नवभारत टाइम्स, 16 जुलाई 2007 : इस बार विश्व हिंदी सम्मेलन का सारा ज़ोर इस बात पर रहा कि हिंदी संयुक्तराष्ट्र की भाषा कैसे बने| सम्मेलन का आयोजन संयुक्तराष्ट्र के परिसर में हुआ और संयुक्तराष्ट्र के महासचिव बान की मून ने उसका उदघाटन किया| इधर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भी अपने संदेश में हिंदी को संयुक्तराष्ट्र में बिठाने की बात कही| विदेश राज्यमंत्री आनंद शर्मा ने यहां तक कह दिया कि खर्च से क्या डरना? जो भी खर्च होगा, भारत सरकार करेगी| तो क्या अब आपको लगता है कि साल दो-साल में हिंदी संयुक्तराष्ट्र में प्रतिष्ठित हो जाएगी?
मुझे तो ऐसा नहीं लगता| इसलिए नहीं लगता कि जिस सरकार ने यह पहल की थी, उसने ही कुछ नहीं किया तो यह सरकार क्या करेंगी? श्री अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में कम से कम हिंदी का ढकोसला तो था, इस सरकार में तो वह भी नहीं है| श्री वाजपेयी जिस पार्टी के नेता हैं, वह बरसों-बरस ‘हिन्दू, हिंदी, हिंदुस्थान’ के नारे पर पलती रही, उसने डॉं. लोहिया और आर्यसमाज के हिंदी आंदोलनों में सकि्रय भाग भी लिया, विदेश मंत्र्ी और प्रधानमंत्री के तौर पर श्री वाजपेयी ने संयुक्तराष्ट्र में हिंदी में भाषण भी दिए लेकिन भाजपा और अटलजी को जल्दी ही पता चल गया कि दो काम एक साथ नहीं हो सकते| घर में जो नौकरानी है, वह बाहर महारानी कैसे हो सकती है? संयुक्तराष्ट्र में हिंदी को वही सरकार प्रतिष्ठित कर सकती है, जो उसे पहले भारत में प्रतिष्ठित करे| भारत में हिंदी की क्या प्रतिष्ठा है? कौन-कौन से काम हिंदी में होते हैं?
क्या संसद ने आज तक एक भी कानून हिंदी में पारित किया? हिंदी का कानून भी मूलत: अंग्रेजी में ही लिखा जाता है| हिंदी में तो सिर्फ अनुवाद होता है| अगर मूल और अनुवाद में झगड़ा पड़ जाए तो हिंदी अनुवाद कूड़ेदान के हवाले हो जाता है| क्या आज तक सरकार की कोई भी महत्वपूर्ण नीति हिंदी में बनी है? हिंदी नीति भी अंग्रेजी में ही बनी है| सारी नीतियों का निर्माण अंग्रेजी में ही होता हैं| बाद में उनका हिंदी अनुवाद प्रसारित होता है| सरकार का लगभग सारा अंदरूनी काम-काज भी अंग्रेजी में होता है| हिंदी में वे ही काम होते हैं, जो बहुत निचले स्तर के हों और मजबूरी में करने पड़ते हों| हिंदी सलाहकार समितियों में मंत्र्ी और अफसर हिंदीप्रेमी सदस्यों को काफी सब्जबाग दिखाते हैं| सरकार का जो भी काम हिंदी में होता है, उसमें मक्खी पर मक्खी बिठाई जाती है| सरकारी हिंदी बेजान और बट्रठर होती है| वह हिंदी की सरस और शानदार परंपरा को सिर के बल खड़ा कर देती है| इसीलिए विदेश राज्यमंत्री बार-बार कहते हैं, ‘हिंदी को सरल होना चाहिए’| यह मूढ़तापूर्ण वाक्य वे बार-बार क्यों बोलते हैं? इसीलिए कि वे खुद सरकारी हिंदी के चंगुल में फॅसे हुए हैं| यह भुक्तभोगी की व्यथा है| उनके साथ हमारी सहानुभूति है| वे यह क्यों नही देखते कि विदेश मंत्रलय का सारा अंदरूनी काम-काज हिंदी में हो और विदेशी काम-काज सिर्फ अंग्रेजी में नहीं, दुनिया की अन्य महत्वपूर्ण भाषाओं में भी हो| क्या यह मज़ाक नहीं कि विश्व हिंदी सम्मेलन संबंधी अंदरूनी काम-काज भी अंग्रेजी में ही हुआ और सम्मेलन में भाग लेनेवाले एक प्रतिनिधि की पासपोर्ट की हिंदी अर्जी विदेश मंत्रलय ने रद्द कर दी.
