक बार नौकरी पर लगा तो फिर 30-40 साल तक उसकी मौज है।
कौन माई का लाल उसे हटा सकता है, जबकि सांसद के तो पांच साल भी पक्के नहीं हैं। संसद कभी भी भंग हो सकती है। उसकी सदस्यता भी भंग हो सकती है। अफसर का सिर्फ एक खसम होता है -सरकार! जनता उसे छू भी नहीं सकती, लेकिन सांसद के दो-दो खसम होते हैं – ऊपर पार्टी और नीचे जनता! वह दो पाटों के बीच पिसता रहता है।
इसके बावजूद सांसदों के वेतन और सुविधाओं की बढ़ोतरी पर लोग नाखुश क्यों हैं? इसका सबसे पहला कारण तो यह है कि सांसद अपना वेतन खुद ही बढ़ा रहे हैं। यह ऐसा ही है जैसे कोई न्यायाधीश अपने ही केस में खुद ही फैसला देने लगे। अगर वह बिल्कुल सही-सही फैसला देगा तो भी लोग उस पर शक करेंगे। संसद में शोर मचाना और उसे ठप करना कई बार जरूरी हो जाता है, लेकिन यही काम अपने फायदे के लिए करना शुद्ध बेशर्मी-सा मालूम पड़ता है।
यदि हमारे माननीय सांसद किसी ‘मानदेय और सुविधा आयोग’ की मांग करते, जैसे कि कई देशों में हैं तो इसका कौन बुरा मानता? कुछ देर जरूर लगती, लेकिन उसके सुझाव पुरानी तारीख से भी लागू हो सकते थे। हो सकता है कि आयोग हमारे सांसदों को, वे जितना मांग रहे हैं, उससे कुछ ज्यादा ही दे देता। आयोग की स्थापना तो अब भी आवश्यक है ताकि पांच-दस साल बाद हमारी संसद को बेशर्मी के इस दौर से दुबारा न गुजरना पड़े। सांसदों ने ज्यों ही हल्ला बोला तो आम आदमियों को पहली बार पता चला कि अरे, उनके प्रतिनिधि तो इतने सरकारी ठाठ-बाट से रहते हैं।
कितने मतदाता दिल्ली आते हैं और सांसदों के रहन-सहन को निकट से देखते-परखते हैं। संसद में हुए हल्ले से उन्हें पता चला कि उनके सांसद जिन फ्लैटों और बंगलों में रहते हैं, उनका किराया लाखों रुपए प्रतिमाह है, लेकिन उन्हें वे मुफ्त में मिले हुए हैं। बिजली, पानी, फोन, चिकित्सा आदि लगभग मुफ्त हैं। संसद भवन का भोजन कौड़ियों के मोल मिलता है। रेल की सर्वोच्च श्रेणी की असीमित और जहाज की भी 32 यात्राएं मुफ्त! इसके अलावा अनेक अदृश्य सुविधाएं भी उन्हें मुफ्त में मिली होती हैं।
सरकारी कर्मचारी को 30-40 साल की नौकरी के बाद पेंशन मिलती है। यहां तो पांच साल भी पूरे न हों तो भी पेंशन का प्रावधान है। इन तथ्यों ने आम जनता को चौंका दिया। लेकिन इसमें नया कुछ नहीं है। दुनिया के ज्यादातर देशों के सांसदों को इससे भी ज्यादा सुविधाएं मिली हुई हैं। लेकिन लोग इसलिए चिढ़ गए कि ये औपचारिक वेतन और सुविधाएं तो सिर्फ दिखाने के दांत हैं। खाने के दांत तो बड़े लंबे और नुकीले हैं। खाने के दांत मतदाताओं के ज्यादा निकट होते हैं।
वे सांसद महोदय को देखते हैं, उनके निर्वाचन क्षेत्र में उनके नए-नए महलों को देखते हैं, उनके मोटरों के काफिलों को देखते हैं, उनके रिश्तेदारों और मित्रों की नई-नई दुकानों को देखते हैं, मोटे होते जा रहे उनके देसी और विदेशी बैंक-खातों को देखते हैं। ऐसे में वे पूछते हैं कि इतना सब होते हुए भी ये सांसद लोग सरकारी खजाने को लूटने पर आमादा क्यों हैं? साढ़े पांच सौ सांसदों में से 300 तो करोड़पति हैं। लखपति से नीचे शायद ही कोई सांसद हो। कागज पर हो सकते हैं, असलियत में नहीं।
