रा सहारा, 10 अप्रैल 2004: अच्छा हुआ कि श्रीलंका में चमत्कार नहीं हुआ| अगर हो जाता तो सारा मामला काफी बिगड़ सकता था| चमत्कार याने चंदि्रका कुमारतुंग की श्रीलंका फ्रीडम पार्टी को यदि स्पष्ट बहुमत मिल जाता तो श्रीलंका के तमिलों की शामत आ जाती| चंदि्रका राष्ट्रपति के रूप में तमिलों के प्रति अपेक्षाकृत अधिक कठोर रवैया अपनाती रही है, खासतौर से तब जबकि सरकार विरोधी दल की थी| यदि वर्तमान चुनाव में उन्हें प्रचंड या स्पष्ट बहुमत मिल जाता तो उनका रवैया और अधिक एकतरफा हो सकता था लेकिन उन्हें अभी 225 सदस्यों की संसद में केवल 105 सीटें मिली हैं याने साधारण बहुमत के लिए उन्हें अभी आठ सदस्यों का समर्थन और चाहिए| उनके मुकाबले प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघ के युनाइटेड नेशनल फ्रंट को केवल 82 सीटें मिली हैं| जाहिर है कि छोटी-मोटी पार्टियों का किसी तरह सहयोग मिल भी जाए तो भी रनिल 31 सदस्य कहॉं से जुटा पाऍंगे? 113 सदस्यों का बहुमत जुटाना चंदि्रका के लिए एकदम आसान है| इसीलिए उन्होंने अपनी पार्टी के नेता महिन्द राजपक्ष को प्रधानमंत्री पद की शपथ भी दिला दी है|
इस चुनाव में रनिल की युनाइटेड नेशनल पार्टी के वोट 45.6 प्रतिशत से घटकर 38 प्रतिशत रह गए जबकि चंदि्रका के फ्रीडम एलायन्स को लगभग 47 प्रतिशत वोट मिले| रनिल को ऐसी पराजय की आशंका नहीं थी लेकिन ऐसा इसलिए भी हुआ कि सिंहल लोग, जो कि बहुसंख्यक हैं, उनसे नाराज़ हो गए| तमिलों के साथ शांति-वार्ता चलाने के कारण वे सराहना के पात्र जरूर बने लेकिन यह माना गया कि वे सिंहल-हितों की कुर्बानी करते जा रहे हैं| वे तमिलों को मनमाने वायदे कर रहे हैं| स्वायत्तता के नाम पर उन्हें वे वह सब कुछ दिए चले जा रहे हैं, जो किसी दिन श्रीलंका के दो टुकड़े कर देगा| उनके विपरीत राष्ट्रपति चंदि्रका कुमारतुंग को राष्ट्रीय एकता और अखंड राष्ट्रवाद का प्रतीक माना जाने लगा| जब चंदि्रका और रनिल में विवाद बढ़ गया तो चंदि्रका की जॉंबाजी पर सिंहल मतदाता फिदा हो गए| चंदि्रका ने लौह-महिला की छवि बनाई| रनिल और उनके साथियों से कई मंत्रालय छीन लिए| तमिल छापामारों के विरुद्घ कठोर कार्रवाई की| तमिल उग्रवादियों ने चंदि्रका की हत्या का भी प्रयत्न किया| शांति के मसीहा के तौर पर रनिल की अंतरराष्ट्रीय छवि निखरी लेकिन राष्ट्रवादी नेता के तौर पर चंदि्रका की छवि चमचमाने लगी|
इसके अलावा रनिल को एक नुकसान और हुआ| श्रीलंका के ग्रामीण मतदाताओं को शांति-प्रक्रिया का कोई खास फायदा नहीं मिला| प्रचुर विदेशी सहायता और आर्थिक प्रगति की मलाई या तो शहरी लोग साफ कर गए या वह तमिल-विरोधी युद्घ में खप गई| रनिल के मोर्चे को न तो सिंहली वोट ज्यादा मिले और न ही कोई तमिल वोट मिले| श्रीलंका के दक्षिणी सिंहली क्षेत्रों में भी रनिल का मोर्चा पिट गया| अपने ही गढ़ों में में हारने