नवभारत टाइम्स, 6 मई 2002 : आँकड़े अक्सर सत्य को समझने में सहायता करते हैं लेकिन कभी-कभी वे सत्य के शत्रु भी बन जाते हैं| यह बात लोकसभा में हुए मतदान से सिद्घ होती है| अखबारों ने कहा कि विपक्ष का प्रस्ताव 87 वोटों से गिर गया याने मतलब यह निकला कि सत्तापक्ष बहुत मजबूत हो गया है| गुजरात ने उसे पहले से भी अधिक मजबूत बना दिया है| यह तथ्य है| ऊपरी और तात्कालिक ! लेकिन सत्य क्या है ? सत्य यह है कि सत्तारूढ़ भाजपा-गठबंधन को केवल 276 वोट मिले हैं| 545 सदस्यों के सदन में केवल 276 वोट याने सिर्फ चार वोट ज्यादा मिले| 272 वोट से साधारण बहुमत बनता है| तो 276 वोट से क्या बनता है ? सिर्फ चार वोट का बहुमत बनता है| चार वोट का बहुमत किस मजबूती का परिचायक है ? जो सरकार एक वोट से पहले गुड़क चुकी है, उसे चार वोट के इस बहुमत को देखकर पसीना छूट जाना चाहिए लेकिन वह आँकड़ों के भुलावे में फँसकर पहले से भी अधिक अहमन्य हो सकती है|
वह अहमन्य नहीं है, इसका सबूत लोकसभा की बहस के दौरान जरूर मिला है| हिंसा-पीडि़तों के लिए डेढ़ सौ करोड़ का अनुदान और के0पी0एस0गिल की नियुक्ति इसके प्रमाण हैं| गृहमंत्र्ी आडवाणी ने रक्षामंत्री जॉर्ज के तर्क का विरोध करना उचित समझा और अन्य भाजपा मंत्रियों ने गुजरात सरकार की कार्रवाई को ‘अपर्याप्त’ बताया, यह भी इस बात के संकेत देते हैं कि सत्तारूढ़ गठबंधन का अन्त:करण अभी पूरी तरह मरा नहीं है| राज्यसभा में विपक्ष के प्रस्ताव को मान लेना उक्त तथ्य पर मुहर लगाना है| यहाँ प्रश्न केवल यह है कि लोकसभा और राज्यसभा, दोनों ही सदनों में शुरू से सर्वानुमति का माहौल क्यों नहीं बनाया गया ? गुजरात में शांति बहाल करने की बजाय सभी दलों का ध्यान इस बात पर अधिक केंदि्रत रहा कि अपना क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ कैसे सिद्घ किया जाए| वरना नियम 184 के अन्तर्गत बहस करवाने में सरकार को कोई आपत्ति क्यों होनी चाहिए थी ? यदि कार्यकारी लोकसभा-अध्यक्ष सईद अपना फैसला लटकाए रखते तो संसद का यह सत्र् शायद बिना कुछ काम-काज किए ही समाप्त हो जाता| विपक्ष का स्पष्ट लक्ष्य यह था कि सत्तारूढ़ गठबंधन के उन सहयोगियों को बेनक़ाब किया जाए जो हर सांस में सेक्यूलरिज़्म का नारा भरते हैं| 184 के अन्तर्गत यदि विपक्ष का प्रस्ताव पारित हो जाता तो भी सरकार तो नहीं गिरती लेकिन वह लँगड़ी जरूर हो जाती| इसीलिए डरी हुई सरकार उस प्रस्ताव को टालती रही| सरकार की इस टालमटोल और विरोधियों के हठ से गुजरात का क्या फायदा हुआ ? शांति, सुरक्षा और सद्भाव अभी गुजरात से कोसों दूर हैं| उन्हें गुजरात पहुँचाने में संसद का क्या योगदान रहा ? शायद कुछ नहीं ! संसद की बहस ने घायलों के जख्मों पर कौन-सा मरहम लगाया ? कुछ उल्टा ही हुआ| नरेन्द्र मोदी की अकर्मण्यता पर पर्दा डालने की कोशिश भी हुई| गुजरात जैसे संकट के अवसरों पर भारतीय संसद ने अनेक बार भारत की नसों में रक्त-संचार किया है लेकिन इस बार गुजरात पर हुई बहस को इस लायक भी नहीं समझा गया कि दूरदर्शन पर उसका सीधा प्रसारण किया जाता| वास्तव में वह बहस गुजरात पर थी ही नहीं, वह तो एक-दूसरे की टाँग खींचने पर थी|