जो संपत्ति और आमदनी सांसद लोग घोषित करते हैं, वह तो उनकी मजबूरी है। उसे वे छिपा नहीं सकते। लेकिन सबको पता है कि घोषित के मुकाबले अघोषित राशि कई गुना होती है। ऐसे में मेरा विनम्र सुझाव है कि सांसदों का वेतन कम से कम दो लाख रुपए प्रतिमाह कर दिया जाए और उनकी सारी सुविधाएं और विशेषाधिकार समाप्त कर दिए जाएं। ऐसा करने से सरकारी सुविधाओं के निरंकुश उपयोग की उनकी आदत पर लगाम लगेगी और वे साधारण लोगों की तरह जीने के लिए मजबूर हो जाएंगे।
इससे उनका भी लाभ होगा। उनका अहंकार घटेगा और वे अपनी जनता के ज्यादा निकट रह सकेंगे। इसके अलावा जिस सांसद की जितनी भी घोषित आमदनी हो, उतनी राशि इस दो लाख की राशि में से काट ली जाए। अनेक सांसद ऐसे होंगे, जिन्हें वेतन के तौर पर एक पैसा भी नहीं मिलेगा। नेतागीरी कोई नौकरी या धंधा नहीं है। किसी भी सांसद को दो लाख रुपए प्रति माह से ज्यादा क्यों खर्च करना चाहिए, वह यह बताए। 80 करोड़ लोग जिस देश में 20 रुपए रोज पर गुजारा कर रहे हैं, उसमें उनके प्रतिनिधि को प्रतिनिधि ही रहने दें, डकैत क्यों बनाए? इतना ही काफी नहीं।
हर चुनाव-क्षेत्र में पांच लोगों की एक समिति भी बनाई जाए, जिसका काम सांसदों, विधायकों और पार्षदों की चल-अचल संपत्ति पर निगरानी रखना हो। इस समिति में एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश या वकील, एक वरिष्ठ पत्रकार, एक समाजसेवी, एक प्रतिष्ठित नेता और व्यावसायिक व्यक्ति को भी रखा जा सकता हैं। भ्रष्ट जनप्रतिनिधियों की ‘वापसी’ का भी संवैधानिक प्रावधान हो। सांसदों और अफसरों के वेतन की तुलना तो लोकतंत्र का अपमान है। क्या पैसा ही तय करेगा कि कौन बड़ा है?
यदि पैसे से ही सामाजिक और राजनीतिक हैसियत तय होती तो देश के हजारों करोड़पतियों और कुछ अरबपतियों के मुकाबले बेचारे नेहरू, नंदा और शास्त्री जैसे प्रधानमंत्रियों की कुछ हैसियत होती ही नहीं। पता नहीं हमारे सांसद स्वयं को नौकरों की श्रेणी में क्यों उतार देना चाहते हैं? सिर्फ पैसे की खातिर मालिक नौकर क्यों बनना चाहता है? हमारे सांसद यह क्यों नहीं समझ पा रहे कि अफसरों से एक रुपया ज्यादा मांगकर वे कितना खतरनाक संदेश सारे देश को दे रहे हैं।
अफसरों को तो वेतन मिलता है, लेकिन सांसदों को जो दिया जाए, उसे ‘मानदेय’ कहा जाना चाहिए। जब तक राजनीति से पैसे की हवस खत्म नहीं की जाएगी, भ्रष्ट लोगों को राजनीति में आने से आप रोक नहीं सकेंगे। कोई ऐसी तरकीब निकालिए कि राजनीति खाला का घर न बने, तलवार की धार बन जाए! लालची आदमी राजनीति को दूर से ही नमस्कार करने लगें।
– लेखक प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक हैं
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