का एक कारण यह भी था कि सिंहलपरस्त बौद्घ भिक्षुओं ने ‘जातिक हेला उरूमाया’ नामक अपनी एक नई पार्टी खड़ी कर ली| इस पार्टी को 9 सीटें मिल गईं| यह भिक्खु-पार्टी चंदि्रका का ही साथ देगी| इस पार्टी को संसद में अध्यक्ष का पद दिया जा रहा है ताकि वरिष्ठतम भिक्खु स्पीकर बन जाए| श्रीलंका जैसे बौद्घ राष्ट्र में यह परम्परा है कि छोटा से छोटा भिक्खु भी बड़े से बड़े नागरिक या गृहस्थ के आगे नहीं झुकता है| अब जबकि कोई भिक्खु स्पीकर होगा तो उसके आगे प्रधानमंत्री, मंत्रिगण, सदस्यों के अलावा अन्य आठ भिक्खु सदस्य भी झुक सकेंगे| इस सम्मान के बदले में चंदि्रका की पार्टी याने महिन्द राजपक्ष की सरकार को स्पष्ट बहुमत मिल जाएगा|
स्पष्ट बहुमत की स्पष्ट संभावना के बावजूद रनिल ने कहा है कि यह सरकार स्थिर नहीं रह पाएगी| यह निराशा की वाणी है| हताशा की आवाज है| केवल भिक्खु लोग ही नहीं, भारत से गए तमिलों की पार्टी-‘सीलोन वर्कर्स कॉंग्रेस’, लिट्टे से अलग हुए कर्नल करुणा की पार्टी तथा पॉंच मुस्लिम सदस्यों का समर्थन भी फ्रीडम एलायन्स को मिल सकता है| हालॉंकि तमिल कॉंग्रेस और मुस्लिम कॉंग्रेस चुनाव के पहले रनिल सरकार का समर्थन करती रही हैं| बहुमत के बारे में चंदि्रका और राजपक्ष को चिन्ता करने की खास जरूरत नहीं है लेकिन चिन्ता के दो अन्य गंभीर मुद्दे है| एक तो आंतरिक मुद्दा है और दूसरा है, प्रभाकरन की लिट्टे पार्टी का| आंतरिक मुद्दा यह है कि चंदि्रका का मोर्चा मुख्यतया दो पार्टियों से मिलकर बना है-श्रीलंका फ्रीडम पार्टी और जातीय विमुक्ति पेरामून ! मोर्चे की 105 सीटों में से पेरामून को 42 सीटें मिली हैं| इसका मतलब यह है कि चंदि्रका पेरामून को नाराज़ करने का खतरा मोल नहीं ले सकती| पेरामून और फ्रीडम पार्टी की नीतियों में काफी अंतर है| तमिलों के प्रति पेरामून का रवैया काफी कठोर है| पेरामून उन्हें स्वयात्तता देने का विरोधी है| पेरामून मानता है कि संघवाद और स्वायत्तता के नाम पर वह श्रीलंका का विभाजन बर्दाश्त नहीं कर सकता| वह शक्ति का विकेन्द्रीकरण कर सकता है लेकिन स्वायत्तता नहीं दे सकता जबकि चंदि्रका स्वायत्तता की पक्षधर हैं| चंदि्रका मानती हैं कि सीमित स्वायत्तता से आम तमिल लोग संतुष्ट हो जाऍंगे और उग्रवादी अलग-थलग पड़ जाऍंगे| इस दुविधा पर अभी तक दोनों पार्टियों के बीच दिल खोलकर बात नहीं हुई है| सत्ता-सुख के कारण अगर दोनों पक्ष थोड़ा-थोड़ा झुकेंगे तो राजपक्ष की सरकार अवश्य ही तमिलों से सार्थक वार्ता चला सकेगी, अन्यथा रनिल की भविष्यवाणी सही भी सिद्घ हो सकती है| पेरामून के लोग इतने सिरफिरे हैं कि उन्होंने 1971 में चंदि्रका की माताजी सिरिमावो की सरकार के विरुद्घ सशस्त्र बगावत कर दी थी| दूसरे शब्दों में पेरामून के साथ गठबंधन-सरकार चलाना शेर की सवारी करने के बराबर है| जयललिता और ममता को दिल्ली में साथ रखना जितना कठिन है, उससे कहीं ज्यादा कठिन कोलम्बो में पेरामून को पटाए रखना है|
