नवभारत टाइम्स, 25 नवम्बर 2004: लगता है कि शंकराचार्य के मामले में हमारे नेता गच्चा खा गए। वे जनता का मूड भॉंप नहीं पाए। हिन्दुत्ववादियों से लेकर समाजवादियों और सेक्यूलरवादियों तक सभी ऑंसुओं की गंगा में नहा रहे हैं। जो चुप थे, वे भी बोल पड़े। कहीं भाजपा हिन्दू वोटों की फसल अकेली न काट ले जाए, इस डर ने सभी दलों की घिग्घी बॉंध दी। कोई कह रहा है, शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती को मध्य-रात्रिा में गिरफ्तार किया, अच्छा नहीं किया, कोई कह रहा है कि उन्हें गिरफ्तार किए बिना भी उनसे पूछताछ की जा सकती थी, कोई कह रहा है कि वे इतने बड़े आदमी हैं, वे चोरी-छिपे नेपाल कैसे भाग जाते, कोई कह रहा है कि शंकराचार्य की जगह कोई इमाम या पादरी होता तो क्या सरकार उस पर हाथ डाल सकती थी, कोई कह रहा है कि जब नेताओं को गिरफ्तारी के बाद सर्किट हाउसों में रखा जा सकता है तो शंकराचार्य को क्यों नहीं रखा जा सकता था, कोई कह रहा है कि धर्माचार्यों की गिरफ्तारी के लिए अलग से कानून बनना चाहिए, कोई कह रहा है कि उनकी उम्र और पद का ध्यान रखा जाए, कोई कह रहा है कि यह सब कुछ जयललिता ने इसलिए किया है कि वे गैर-ब्राह्मणों के वोट कबाड़ना चाहती हैं और अब करुणानिधि, जो कल तक गिरफ्तारी को उचित बता रहे थे, अबकह रहे हैं कि यह जयललिता और जयेन्द्र सरस्वती के आपसी बेबनाव की फलश्रुति है। प्रकारान्तर से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा सभी दलों ने स्वयं को दया का पात्रा बना लिया है। अगर उनका वश चले तो वे भाजपा से भी ज्यादा रंगीन नौटंकी रचकर दिखाऍं। भारत के आम आदमी की नज़र में हमारे राजनीतिक दलों का नैतिक दीवालियापन जितना शंकराचार्य के बहाने उजागर हुआ है, शायद पहले कभी नहीं हुआ।
क्या वजह है कि ‘भारत बंद` बिल्कुल विफल हो गया? क्या भारत में हिन्दू नहीं रहते? क्या यह हिन्दुओं का देश नहीं रहा? क्या यहॉं अब हिन्दुओं का बहुमत समाप्त हो गया है? भारत-बंद उन प्रांतों और उन चुनाव-क्षेत्राों में भी सफल नहीं हुआ, जहॉं भाजपा प्रचंड बहुमत से जीती है। क्या भारत के हिन्दुओं को पता नहीं कि जयेन्द्र सरस्वती कौन हैं और आज किस दशा में हैं? भारत की बात जाने दें, तमिलनाडु भी बंद नहीं हुआ। जिस कॉंची कामकोटिपीठ के वे अधिपति हैं और जहॉं अप्रतिम मानव-सेवा के पचास वर्ष उन्होंने बिताए, वहॉं भी शांति का साम्राज्य है। इन तथ्यों का निष्कर्ष क्या है? क्या यह नहीं कि आम जनता शंकराचार्य के मामले को जिस नज़र सेदेख रही है, वह वो नहीं है, जो नेताओं की है। नेताओं और जनता की नज़र में यह खाई क्यों है? जनता इसे अपनी नज़र से देख रही है और नेता अपनी से ! आम आदमी गहरे सदमे में है लेकिन वह यह सोचता है कि शंकराचार्य की जगह वह होता तो क्या ये नेतागण इतनी उछल-कूद मचाते? आम आरोपी की तो पूरी जिंदगी ही हिरासत में बीत जाती। उधर नेतागण सोचते हैं कि शंकराचार्य तो हमसे भी ऊॅंचे हैं। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्राी भी उनके आगे नाक रगड़ते हैं। अगर गिरफ्तारी से हम-जैसे लोग बच निकलते हैं तो शंकराचार्य को कैसे फॅंसा लिया गया। अर्थात् मामला सजातीय है। हम भी सत्ताधारी और वे भी सत्ताधारी,। मौसेरे भाई ! हम एक दूसरे की रक्षा क्यों नहीं करेंगे? यहॉं मामला उचित-अनुचित का नहीं है, शुद्ध पारस्परिकता का है। राजनीति का अपराधीकरण तो हो ही चुका है, अब धर्म का भी अपराधीकरण होने दीजिए। अब मॉंग हो रही है कि (जैसे नेताओं को अपने आप छूट मिल जाती है वैसे ही) धर्माचार्यों को कानूनन छूट मिले। लोकतंत्रा का इससे बड़ा मज़ाक क्या हो सकता है। शंकराचार्य के बहाने सामंतवाद की जड़ों को सीचा जा रहा है। गैर-बराबरी को नए आयाम प्रदान किए जा रहे हैं। अपराध को समाज में सम्मान्य बनाया जा रहा है।
