राष्ट्रीय सहारा, 23 जून 2005 : वोट की राजनीति जो भी करतब दिखाए, कम है| स्वतंत्र भारत में मज़हब के नाम पर आरक्षण दिया जाए, यह काबे में कुफ्र से कम नहीं| भारत का संविधान खुद को पंथ-निरपेक्ष या मज़हब-निरपेक्ष कहता है| इसीलिए अभी तक हर तरह के आरक्षण दिए गए लेकिन ‘महासेक्यूलर’ कम्युनिस्ट सरकारों की भी हिम्मत नहीं पड़ी कि वे मज़हब के नाम पर स्कूलों, कालेजों और सरकारी दफ्तरों में कुछ लोगों के लिए लाल गलीचे बिछा दें और कुछ लोगों के लिए दरवाजे बंद कर दें| आंध्र की कांग्रेस सरकार ने यह कमाल भी कर दिखाया है|
आंध्र सरकार ने शिक्षा संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को पांच प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की है| मुख्यमंत्री वाय.एस. राजशेखर रेड्डी का तर्क है कि आंध्र की कुल जनसंख्या में मुसलमानों का प्रतिशत 9.2 है| यदि सवा नौ प्रतिशत लोगों को कुल नौकरियों में पांच प्रतिशत स्थान दे दिए गए तो कौनसा अन्याय हो गया है? आज आंध्र की ऊंची नौकरियों और शिक्षा के उच्च स्तरों में उनका प्रतिशत दो या तीन भी नहीं है| गांवों में रहनेवाले आधे से ज्यादा मुसलमान बेघर और बेज़मीन हैं| मुश्किल से 10-12 प्रतिशत मुसलमान ऐसे हैं, जिनके पास गुजारे लायक तीन-चार एकड़ ज़मीन है| ज्यादातर मुसलमानों का रोज़मर्रा का खर्च 10 रु. भी नहीं है| ऐसी भयंकर गरीबी और अशिक्षा में रहनेवाले नागरिकों को आरक्षण देना क्या राज्य का कर्तव्य नहीं है? उनके उद्घार में क्या सिर्फ इसीलिए दिलचस्पी न ली जाए कि वे मुसलमान हैं? अगर पिछड़ों और अनुसूचितों को आरक्षण दिया जा सकता है तो मुसलमानों को क्यों नहीं दिया जा सकता?
अगर इंसानियत के लिहाज़ से देखा जाए तो आंध्र सरकार के तर्कों में काफी दम मालूम पड़ता है| वह राज्य ही क्या है, जो अपने सबसे कमज़ोर, सबसे जरूरतमंद और सबसे बेजुबान नागरिकों की तरफ ध्यान न दे? लेकिन यहां असली प्रश्न यही है कि क्या आरक्षण का मज़हबी आधार ढूंढते वक़्त आंध्र सरकार ने अपनी दृष्टि केवल कारुणिक रखी है या राजनीतिक रखी है? यदि नई आरक्षण नीति का आधार केवल करुणा है तो इससे बढ़कर क्रांतिकारी कार्य क्या हो सकता है? जो काम स्वतंत्र भारत में किसी सरकार ने नहीं किया, वह रेड्डी-सरकार ने कर दिखाया| वह बधाई की पात्र होनी चाहिए लेकिन उसके निर्णय ने देश के राजनीतिक विचारकों के कान खड़े कर दिए हैं| अपने मज़हबी आरक्षण की रक्षा वह अदालत में कर पाएगी या नहीं, यह भविष्य बताएगा लेकिन फिलहाल सारे देश की पेशानी पर उसने चिंता की लकीरें खींच दी हैं|
पहला प्रश्न तो यही है कि यदि सिर्फ गरीबों की ही पहचान करनी है तो वह सिर्फ गरीबी के आधार पर ही क्यों न की जाए? मज़हब के आधार पर क्यों की जाए? मज़हब और गरीबी का घालमेल क्यों किया जाए? क्या कोई व्यक्ति इसीलिए गरीब होता है कि वह मुसलमान है? यदि यह सत्य है तो यह बड़ा खतरनाक सत्य है| वास्तव में यह झूठ है लेकिन अगर इसे सत्य मान लें तो इससे यह तर्क निकलेगा कि गरीबी से छुटकारा पाना हो तो मुसलमान मुसलमान न रहे| इससे बढ़कर मूर्खतापूर्ण