रा. सहारा, 26 अगस्त 2003: अविश्वास प्रस्ताव तो गिर गया लेकिन गिरते-गिरते वह कई प्रश्न उठा गया ! जैसे पहला प्रश्न तो यही कि यह सरकार के प्रति अविश्वास था या खुद के प्रति? विपक्ष की नेता को खुद के नेता होने में भी विश्वास है या नहीं ? इसी विश्वास को जॉंचने के लिए उन्होंने शायद यह दॉंव फेंका था ! इस एक पत्थर से कई शिकार हो सकते थे ! जैसे कॉंग्र्र्रेस पार्टी में सोनिया गॉंधी की धाक जमती और सम्पूर्ण विपक्ष की एक छत्र नेता बनकर उभरतीं ! सोनिया को यह पता है कि कॉंग्रेस पार्टी के शीर्ष नेता उनके खिलाफ़़ बग़ावत नहीं कर सकते लेकिन उन्हें डर है कि उनके नेतृत्व में वे चुनाव की वैतरणी पार नहीं कर पाएंगे ! सभी मानते हैं कि सोनिया गॉंधी अटल बिहारी वाजपेयी की तुरूप का पत्ता हैं ! कॉंगे्रस के इस अन्दरूनी द्वंद्व की दवा क्या है? उसके लिए इससे बढि़या नुस्खा क्या हो सकता था कि अविश्वास प्रस्ताव लाया जाए ! आशा थी कि अविश्वास प्रस्ताव पर कॉंगेस के आला दिमाग मिलकर अपनी नेता का भाषण तैयार करेंगे और नेता उस भाषण के वाक्यों की रिहर्सल अभिनेताओं से भी बेहतर करेंगी और जब वे डायलॉग मारेंगी तो सरकार को लेने के देने पड़ जाऍंगे ! इसमें संदेह नहीं कि अंग्रेजी के इटालियन उच्चारण के बावजूद सोनिया ने अपना भाषण काफी अच्छे ढंग से पढ़ा और हिन्दी में दिया गया उनका भाषण सचमुच प्रभावशाली था ! प्रभाव बात में उतना नहीं था जितना भाषा में था ! वे काफी सहज हिन्दी बोल रही थीं, जो चुनाव की मुख्य भाषा है | सत्ता पक्ष के नेताओं के चेहरे उड़े-उड़े-से आखिर क्यों नजर आ रहे थे और कॉंगे्रसी गद्रगद्र क्यों दिखाई पड़ रहे थे ? अविश्वास प्रस्ताव की बहस ने कॉंग्रेसियों को आश्वस्त कर दिया है कि उनकी नेता जब चुनावी महासमर में उतरेंगी तो वे खाली हाथ नहीं होंगी ! उनके हाथों में हिन्दी की डॉयलॉगों की तलवार होगी ! अविश्वास की बहस ने सोनिया गॉंधी के प्रति कॉंगे्रस के विश्वास में निश्चय ही वृद्घि की है !
यह पार्टी-विश्वास, क्या राष्ट्र्र्र्रीय विश्वास बन पाएगा, असली मुद्रदा यही है ! इस बहस से कोई भी निष्कर्ष निकालना बड़ा कठिन है ! समस्त विपक्षी नेताओं ने सोनिया का समर्थन किया हो या उनके भाषणों से सोनिया की छवि दमकने लगी हो, ऐसा भी नहीं है ! यदि इस मुद्रदे को हम सोनिया का मुद्रदा मान लें तो 118 वोट का अर्थ क्या हुआ ? अविश्वास के समर्थन में सिर्फ 118 वोट ही क्यों आए? क्या संसद के विरोध-पक्ष में केवल 118 सदस्य ही हैं? जाहिर है कि कई विरोधी सदस्यों और कुछ विरोधी दलों ने मतदान में भाग ही नहीं लिया याने उन्होंने सोनिया के प्रति कोई खास उत्साह नहीं दिखाया ! जॉर्ज फर्नांडीस के सवाल पर जो रवैया कॉंगे्रस का था, वह वामपंथी दलों और समाजवादी पार्टी का नहीं था ! कॉंग्रेसी जॉर्ज का बहिष्कार नहीं कर पाए ! उन्हें मॅंुह की खानी पड़ी ! जॉर्ज जीते, कॉंगे्रस हारी ! अविश्वास प्रस्ताव ने रक्षा मंत्री जॉर्ज में विश्वास की पुष्टि की ! सारे विरोधी दल सरकार के विरूद्घ अविश्वास में एक नहीं हो सके तो सोनिया के प्रति विश्वास में एक कैसे हो जाऍंगे?