भाजपा ने ऐसा दॉंव मारा है कि सभी दल चित हो गए हैं। उसे तो निराशा के अंधकार में अचानक एक लाठी हाथ लग गई। शंकराचार्य की लाठी पकड़कर वह चुनाव की वैतरणी पार करना चाहती है। उसकी यह गुप्त कामना पूर्ण हो सकती है बशर्ते कि शंकराचार्य का मामला जल्दी ही रफ़ा-दफ़ा हो जाए। यदि मामला लंबा खिंच गया और शंकराचार्य दोषी पाए गए तो मानकर चलिए कि भाजपा का बेड़ा गर्क हो जाएगा। इस अर्थ में भाजपा ने बड़ा खतरनाक जुआ खेला है। उसने एक अपराध-प्रसंग को राजनीतिक लहर बनाने की कोशिश की है। यह कलंक भाजपा के माथे पर टीके की तरह सदा टिका रह जाएगा। कई वर्षों बाद भाजपा पश्चाताप करेगी लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी होगी। भाजपा यह समझ नहीं पा रही कि जयेन्द्र सरस्वती के व्यक्तिगत मामले को हिंदुत्व का मामला बनाना भारत के हिंदुओं को बदनाम करना है। उनके दिमागों में अल्पसंख्यक मनोवृत्ति उत्पन्न करना है। यदि जयललिता हिंदू और ब्राह्मण नहीं होती तो शायद भोली जनता पर भाजपा का जादू चल जाता। यों भाजपा सावधान है। उसने यह नहीं कहा कि शंकराचार्य निर्दोष हैं। वह केवल यह कह रही है कि उनके साथ बर्ताव अच्छा किया जाना था। अच्छा बर्ताव याने क्या? क्या उनके साथ वह बर्ताव किया गया है, जो भारत के अन्य हजारों-लाखों अपराधियों के साथ किया जाता है? क्या उन्हें हथकड़ियॉं पहनाई गईं? क्या उन्हें मारा-पीटा गया, मजबूर किया गया? नहीं। तो फिर इतनी नौटंकी किसलिए? क्या इस नौटंकी से कानून की प्रक्रिया प्रभावित नहीं होगी? भाजपा अपने आचरण से कौनसा उदाहरण उपस्थित कर रही है? भाजपा जो कुछ कर रही है, उससे शंकराचार्य के अपमान के कोढ़ में खाज पैदा हो गई है। शंकराचार्य यदि निर्दोष सिद्ध हुए तो भी पूछा जाएगा कि उसके पीछे कहीं राजनीतिक दबाव तो नहीं था?
जहॉं तक शंकराचार्य का सवाल है, उनका आचरण किसी भी साधारण आरोपी की तरह हैं। उन्होंने कोई नौटंकी नहीं की। यह प्रशंसनीय है लेकिन प्रश्न यह भी है कि क्या उनका आचरण किसी महान धर्माचार्य की तरह है? यदि आप संन्यासी हैं तो आप तो पहले ही संसार छोड़ चुके। अब आपके अबोध स्वयंसेवक आपके विशेषाधिकारों के लिए चिल्ल-पों मचा रहे हैं तो आपने उन्हें फटकारा क्यों नहीं? आप पहले धर्मध्वजी या संत नहीं, जिनके लिए ज़हर का प्याला तैयार किया जा रहा है। सुकरात और ईसामसीह भी इसी तरह के चक्र-व्यूह में फॅंसे थे लेकिन देखिए कि उनकी प्रतिक्रिया क्या थी। बात बहुत सीधी-सादी है। शंकररामन की हत्या में या तो आपका हाथ है या नहीं है। यदि हाथ है तो ठीक है। अदालत उसमें क्या करेगी? आप क्यों झूठी सफाइयॉं पेश करें? जगत्गुरू होकर आप हाथ बॉंधे हुए मजिस्ट्रेट के आगे क्यों घिघियाऍं? साफ़-साफ़ अपना जुर्म कुबूल करें और कहें कि आप भी मनुष्य हैं। क्रोध के वशीभूत हो गए। विवेक नष्ट हो गया। शंकररामन को मरवा दिया। उसकी सज़ा मजिस्ट्रेट क्या देगा, ये हम खुद देंगे खुद को ! यह जन्म नष्ट हुआ। अगला जन्म सुधारेंगे। यदि मजिस्ट्रेट आपको बचा भी लेगा तो कर्मफल से कैसे बचेंगे? अगले जन्म में तो कीड़े-मकोड़े या शूकर की योनि मिलेगी। नरक में क्यों जाऍंगे? इस जन्म की बदनामी रौरव नरक से भी भयानक है। अब और कितने नरक भुगतेंगे? यदि शंकराचार्य इतनी हिम्मत करें तो वे सचमुच अध्यात्म-पुरुष कहलाऍंगे। और यदि वे निर्दोष हैं तो उन्हें अपनी गिरफ्तारी का इतना प्रचंड प्रतिकार करना था कि भारत ही नहीं, सारा संसार थर्रा उठता। वे कह सकते थे कि प्राणोत्सर्ग ही मेरा प्रतिकार है। यदि वे यह घोषणा कर देते तो जयललिता सरकार अभी तक सूखे तिनके की तरह उड़ गई होती। इसमें शक नहीं कि जयललिता की अपनी राजनीति है लेकिन राजनीतिक लोग कितने हिसाबी और कितने डरपोक होते हैं, यह सबको पता है। अगर श्री जयेन्द्र सरस्वती, शंकराचार्य की तरह पेश आते तो हिन्दुत्व की प्रतिष्ठा में चार चॉंद लग जाते लेकिन आज हिन्दुत्व पर काले बदले घिर आए हैं। यह ठीक है कि पोपों और खलीफाओं के पदों की तरह शंकराचार्य के पद पर अभी तक काला कीचड़ नहीं उछला था लेकिन अब जो उछल चुका है, उसकी सफाई न अदालत से हो सकती है और न ही राजनीतिक नौटंकी से ! शंकराचार्य को न अदालत बचा सकती है और न नेतागण ! शंकराचार्य को केवल शंकराचार्य ही बचा सकते हैं।
Leave a Reply