तर्क क्या हो सकता है? मुसलमान को आरक्षण दें तो फिर ईसाई, सिख, बौद्घ और जैन को क्यों न दें? मुसलमानों में जो एकदम गरीब जातियां हैं, जैसे दूदेकुला, लद्दाफ, पिंजारा, नूरबाश और मेहतर आदि, उन्हें आंध्र सरकार ने पहले ही आरक्षण दे रखा है| यदि इसी तरह कुछ अन्य समूह मुसलमानों में खोज लिए जाते और उन्हें भी आरक्षण दे दिया जाता तो कोई आपत्ति नहीं होती लेकिन मज़हब के नाम पर आरक्षण देने में शुद्घ राजनीति की बू आती है|
आंध्र के 70 लाख मुसलमानों को इस आरक्षण से कौनसा लाभ मिलने वाला है? एक साल में मुश्किल से उन्हें दो-ढ़ाई सौ नौकरियां मिल सकती हैं| यदि आंध्र सरकार में मानो 5 हजार नौकरियां हर साल निकलें तो उसका पांच प्रतिशत कितना हुआ? 250 नौकरियां ! सिर्फ 250 नौकरियां और उनके बदले 70 लाख लोगों पर यह ठप्पा कि तुम सांप्रदायिक हो| तुम्हें साम्प्रदायिक आधार पर सरकार नौकरियां दे रही है और अब इसी सांप्रदायिक आधार पर प्राइवेट सेक्टर तुम्हारा हुक्का-पानी बंद करता है| देखा, सरकारी करुणा का परिणाम क्या होगा? मुलसमानों की घेराबंदी हो जाएगी| मुसलमानों का शिक्षा-स्तर जैसा है, ऊंची नौकरियों में उनके उम्मीदवार तक नहीं मिलेंगे| किसी रिक्शाचालक को केवल इसीलिए पायलट नहीं बनाया जा सकता कि वह मुसलमान है| आंध्र के 70 लाख मुसलमानों को इस आरक्षण से तिल के बराबर भी फायदा नहीं होगा लेकिन नेतागण इसी तिल को अपने लिए ताड़ बना लेना चाहते हैं| वे 250 नौकरियों की गाजर लटकाकर 70 लाख वोटों की झड़ी लगाना चाहते हैं| फायदे में कौन रहा? मुसलमान या वोटों का सौदागर? मुसलमानों का यदि वास्तविक उद्घार कोई करना चाहता हो तो उनके बच्चों के लिए शतप्रतिशत शिक्षा और यथासंभव सबके स्वरोजगार का प्रबंध राज्य द्वारा किया जाना चाहिए|
आंध्र की कांग्रेस सरकार ने जो दांव मारा है, उसके कारण उसकी कुर्सी तो पक्की हो सकती है लेकिन भारतमाता के सिंहासन में दरारें भी पड़ सकती हैं| यदि मज़हबी आधार पर शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण सही है तो फिर विधानसभाओं और संसद में भी क्या सही नहीं है? और यदि उनमें सही है तो पूरे देश में भी सही क्यों नहीं है? देश के किसी खास भू-भाग में भी सही क्यों नहीं है? अगर व्यावसायिक आरक्षण दिया जा सकता है तो भौगोलिक आरक्षण क्यों नहीं दिया जा सकता? याने कुछ और छोटे-बड़े पाकिस्तान क्यों नहीं खड़े कर दिए जा सकतें? क्या 1916 के लखनऊ-समझौते से हम कोई सबक नहीं लेंगे? आंध्र में तो केवल 9 प्रतिशत हैं, कई राज्यों में मुसलमानों का प्रतिशत लगभग दुगुना है| मज़हबी आधार पर रेवडि़यां बंटने लगीं तो पूरा देश ही बंट जाएगा| भारतीय राजनीति अभी अपने जातिवाद के घावों को ही नहीं सहला पा रही है, अब दुबारा भारत-विभाजन के ये सांप्रदायिक तम्बू क्यों ताने जा रहे हैं? बेचारे मुसलमानों को अपनी तोप का भूसा क्यों बनाया जा रहा है? उनकी एक टांग पहले से टूटी हुई है| अब दूसरी भी तोड़कर उन्हें आरक्षण की स्थायी बैसाखियां क्यों पकड़ाई जा रही हैं?
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