इसमें संदेह नहीं कि सोनिया गॉंधी ने जो नौ मुद्रदे उठाए, वे एक दम निराधार नहीं थे लेकिन उनमें से कुछ तो बिल्कुल आत्मघाती थे ! जैसे उदारीकरण पर अगर आप वर्तमान सरकार को भ्रष्ट और दिशाहीन कहेंगे तो उसकी गंगोत्री तो कॉंगे्रस ही रही है ! विदेश नीति के सवाल पर देश को गिरवी रखने आदि की बात में भी क्या दम है? जिन मुद्रदों में दम हो सकता था, वे भी सोनिया की जुबान पर चढ़कर बेदम दिखाई पड़ रहे थे ! भ्रष्टाचार की बात क्या सोनिया के मुंह से शोभा देती है? जब तेलुगु देसम के नेता येरन नायडू ने कहा कि कॉंगे्रस और भ्रष्टाचार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं तो कॉंगे्रस पक्ष की तरफ से खुसफुसाहट तक नहीं हुई | गुड़ खानेवाले गुलगुले से परहेज कैसे करेंगे ? सोनिया ने अनेक दमदार मुद्रदे संसद में जरूर उठाए लेकिन सड़क पर क्यों नहीं उठाए? जो विपक्ष सड़क पर पंगु है, वह संसद में पहलवान बनने की कोशिश करेगा तो उसकी कौन सुनेगा? लोहिया के पास दर्जन-भर सदस्य भी नहीं थे लेकिन संसद में उनकी दहाड़ से सरकारें थर्राती थीं | क्यों ? इसीलिए कि वे सड़कों पर निरन्तर लड़ाइयॉं लड़ते रहते थे | विपक्ष के तौर पर कॉंगे्रस पार्टी और उसकी नेता सोनिया गॉंधी, दोनों ही जमीनी लड़ाइयों से बचते रहे हैं | सत्तापक्ष की तरह राजदंड थामना तो उन्हें बखूबी आता है लेकिन विपक्ष की तरह तलवार भॉंजना उन्होंने अब भी नहीं सीखा है | करगिल में घुसपैठ, कंधार-अपहरण, संसद पर हमला, मुशर्रफ की भारत-यात्रा, पाकिस्तानी सीमांत पर फौजों का फिजूल जमाव, बंगारू-लीला, गुजरात का नर-संहार, चीनी-नीति आदि अनेक मुद्रदे ऐसे रहे हैं कि देश में सचमुच कोई सक्षम विपक्ष होता तो सरकार को लेने के देने पड़ जाते | सोनिया के मुद्रदे बिल्कुल मुर्दार बन चुके थे, इसीलिए उनका सीधा जवाब न तो प्रधानमंत्री ने दिया और न ही उप-प्रधानमंत्री ने | दोनों ने विपक्ष के प्रहारों से झरते हुए ओछे शब्दों, हल्की शैली और मर्यादाहीन आरोपों को उछाला | उन्होंने सिद्घ कर दिया कि यह अविश्वास प्रस्ताव निरर्थक था | पूर्व लोकसभा अध्यक्ष ने अपना संदेह यहॉं तक व्यक्त कर दिया कि कहीं यह प्रस्ताव प्रधानमंत्री के इशारे पर ही तो नहीं रखा गया है ?
