नवभारत टाइम्स, 8 सितंबर 2003: एरियल शेरोन के आने पर इतनी हाय-तौबा क्यों मच रही है ? विरोधी दलों के शीर्ष नेता संयुक्त बयान जारी कर रहे हैं और मुस्लिम संगठनों के नेता कह रहे हैं कि वे शेरोन-विरोधी प्रदर्शन करेंगे | शेरोन की तुलना नरेन्द्र मोदी से की जा रही है | कहा जा रहा है कि शेरोन अपनी यात्रा राजघाट से शुरू करें, उससे कहीं अच्छा है कि वे संघ के कार्यालय – झण्डेवालान – से शुरू करें | यह सब क्यों कहा जा रहा है ? शेरोन ने हमारे विपक्षी नेताओं, हमारे मुसलमान संगठनों और हमारे स्तंभकारों का क्या बिगाड़ा है ? ये सब लोग एक विदेशी प्रधानमंत्री के पीछे हाथ धोकर क्यों पड़े हैं ? इसमें शक नहीं कि शेरोन ने इस्राइली फौज के कमांडर की हैसियत से फलस्तीनियों पर जबर्दस्त हमला किया था और अपने हाथ उनके खून से रंगे थे | इधर हम लोग सदा फलस्तीनियों के हमदर्द रहे हैं | इसीलिए शेरोन से सब चिढ़ जाऍं, यह स्वाभाविक है | लेकिन प्रश्न यह है कि जो स्वाभाविक है, क्या वह सही भी है ?
शेरोन ने फलस्तीनी छापामारों को मारा, यह तथ्य है लेकिन क्या हम भूल गए कि 1972 में पाकिस्तान के जनरल जि़या उल हक ने जोर्डन के शाह के इशारे पर सैकड़ों निहत्थे फलस्तीनियों को कत्ल किया था ? युद्घ की स्थिति में कौन किस पर भारी पड़ जाए, पता नहीं चलता | निहत्थे इस्राइलियों की हत्या करने का आरोप हमारे मित्र यासर अराफात पर लगाया जाता है या नहीं? यदि हम अराफात का स्वागत करते रहे हैं तो अब शेरोन का क्यों नहीं ? क्या हमने जनरल परवेज़ मुशर्रफ का स्वागत नहीं किया ? क्या वे करगिल युद्घ के पिता नहीं हैं ? क्या वे सीमा-पार आतंकवाद के जनक नहीं हैं ? क्या हजारों निहत्थे कश्मीरियों और भारतीय फौजियों के खून से मुशर्रफ के हाथ रंगे हुए नहीं थे ? 70 हजार कश्मीरियों को मौत के घाट उतारनेवाले पाकिस्तान के फौजी तानाशाह को राष्ट्र्रपति का ताज किसने पहनवाया ? क्या हमने नहीं ? यह क्या बात हुई कि जिसने हमारे लोगों की हत्या की, उसका हम स्वागत करें और जिसने किन्हीं और लोगों की हत्या की, उसका हम बहिष्कार करें ? इस्राइल और फलस्तीन के अन्दरूनी मामलों में किसकी भूमिका क्या है, इसका हमसे क्या लेना-देना है ? हमें यह देखना चाहिए कि जो प्रधानमंत्री हमारे यहॉं आ रहा है, वह जनता द्वारा चुना गया विधिसम्मत प्रधानमंत्री है या नहीं और कहीं वह भारत-विरोधी तो नहीं है ? अन्तरराष्ट्र्रीय मामलों में नैतिकता का महत्व अवश्य है लेकिन राष्ट्र्रहित सर्वोपरि है | यदि यह सत्य नहीं होता तो स्तालिन का रूस हिटलर के जर्मनी से हाथ क्यों मिलाता? रिबनट्र्रॉप -मोलोतोव समझौता क्यों होता ? और फिर पूंजीवादी अमेरिका और मार्क्सवादी रूस गठबंधन में मित्र क्यों होते ?
जहॉं तक भारत के विरोधी नेताओं का प्रश्न है, क्या भारत के करोड़ों सवर्ण यह नहीं मानते ;जो कि गलत है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह के हाथ सैकड़ों नौजवानों के खून से रंगे हैं ? क्या इस गलत धारणा के आधार पर विश्वनाथजी को अस्पृश्य घोषित कर दिया जाए ? इसी प्रकार मुस्लिम संगठन शेरोन का विरोध करके तोगडि़या के हाथ मजबूत कर रहे हैं | वे इस आरोप को पुष्ट कर रहे हैं कि भारतीय मुसलमानों की निष्ठा का केन्द्र भारत के बाहर है | भारत के मुसलमानों को फलस्तीनियों से क्या लेना-देना है? क्या फलस्तीनी इस्लाम के लिए लड़ रहे हैं ? क्या वे वहॉं इस्लामी राज्य कायम करना चाहते हैं ? सच्चाई तो यह है कि सउदी अरब जैसे इस्लामी राष्ट्र्रों ने फलस्तीनियों के मार्ग में भयंकर रोड़े अटकाए हैं | यह आरोप भी निराधार है कि केन्द्र की संघी सरकार शेरोन को इसलिए बुला रही है कि वह मुस्लिम विरोधी है | अगर ऐसा होता तो 1992 में कांग्रेस की नरसिंहराव सरकार इस्राइल से कूटनीतिक संबंध ही स्थापित क्यों करती ? 1993 में इस्राइली विदेश मंत्री शिमोन पेरेज़ जब भारत आए तो क्या यहॉं कोई संघी सरकार थी और 1996 में जब इस्राइली राष्ट्र्रपति एज़र वाइजमेन दिल्ली आए तो क्या दिल्ली की देवेगौडा सरकार में कम्युनिस्ट पार्टी के इंद्रजीत गुप्त ;गृह और इंदर गुजराल ;विदेशद्घ मंत्री नहीं थे ? डॉ. अब्दुल कलाम जैसे वैज्ञानिक और सेनापति वेदप्रकाश मलिक आखिर इस्राइल क्यों गए थे ? यदि इस्राइल से संबंध सुधारना गलत होता तो पिछली सरकारों को उक्त कदम उठाने के लिए मजबूर करनेवाला कौन था ? अगर एरियल शेरोन घृणा के लायक हैं तो विपक्ष की नेता सोनिया गॉंधी उनसे क्यों मिल रही हैं ?