ऐसी सरकार से आशा करना कि वह सं.रा. में हिंदी ले जाएगी, ऐसा ही है, जैसा पानी को बिलोकर मक्खन निकालना| यों तो साठ करोड़ रू. का खर्च कोई बड़ी बात नहीं है| सरकार के कोष में आजकल अरबों डॉलरों का अंबार लगा हुआ है लेकिन असली मुद्दा इच्छा-शक्ति है| इच्छा-शक्ति कहॉं है? यदि इच्छा-शक्ति होती तो सरकार पहले संसद, शासन और अदालतों में भारतीय भाषाओं को लाती| शिक्षा के क्षेत्र् में तो हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं का घोर अपमान पहले से चला आ रहा है| अब से 40 साल पहले जब मैंने अपना अन्तरराष्ट्रीय राजनीति का शोधग्रंथ हिंदी में लिखा तो पूरे देश में हंगामा हो गया था| पूरी संसद ने मेरा समर्थन किया था| मुझे निकालनेवाले स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ को अपने संविधान में संशोधन करना पड़ा था लेकिन कोई पूछे कि पिछले 40 साल में क्या 40 शोधग्रंथ भी हिंदी माध्यम से लिखे गए? आज भी देश के लगभग सभी बुनियादी और महत्वपूर्ण काम अंग्रेजी में होते हैं| उसे चुनौती कौन दे?
हमारे नेतागण बाबुओं के बाबू हैं| मंत्री बनते ही वे अपने आपको नौकरशाहों के हवाले कर देते हैं| नौकरशाह उनकी छाती पर सवार हो जाते हैं| अटलबिहारी वाजपेयी जैसे वाणी के सम्राट जब अंग्रेजी के लिखित भाषण पढ़ते थे तो भाजपा के कार्यकर्ता अपना माथा ठोकते थे| संयुक्तराष्ट्र में दिए गए उनके हिंदी भाषण इतने बेजान और उबाऊ क्यों थे? इसलिए कि वे अंग्रेजी में थे| अटलजी ने उनके मुर्दा हिंदी अनुवाद को अपनी जुबान पर ढोया| अगर वे मूल हिंदी में बोलते तो देश को हिला देते| सोनिया गांधी की भाषा इतावली है और डॉ. मनमोहन सिंह की पंजाबी! अच्छा है कि ये दोनों हिंदीभाषी नहीं हैं| ये दोनों जब हिंदी बोलते हैं तो मुझे काफी खुशी होती है| ये लोग चाहें तो भारत को हिंदीमय बनाने का संकल्प करें| अगर भारत में हिंदी आ जाए तो उसे सं.रा. में जाने से कौन रोक सकता है?
संयुक्तराष्ट्र में हिंदी को बिठाने का सबसे ज्यादा विरोध हमारे नौकरशाह करेंगे| संयुक्तराष्ट्र में रहने और काम करने का थोड़ा-बहुत अनुभव मुझे भी है| 1999 में मैं भारतीय प्रतिनिधि मंडल का सदस्य था| 1969-70 में तथा बाद में कई बार मुझे संयुक्तराष्ट्र जाने का अवसर मिला है| वहॉं सारा काम-काज हमारे नौकरशाह संभालते हैं| नेताओं की भूमिका एक प्रतिशत भी नहीं होती| हमारे सारे भाषण पहले से लिखे हुए और छापे हुए रहते हैं| यदि सं.रा. में हिंदी मान्य हो गई तो हमारे नौकरशाहों के प्राण-पखेरू उड़ जाऍंगे| वे क्या करेंगे? कैसे तो वे हिंदी में बोलेंगे और कैसे वे अपने और हम लोगों के भाषण हिंदी में लिखेंगे? यहां विदेश मंत्रलय में वे एक शब्द भी हिंदी का प्रयोग नहीं करते| वहॉं स.रा. में वे शत प्रतिशत हिंदी कैसे चलाऍंगे? इसीलिए हिंदी को लेकर प्रस्ताव पारित होते रहेंगे लेकिन सं.रा. में हिंदी आसानी से बैठ नहीं पाएगी| सं.रा. में हिंदी को बिठाने का प्रस्ताव प्रथम विश्व ंहिंदी सम्मेलन में और उसके बाद पिछले सूरिनाम सम्मेलन में पारित हुआ था लेकिन हुआ क्या? कुछ नहीं| मैंने सभी दलों के सांसदों से हस्ताक्षर करवाकर वह प्रस्ताव पारित करवाया था| अब सांसदों को चाहिए कि वे सरकार की खिंचाई करें और पूछें कि उसने कौन से ठोस कदम उठाए हैं|
संयुक्तराष्ट्र में हिंदी को प्रतिष्ठित करने का आश्वासन बान की मून ने भी नहीं दिया, हालॉंकि उनका भाषण लच्छेदार था| बान की मून का सकि्रय सहयोग लिया जाना चाहिए| अगर हिंदी संयुक्तराष्ट्र में संयोगवश प्रतिष्ठित हो गई तो भारत में उसको प्रतिष्ठित होते देर नहीं लगेगी| हमारी गुलाम मानसिकता का रास्ता विदेश होकर ही घर आता है| हम यह न भूलें कि दुनिया में सबसे अधिक बोली और समझी जानेवाली भाषा का नाम हिंदी है लेकिन वह हिंदी अब भी नई दिल्ली के साउथ ब्लॉक और न्यूयॉर्क के यूएन प्लाजा में नहीं बोली जाती| वह कब बोली जाएगी?
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