राष्ट्रीय सहारा, 10 फरवरी 2009 : राम के नाम पर यह कैसा काम ? लड़के पिएँ तो कुछ नहीं और लड़कियाँ पिएँ तो हराम ! पब से सिर्फ लड़कियों को पकड़ना, घसीटना और मारना-इसका मतलब क्या हुआ ? क्या यह नहीं कि हिंसा करनेवालों को शराब की चिंता नहीं है बल्कि लड़कियों की चिंता है| वे शराब विरोधी नहीं हैं, स्त्री-विरोधी हैं| यदि शराब पीना बुरा है, मदिरालय में जाना अनैतिक है, भारतीय सभ्यता का अपमान है तो क्या यह सब तभी है, जब स्त्रियाँ वहाँ जाएँ| यदि पुरूष जाएँ तो क्या यह सब ठीक हो जाता है ? इस पुरूषवादी सोच का नशा अंगूर की शराब के नशे से ज्यादा खतरनाक है| शराब पीकर पुरूष जितने अपराध करते हैं, उससे ज्यादा अपराध वे पौरूष की अकड़ में करते हैं| इस देश में पत्नियों के विरूद्घ पतियों के अत्याचार की कथाएं अनंत हैं| कई मर्द अपनी बहनों और बेटियों की हत्या इसीलिए कर देते हैं कि उन्होंने गैर-जाति या गैर-मज़हब के आदमी से शादी कर ली थी| जीती हुई फौजें हारे हुए लोगों की स्त्रियों से बलात्कार क्यों करती हैं ? इसीलिए कि उन पर उनके पौरूष का नशा छाया रहता है| मेंगलूर के तथाकथित राम सैनिक भी इसी नशे के शिकार हैं| उनका नशा उतारना बेहद जरूरी है| स्त्री-पुरूष समता का हर समर्थक उनकी गुंडागीरी की भर्त्सना करेगा|
यह सुखद संयोग है कि भाजपा ने इस गुंडागीरी की कड़ी भर्त्सना की है| कर्नाटक के मुंख्यमंत्री येदियुरप्पा ने भी कठोर कानूनी कार्रवाई की घोषणा की है| ‘राम सैनिकों’ और उनके नेताओं का भाजपा या संघ परिवार से कोई संबंध है या नहीं, इस बात की परवाह किए बिना भाजपा ने जो दो-टूक रवैया अपनाया है, उसे साहसिक ही कहा जाएगा ? कई सुधिजन पूछ रहे हैं कि आखिर भाजपा ने इतना साहसिक रवैया कैसे अपना लिया ? इसका रहस्य क्या है ? शायद यह है कि भाजपा देश के नौज़वान मतदाताओं को नाराज़ नहीं करना चाहती| भाजपा का वयोवृद्घ नेतृत्व चुनाव के इस मौसम में देश के अधिकांश मतदाताओं को नाराज़ करने का खतरा मोल क्यों ले ? कर्नाटक के काँग्रेसी नेताओं ने पब-कांड को पहले ही दिन इतना उछाल दिया कि वह अखिल भारतीय मुद्दा बन गया| हमारे टीवी चैनल इतने ‘सरस’ मामले को चाशनी में लपेट-लपेटकर परोसे चले जा रहे हैं| यदि भाजपा ‘राम सैनिकों’ का पक्ष लेती तो सारे देश में उसकी किरकिरी हो जाती| माना जाता कि वह दादागीरी या गुंडागीरी का समर्थन कर रही है|
यह तर्क ठीक मालूम पड़ता है लेकिन नौजवान मतदाताओं के डर के मारे उसने यह रवैया अपनाया है, यह तर्क अजीब-सा है| क्या हमारे ज्यादातर नौजवान शराबी हैं ? क्या वे मदिरालय जाने के आदी हैं ? क्या शहरी ‘पबों’ में मौज-मस्ती करने के लिए उनके पास पर्याप्त पैसा होता है ? जिस देश के 80 करोड़ लोग 40-50 रू. रोज पर गुजारा करते हों, उस देश के नौजवान पश्चिमी शैली के भटियारखानों (पबों) में क्या हजारों रू. खर्च कर सकते हैं ? भारत में कितने माता-पिता ऐसे हैं, जो अपने जवान लड़के-लड़कियों को मैखाने में जाने देते होंगे ? सारे भारत में ऐसे स्वच्छंद युवक-युवतियों की संख्या दो-चार लाख भी नहीं होगी| ये कुछ लाख मतदाता क्या किसी पार्टी को चुनाव जिता या हरा सकते हैं ? कतई नहीं| ऐसे लोग प्राय: वोट डालने ही नहीं जाते| उनके डर के मारे कोई पार्टी अपना रवैया निर्धारित क्यों करेगी ?