यदि इस प्रस्ताव के पीछे कॉंंग्रेस की मन्शा यह थी कि चुनावी चौपड़ का व्याकरण बदल जाए तो उसे निराशा ही हाथ लगेगी | इस प्रस्ताव की धमाचौकड़ी के बावजूद अगले चुनाव का जो एजेन्डा पहले से बनता चला आ रहा है, वह ज्यों का त्यों है | उसमें मुद्दे नदारद हैं | फोकस नेताओं पर है | अब भी मुद्रदों का मुद्दा सिर्फ एक ही है – अटल बनाम सोनिया | भाजपा के बिना भी अटल नेता हैं | क्या कॉंग्रेस के बिना सोनिया कुछ हैं ? सोनिया को पिछले सात-आठ साल में नेता बनने के जितने अवसर मिले, किसे मिलते हैं? इतना बड़ा संगठन, इतना पैसा, इतने अनुभवी सलाहकार, इतना सेंत-मेंत का प्रचार यदि किसी छुटभय्रयन को भी मिला होता तो वह गठबंधन सरकार के सारे बंधन ढीले कर देता | यह काफी नहीं कि पार्टी नेता को अपने कंधों पर ढोए, नेता के कंधे भी इतने मजबूत होने चाहिए कि पार्टी उन पर खड़ी हो सके | पार्टी नेता को बढ़ाती है लेकिन नेता भी तो पार्टी को बढ़ाए |
यदि इस अविश्वास प्रस्ताव को चुनाव का पूर्वाभ्यास माना जाए तो कहा जा सकता है कि विपक्ष वैकल्पिक प्रधानमंत्री उभारने मे असमर्थ रहा है | कॉंग्रेस ही नहीं, समस्त विरोधी दलों को बैठकर सोचना होगा कि अगले वर्ष तक उनकी रणनीति क्या हो | अटल की काट अनुभवहीन सोनिया या अतिवृद्घ ज्योति बसु नहीं हैं बल्कि राष्ट्र्र-निर्माण की सुस्पष्ट नीतियॉं और विभिन्न दलों का गठजोड़ है | इस अविश्वास प्रस्ताव ने जहॉं सत्तारूढ़ गठबंधन के घटकों की एकता को बढ़ाया, वहॉं विपक्ष के संभावित गठबंधन को अच्छा-खासा झटका दिया है | विरोधी नेताओं के भाषणों ने आम जनता को यह दिलासा भी नहीं दिलाया कि अगर वह उन्हें सत्तारूढ़ कर दें तो वे देश में बेहतर सरकार स्थापित कर सकते हैं | याने अविश्वास प्रस्ताव ने सत्ता-पक्ष के प्रति अविश्वास फैलाने की बजाय प्रतिपक्ष के प्रति जनता के विश्वास को पतला कर दिया है | यह ठीक है कि हर अविश्वास प्रस्ताव सरकार गिरानेवाला नहीं होता लेकिन अगर वह सरकार हिलानेवाला भी न हो तो वह किस काम का ? ज़रा याद करें, नेहरू और इंदिरा के ज़माने को | क्या विरोधी नेता उनकी सरकारें गिरा सकते थे? नहीं ! लेकिन वे अक्सर अविश्वास प्रस्ताव लाते थे | कृपालानी और लोहिया, हीरेन मुखर्जी और हेम बरूआ, मधु लिमए और नाथपै ऐसी आग बरसाते थे कि सरकारें झुलस जाया करती थीं | सोनिया गॉंधी के अविश्वास प्रस्ताव से वाजपेयी-सरकारका झुलसना तो दूर की बात है, हुलसना ही हुलसना दिखाई पड़ रहा है |
अविश्वास की बहस के दौरान जितने भाषण विरोधियों के हुए, उनसे ज्यादा समर्थकों के हुए | विरोधी क्या बोले? उनकी कौन-कौन-सी बात लोगों के गले उतरी? रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस के विरूद्घ न तहलका की बात चिपक सकी और न ताबूतों की ख़रीदी की बात | उल्टे जॉर्ज ने अपनी ईमानदारी का खम ठोक दिया | जाहिर है कि करगिल-युद्घ के दिनों में अगर फौज की खरीद में कोई घोटाले हुए हैं तो भी उनका अनुपात और परिमाण वैसा नहीं है, जैसा कि बोफर्स की तोपों का था | कहॉं ताबूत और कहॉं तोप? बोफर्स की तोप संसद में और संसद के बाद भी चलती रही | लोगों का ध्यान करगिल की विजय पर अधिक गया, ताबूतों पर बहुत