पेरामून के अलावा चंदि्रका की एक कठिनाई यह भी है कि उन्हें अपने पार्टी नेता महिन्द राजपक्ष के मुकाबले पूर्व विदेश मंत्री लक्ष्मण खदिरगमार अधिक पसंद थे| खदिरगमार सारी दुनिया में श्रीलंका के सुन्दर चेहरे की तरह जाने जाने लगे थे| उनके प्रयत्नों से श्रीलंका को आतंकवाद से लड़ने और पुनर्निर्माण के लिए 4.5 बिलियन डॉलर भी मिले हैं| नार्वे के मध्यस्थों और भारतीय नेताओं से भी उनके अच्छे समीकरण बन गए हैं| खदिरगमार खुद तमिल हैं लेकिन तमिल लोग उन्हें अपना दुश्मन समझते हैं| इसीलिए चंदि्रका ने मजबूरन महिन्द राजपक्ष को प्रधानमंत्री बनाया है| इसका अर्थ यह है कि श्रीलंका सरकार तमिल संवेदनाओं का विशेेष ध्यान रख रही है| राजपक्ष कोई वंशवादी नेता नहीं हैं| वे 25 साल की आयु में चुनाव जीतकर संसद में पहॅंुचे थे और 58 वर्षीय युवा नेता के तौर पर रनिल की टक्कर में वे प्रतिपक्ष के जुझारू नेता रहे हैं| भारत के कुछ महत्वपूर्ण गैर-सरकारी संगठनों से वे सीधे जुड़े हुए हैं| भारत के प्रति उनके हृदय में इतना अधिक सद्रभाव है कि शपथ लेते ही उन्होंने भारत से अनुरोध किया है कि वह सिंहलों और तमिलों के बीच शांति स्थापित करे| भारत की नीति इस आंतरिक विवाद से दूर रहने की है| वाजपेयी सरकार ने तटस्थता की नीति का निष्ठापूर्वक पालन किया है, क्योंकि राजीव गॉंधी की नीतियों के कारण पहले सिंहल और फिर तमिल लोग भारत-विरोधी हो गए थे| आशा है कि चंदि्रका और राजपक्ष भारत को अपने दलदल में खींचने की कोशिश नहीं करेंगे|
चंदि्रका की अब सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसे तमिलों से सीधे बात करनी होगी| पहले रनिल के मत्थे अनेक बातें मढ़ी जा सकती थीं, क्योंकि वे प्रतिपक्ष के प्रधानमंत्री थे लेकिन अब तो प्रधानमंत्री अपनी ही पार्टी का होगा| अब राष्ट्रपति के रूप में चंदि्रका ज्यादा करतब नहीं दिखा सकेंगी| प्रधानमंत्री की ओट में वे तरह-तरह के खेल नहीं खेल सकेंगी| प्रधानमंत्री राजपक्ष ने कहा भी है कि शांति-वार्ता को चंदि्रका सफलतापूर्वक चलाऍंगी क्योंकि उन्हें अनुभव और आत्म-विश्वास, दोनों हैं| रनिल और चंदि्रका की प्रतिद्वंद्विता ने अनेक बार जैसा खेल बिगाड़ा, वैसे बिगाड़ की संभावना अब कम होगी| आशा है कि राजपक्ष आज्ञाकारी प्रधानमंत्री सिद्घ होंगे| लगता है कि प्रतिरक्षा और वित्त जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय चंदि्रका खुद अपने पास रखेंगी| श्रीलंका के संविधान में राष्ट्रपति लगभग सर्वशक्तिमान होता है और प्रधानमंत्री एक कमजोर कार्यकारी की तरह काम करता है| यदि दोनों में समन्वय हो तो गाड़ी तेज चलती है और विरोध हो तो गाड़ी ठप हो जाती है| चंदि्रका और राजपक्ष जानते हैं कि इस नई शासनावधि में तमिल समस्या का हल नहीं हुआ तो उनकी राजनीतिक पूंजी तो समाप्त हो ही जाएगी, श्रीलंका का विभाजन भी हो सकता है| इसीलिए वे दोनों एकजुट होकर काम करेंगे| इस बात की पूरी संभावना है कि खदिरगमार को विदेश मंत्री बना दिया जाए और उन्हें तमिल समस्या के समाधान में सक्रिय भूमिका दी जाए| इस दृष्टि से यह माना जा सकता है कि श्रीलंका में शांति-स्थापना का एक अपूर्व अवसर उपस्थित हुआ है|