हमारे विपक्ष के नेता अब भी शीतयुद्घ के भूतकाल में जी रहे हैं, जबकि रूस, अरब राष्ट्र्र और भारत एक तरफ थे और अमेरिका व इस्राइल दूसरी तरफ ! भारत गुट-निरपेक्ष होते हुए भी इस्राइल से फासला बनाए हुए था | अब जबकि अनेक अरब राष्ट्र्र इस्राइल के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति चला रहे हैं, भारत ‘पोप से अधिक पवित्र’ होने का ढोंग क्यों करे ? यह आश्चर्य की बात नहीं कि इस्राइल से संबंध बढ़ाने पर भारत से कोई भी अरब राष्ट्र्र नाराज़ नहीं हैं लेकिन हमारे वामपंथी और अल्पसंख्यक संप्रदायवादी आग-बबूला हो रहे हैं | यह भी कितनी मज़ेदार बात है कि फलस्तीन की सरकार के प्रधानमंत्री महमूद अब्बास इस्राइल से बात कर रहे हैं और हमारे पीछे देखू नेतागण सलाह दे रह हैं कि हम इस्राइली प्रधानमंत्री को भारत न आने दें | फलस्तीन के विदेश मंत्री नबील शाआथ अभी-अभी भारत आकर गए हैं | उन्होंने भी शेरोन की भारत-यात्रा का विरोध नहीं किया है | उन्होंने केवल इतना ही कहा कि अमेरिका से संबंध बढ़ाने के लिए भारत को इस्राइल के टेके की क्या जरूरत है ? इस सरल-सी बात को कौन सही नहीं कहेगा ? सचमुच भारत-अमेरिका संबंध प्रगाढ़ बनाने में इस्राइल की कोई भूमिका अभी तक नहीं रही है | बल्कि उल्टा ही हुआ हो सकता है याने अमेरिका ने भारत और इस्राइल के संबंध प्रगाढ़ बनाने में जरूर कोई न कोई भूमिका निभाई है | प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव ब्रजेश मिश्र ने न्यूयॉर्क में यहूदियों की सभा में भारत-इस्राइल घनिष्टता का जो प्रस्ताव रखा था, क्या उसने अमेरिकियों को खुश नहीं किया होगा ?
यदि भारत और इस्राइल के संबंध घनिष्ट होते गए तो निश्चय ही उसका एक अमेरिकी आयाम भी विकसित होगा | लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि एशिया में कोई नया ‘नाटो’ उठ खड़ा होगा | पाकिस्तान की तरह भारत कोई दुमछल्ला राष्ट्र्र नहीं है | यह ठीक है कि दुनिया अब एक धु्रवीय हो गई है और रूस तथा चीन जैसे राष्ट्र्र भी अमेरिका को चुनौती नहीं दे सकते लेकिन भारत किसी राष्ट्र्र का दुमछल्ला बन सकता है, यह सर्वथा अकल्पनीय है | अगर ऐसा होता तो भारत अभी तक एराक में फौजें भेज देता और सारी दुनिया में अपने आप एलान हो जाता कि भारत अमेरिका के पोतड़े धोने के लिए तैयार है |
वास्तव में भारत-इस्राइल संबंधों को नई उॅंचाइयों पर पहॅुंचाने के लिए भारत सरकार को बधाई दी जानी चाहिए | अगर वह ऐसा नहीं करती तो माना जाता कि वैदेशिक मामलों में हमारे विपक्ष के समान वह भी पीछेदेखू है | भारत और इस्राइल के बढ़ते हुए संबंध दोनों देशों को अमेरिकी जकड़न से भी मुक्त कर सकते हैं| अगर दोनों देश मिलकर प्रक्षेपास्त्र-निरोधी प्रणालियॉं तैयार कर लें तो फिर इस्राइल को अमेरिकी दादागीरी बर्दाश्त करने की जरूरत नहीं होगी | सबसे बड़ी बात यह है कि भारत औार इस्राइल सचमुच बहुत घनिष्ट हो जाऍं तो फलस्तीन और इस्राइल के बीच उत्तम मध्यस्थ की भूमिका निभाने में भारत को अमेरिका से भी अधिक सफलता मिल सकती है
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