कम | लोक-लेखा समिति के अध्यक्ष बूटासिंह की राय का भारतीय जनता के बीच क्या महत्व है? आम मतदाता को यह भी याद नहीं कि इस नाम का कोई व्यक्ति कभी भारत का गृहमंत्री भी था | यदि सतर्कता आयोग की वह रपट सरकार ने लोक-लेखा समिति को नहीं दी, जो फौजी खरीद के बारे में थी तो जॉर्ज का कहना था कि यदि संसद अपने नियम बदल दे तो उन्हें क्या हर्ज है? वे सभी गोपनीय रपटें संसद के पटल पर रख देंगे | क्या ही अच्छा होता कि उक्त रपट के बहाने लाए गए इस अविश्वास प्रस्ताव के दौरान विपक्ष संसद के नियमों को अधिक पारदर्शी बनाने की पहल करता लेकिन उसने नहीं की | अगर की होती तो माना जाता कि वह संसद को वास्तव में विधि-निर्माण का पवित्र मंच मानता है, न कि सिर्फ राजनीतिक अखाड़ा |
विरोधी वक्ताओं ने सरकार पर यदि कोई प्राणलेवा प्रहार किया होता तो वह तिलमिला उठती और कुछ तेजाबी जवाब देती लेकिन ऐसा लगता है कि विरोधी दलों ने अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए तो संयुक्त विचार-विमर्श किया लेकिन सदन में कौन क्या बोलेगा, यह रामभरोसे छोड़ दिया | नतीजा यह हुआ कि हर पार्टी ने अपनी बीन बजाई और दूसरे दिन अखबारों से भी यह पता नहीं चल पाया कि सरकार कटघरे में फंॅसी या नहीं ? पहले दिन बहुत-से लागों ने टी.वी. चैनल भी नहीं देखे | इस बहस ने क्या इतनी उत्तेजना भी पैदा की, जितनी की अटलबिहारी वाजपेयी की पहली सरकार के इस्तीफे के समय और दूसरी बार अविश्वास के समय फैली थी? उस समय भारत ही नहीं, सारी दुनिया उन दोनों बहसों को सॉंस रोककर सुन रही थी | मोरिशस के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवीन रामगुलाम अपनी संसद की कार्रवाई छोड़कर मेरे साथ बैठे उस बहस को पोर्ट लुई में टी.वी. पर देख रहे थे | इस बार सबको पहले से पता था कि कुछ भी होना-जाना नहीं है | यह व्यर्थ का द्राविड़-प्राणायाम है | यदि विपक्ष चाहता तो इस बहस को अपने चुनावी शंखनाद की तरह इस्तेमाल कर सकता था |
लेकिन हुआ, इसका उल्टा ही | सत्ता-पक्ष ने इस बहस से अपने चुनाव अभियान का श्रीगणेश कर दिया | यदि नहीं तो फिर उमा भारती और वसुन्धरा राजे से क्यों बोलवाया गया? क्या उन्होंने अपने राज्यों की राजनीति को संसद में नहीं घसीटा? उप-प्रधानमंत्री ने करोड़ों दर्शकों को, जो मतदाता भी हैं, ऑंकड़ों के जाल में फॅंसाने की बजाय राजनीतिक जुमलों से क्यों बहलाया? सोनिया के सवालों का जवाब देकर लोगों को उबाने की बजाय सुषमा स्वराज और विजयकुमार मल्होत्रा ने सोनिया की खिल्ली क्यों उड़ाई? और प्रधानमंत्री ने अपने जवाब में साफ़-साफ़ कह दिया कि वे चुनाव के मैदान में दो-दो हाथ के लिए तैयार हैं | उनका तेवर लगभग हिकारत से भरा था याने वे कुछ ऐसा दिखा रहे थेेेेेे मानो विरोधियों को यही पता नहीं कि संसद में किस तरह की भाषा का इस्तेमाल होना चाहिए | यद्यपि उनकी आपत्तियॉं सही थीं लेकिन उन्होंने विरोधियों के प्रहारों को यों उड़ा दिया, जैसे कि बच्चों के खेल को उड़ाया जाता है | इसकी जिम्मेदारी समस्त विरोधी दलों पर ही है, जो सड़क पर कमजोर लेकिन संसद में पहलवान दिखना चाहते हैं |
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