पबों की सैर करनेवाले तो खुद काफी डरे हुए लोग होते हैं| वे अपना काम छिप-छिपाकर करते हैं| पुराने मैखानों में जो नहीं होता था, वह अब आधुनिक पबों में होता है| पबों में क्या नहीं होता ? पबों में जो कुछ होता है, अगर वह उनके बाहर किया जाए तो पबों के मालिक और ग्राहक, दोनों ही अंदर हो जाएँगे| पब का मतलब होता है, पब्लिक हाउस लेकिन भारत में उसकी गतिविधियाँ प्राइवेट होती हैं| पश्चिमी समाज में पब की गतिविधियाँ पब्लिक होती हैं| ‘राम-सैनिकों’ को परेशान होने की यों भी खास जरूरत नहीं है| निजी तौर पर कोई क्या करता है, उसमें टांग अड़ानेवाले आप कौन हैं ? कोई शराब पिए, व्याभिचार करे, अपने पैसे लुटाए, जह़र खाए, कुँए में गिरे, इससे आपको क्या मतलब है ? कानून अपना काम करेगा| जब तक आपका कोई सीधा नुकसान नहीं होता, आप फटे में पांव क्यों फंसाएँ ? आप कानून अपने हाथ में क्यों लें ? मान लें कि पब में कोई अनैतिक गतिविधि चल रही है और आप उसका विरोध करना चाहते हैं तो उसका हथियार गुंडागीरी नहीं है, गांधीगीरी है| धरना, प्रदर्शन, घेराव-वह भी अहिंसक और गरिमामय होंगे तो ही उनका कुछ असर हो सकता है| गुंडागीरी का असर तो यह होगा कि घर-घर में पब खुल जाएँगे|
कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, दोनों इस खतरे के प्रति सजग हैं लेकिन दोनों ने माना है कि पब-संस्कृति को हतोत्साहित करना बहुत जरूरी है| एक मुख्यमंत्री भाजपा के हैं और दूसरे काँग्रेस के ! दोनों जो बात कह रहे हैं, वह संविधान के नीति निदेशक सिद्घांतों की प्रतिध्वनि है| भारत में शराबबंदी के लिए जितने व्यावहारिक कदम उठाए जा सकते हैं, उठाए जाने चाहिए| वास्तव में पब-संस्कृति, पब-अ-संस्कृति है, जिसके कीटाणु सारे देश में फैल सकते हैं| नशे ने अनेक सभ्यताओं, संस्कृतियों और साम्राज्यों को नष्ट कर दिया है| बड़े-बड़े सत्ताधीशों और धनाधीशों को शराब लील गई है| अफसोस है कि हमारे नेताओं और राजनीतिक दलों में इतना नैतिक साहस नहीं है कि वे शराबबंदी का अभियान चलाएँ| वे शराब के पैसे से राज चलाना चाहते हैं| शराब के दम पर ही वे वोटों की फसल उगाहते है| साधनों की शुचिता में उनका ज़रा भी विश्वास नहीं है| ‘राम सेना’ की गुंडागर्दी का तो सभी दल विरोध कर रहे हैं लेकिन शराबबंदी पर कोई भी अपना मुँह नहीं खोल रहा| पब-संस्कृति सिर्फ शराबखोरी ही नहीं बढ़ाती, वह सारे अपराधों की पौध-शाला भी है| पब-संस्कृति शराबखोरी के साथ-साथ समाजिक अकड़ भी पैदा करती है| पब में जानेवाला अपने आपको कलाली में जानेवाले से बहुत अलग और ऊँचा समझता है| कलाली और पब का फर्क वही है, जो ढाबे और रेस्तरां का है| बुराई के इन अड्रडों का समूल-नाश तो मानव इतिहास में कभी नहीं हुआ है लेकिन इन्हें अगर हतोत्साहित और नियंत्रित नहीं किया गया तो भारत के लोकतंत्र्, उसके सामूहिक स्वास्थ्य और उसकी पारिवारिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न होने से रोकना कठिन होगा|
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