इस बहस ने देश को मजबूत नहीं किया है| इस बहस के नतीजे ने भाजपा-गठबंधन को पहले से अधिक कमजोर कर दिया है| तेलुगु देशम, नेशनल काँफेंरस, तृणमूल, बसपा और जनता दल के रवैए का क्या कुछ भी अभिप्राय नहीं है ? जो भाजपा से सहमत नहीं हैं, उन्होंने भी मतदान में साथ जरूर दिया है लेकिन चन्द्रबाबू नायडू, रामविलास पासवान और उमर अब्दुल्ला के पैंतरों का संदेश क्या है ? क्या केवल यही कि उन्हें अपने वोटों की चिंता है ? यह सच हो सकता है लेकिन असली संदेश इससे अधिक सूक्ष्म है और बड़ा भी है| वह यह है कि भाजपा-गठबंधन का विकल्प जिस क्षण भी ठोस दिखा, यह सरकार रेत के महल की तरह ढह जाएगी| आज इस सरकार का कोई विकल्प नहीं है| इसीलिए यह बनी हुई है| इस तरह से बना रहना कितना विडम्बनामय है, यह श्री अटलबिहारी वाजपेयी से बेहतर कौन समझ सकता है ? केवल चार वोटों का बहुमत भी कोई बहुमत है ? यदि चार की जगह चालीस होते या चार सौ भी होते तो क्या वह लोकतंत्र् होता ? यदि संख्या-बल ही लोकतंत्र् है तो आपात्काल की संसद से ज्यादा लोकतांत्रिक संसद भारत में कब हुई है ? क्या हमें याद नहीं कि आपात्काल के दौरान यही बहुमत अन्धा हाथी बन गया था ? एक से एक मूर्खतापूर्ण कानून पर बहुमत का ठप्पा लगता चला जाता था| उस अन्धे बहुमत का अंत क्या हुआ ? स्वयं प्रधानमंत्री चुनाव हार गइंर्| अन्धा बहुमत सरकार को सदन में जिता देता है और सड़कों पर हरा देता है| वह सदन में ताज़ पहनाता है और सड़कों पर काँटे बिछाता है| महान से महान सरकारें सदनों में जीतती जाती हैं और सड़कों पर हारती जाती हैं|
विचारणीय विषय यह है कि संसद और सड़क में आज इतना फासला क्यों हो गया है ? संसद सड़क का प्रतिनिधित्व क्यों नहीं कर रही ? संसद को जनता का आईना बनने से क्यों रोका जा रहा है ? गुजरात जैसे मुद्दे पर ‘व्हिप’ जारी करने की जरूरत क्यों पड़ गई ? सांसदों को अपने अंत:करण के अनुसार वोट देने की छूट क्यों नहीं दी गई ? यदि छूट दी जाती तो गठबंधन के सहयोगियों की बात जाने दीजिए, स्वयं भाजपा के अनेक सदस्य गुजरात सरकार की भर्त्सना के लिए अपना हाथ उठा देते ! खाद्य मंत्र्ी शांताकुमार का स्वत:स्फूर्त्त बयान इस संभावना का स्पष्ट प्रमाण है| क्या भाजपा के नेताओं को यह पता नहीं कि उनके कार्यकर्त्ता भी शर्म से गड़े जा रहे हैं ? उन्हें समझ नहीं पड़ रहा कि बेकसूर मुसलमानों की हत्या को वे उचित कैसे ठहराएँ ? हिन्दुत्व के धर्मग्रन्थों में उन्हें कोई मंत्र्, कोई श्लोक, कोई आप्त-वचन ऐसा नहीं मिल रहा, जो गुजरात के हत्याकांड को सही सिद्घ कर सके| प्रधानमंत्री ने सही कहा कि वे विदेशों में अपना मुँह कैसे दिखाएँगे| स्वदेश में तो मुँह रोज़ ही दिखाना पड़ता है| भाजपा के सभी कार्यकर्त्ताओं की खाल नरेन्द्र मोदी की तरह मोटी नहीं है और भाजपा के जिन नेताओं को प्रशासन का अनुभव है, वे विशेष तौर से चकित हैं कि गुजरात के इस अनुभवहीन मुख्यमंत्री के हाथों भाजपा अपनी कब्र क्यों खुदवा रही है| भाजपा का यह गर्व नरेन्द मोदी ने चूर-चूर कर दिया कि उसके राज में कभी दंगे नहीं होते| गुजरात में जो हुआ, वह दंगा नहीं, नर-संहार है| मान लिया कि भाजपा या मोदी ने इस नर-संहार की अगुवाई नहीं कि लेकिन गोधरा की स्वाभाविक प्रतिकि्रया में यदि हिन्दुओं ने मुसलमानों पर हमला बोल दिया तो भी मुख्यमंत्री का कर्त्तव्य क्या होता है ? राजधर्म क्या