चिंता का विषय यही है कि लिट्टे के नेता प्रभाकरन ने हिंसा फैलने की आशंका व्यक्त की है| उन्हें डर है कि चंदि्रका की मजबूती उन्हें मॅंहगी पड़ेगी| सिंहल फौजी आक्रामकता का डर उन्हें अभी से सताने लगा है| उनके मोर्चे को 22 सीटें मिली हैं| उनकी पार्टी संसद की सबसे बड़ी तीसरी पार्टी बनकर उभरी है| केवल एक अन्य तमिल उम्मीदवार तमिल क्षेत्र से जीत सका है| प्रभाकरन को इस बात से धक्का जरूर लगा है कि 22 में से पॉंच सीटें, उनके बागी साथी मुरलीधरन उर्फ कर्नल करुणा को मिल गई हैं| कर्नल करुणा ने अपना समर्थन नई सरकार को दे दिया है याने प्रभाकरन का यह दावा खारिज हो गया है कि श्रीलंका के तमिलों के वे एकमात्र प्रवक्ता हैं| श्रीलंका की नई सरकार को अब फूंूक-फूंूककर कदम रखना होगा| उसे उग्रवादी तमिलों के दो गुटों तथा अन्य शांतिपि्रय तमिल तत्वों से एक साथ बात करनी होगी| महिन्द राजपक्ष की सरकार को शपथ लेते ही यह तय करना होगा कि प्रभाकरन और करुणा की फौजों के बीच जब खुला युद्घ होगा तो वह किसका साथ देगी? चंदि्रका अपनी सरकार के आंतरिक अन्तर्विरोधों से जितनी आसानी से निपट सकती हैं, उतनी ही कठिनाई उन्हें होगी, तमिलों के आन्तरिक अन्तर्विरोधों से निपटने में ! रनिल विक्रमसिंघ का मोर्चा हारा जरूर है लेकिन उसका बिल्कुल सफाया नहीं हुआ है| उसकी आवाज़ भी काफी दमदार बनी रहेगी| चंदि्रका और राजपक्ष के लिए रनिल की उपेक्षा करना आसान नहीं होगा| आशा की जानी चाहिए कि रनिल की भूमिका रचनात्मक होगी|
जहॉं तक भारत का प्रश्न है, वह श्रीलंकाई लोकतंत्र की सराहना किए बिना नहीं रह सकता| दो दशक से चल रहे गृह-युद्घ के बावजूद ठीक समय पर चुनावों का सम्पन्न होना अपने आप में उल्लेखनीय घटना है| श्रीलंका शांत और स्थिर हो, यह भारत की हार्दिक इच्छा है लेकिन दूध का जला छाछ को फूंक-फूंककर पीता है| श्रीलंकाई राजनीति में पॉंव फंसाकर भारत अपना नुक्सान नहीं करना चाहता| यदि वह तमिलों के स्वतंत्र राष्ट्र (ईलम) का विरोध करता है तो उसका बुरा असर तमिलनाडु की राजनीति पर पड़ता है और यदि सिंहलों के अत्याचारों का विरोध करता है तो श्रीलंका की सरकार दक्षिण एशिया के बाहर की ताकतों से ऑंखें लड़ाने लगती है, जो कि भारत की सुरक्षा के लिए खतरा नहीं है| जब तक श्रीलंका का सिंहल-तमिल विवाद भारत की सुरक्षा के लिए चुनौती नहीं बनता, भारत फटे में पॉंव क्यों फंसाए?
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