होता है ? ‘राजधर्म’ शब्द का प्रयोग सबसे पहले इसी स्तंभ में किया गया था| प्रधानमंत्री ने उस शब्द को पकड़ा भी लेकिन क्या उन्होंने स्वयं अपना ‘राजधर्म’ निभाया ? मान लिया कि मोदी अकर्मण्य, आत्ममुग्ध और आलसी मुख्यमंत्र्ी हैं लेकिन प्रधामनंत्री तो संवेदनशील व्यक्ति, लोकपि्रय नेता और अनुभवी प्रशासक हैं| उन्होंने ऐसे मुख्यमंत्री को बर्दाश्त क्यों किया ? यदि नरेन्द्र मोदी की जगह कोई काँग्रेसी मुख्यमंत्री होता तो क्या वह अपनी गद्दी पर टिका रह सकता था ? यह ठीक है कि मुख्यमंत्री बदल देने से गुजरात के हिन्दुओं का गुस्सा एकदम ठंडा नहीं पड़ता और शायद हिंसा तत्काल नहीं रुकती लेकिन सारे देश में यह संदेश जरूर जाता कि प्रधानमंत्र्ी ने अपने धर्म का निर्वाह किया है और वे अपनी प्रजा में कोई भेद-भाव नहीं करते|
लेकिन आज स्थिति क्या है ? भाजपा संसद में जीत गई है, लेकिन लोगों के दिलों में हार गई है| उसकी छवि यह बन गई है कि इन राष्ट्रवादियों को हुकूमत करनी ही नहीं आती| ये राष्ट्रवादी हैं| भाषण अच्छा देते हैं| चुटकले बढि़या छोड़ते हैं| धर्म-कर्म की बात भी ठीक-ठाक कर लेते हैं| भ्रष्टाचार भी ज्यादा नहीं करते लेकिन जब असली परीक्षा होती है तो ये फेल हो जाते हैं| विदेशी फौजें करगिल और द्रास में घुस जाती हैं, इन्हें पता ही नहीं चलता; इनका विमान अपहरण हो जाता है और ये बगलें झाँकते रह जाते हैं; इनकी संसद पर हमला हो जाता है और इनके हाथ-पाँव फूल जाते हैं; गोधरा में इनके कार सेवकों को गुंडे जिन्दा जला देते हैं और इनका मुख्यमंत्री चादर तानकर सोया रहता है; गुजरात में दो माह तक नर-संहार चलता रहता है और केन्द्र और प्रांत की सरकारें एक-दूसरे के प्रशस्ति-पाठ में लगी रहती हैं| ऐसे राष्ट्रवादी जब ‘राजधर्म’ की बात करते हैं तो लगता है कि वे न तो ‘राज’ को समझते हैं और न ही ‘धर्म’ को| गुजरात के कारण उनका ‘राज’ भी जा रहा है और ‘धर्म’ भी ! केवल गुजरात में भाजपा अभी इसलिए मजबूत दिखाई पड़ रही है कि गोधरा के प्रति हिन्दुओं का गुस्सा अब भी बरकरार है लेकिन क्या क्रोध मनुष्य की स्वाभाविक स्थिति है ? यह कब तक टिकेगा ? इस क्रोध का ज्वार उतरते ही बर्बादी के भाटे सारे गुजरात में दिखाई पड़ने लगेंगे| ज्वार-भाटे के इस खेल में गुजरात का भयंकर नुक्सान तो हो ही रहा है, भाजपा भी जबर्दस्त घाटे में उतर रही है| स्थिति सामान्य होने पर लोग पूछेंगे कि हमारा क्रोध तो स्वाभाविक था लेकिन क्या भाजपा सरकार की उदासीनता भी स्वाभाविक थी ? मोदी सरकार ने हमें रोका क्यों नहीं ? हम गुस्से में पागल हो गए थे, लेकिन सरकार को क्या हो गया था ? यह प्रश्न और भी अधिक पैना और ज़हरीला रूप धारण करके सारे भारत में उठेगा ! सारी दुनिया में यह अभी से उठ रहा है| अटलजी की जिंदगीभर की कमाई, मोदी ने नाली में बहाई| अटलजी अगर भाजपा के कृष्ण हैं तो मोदी भाजपा के भस्मासुर हैं| जिन मूल्यमानों का मूर्तिमंत रूप अटलजी बन गए थे, वे आज के गुजरात में ध्वस्त हो चुके हैं| अब भी मोदी को हटाया जा सकता है, खास तौर से संसद में जीतने के बाद लेकिन संसद में जीतने और सड़कों पर हारने की चौपड़ तो बिछ चुकी है| पता नहीं प्रधानमंत्री इस चौपड़ को कैसे उलटेंगे ?
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