नभाटा, 01 मार्च 2004। भाजपा के साधारण कार्यकर्ता बड़े अचम्भे में हैं| उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि उनके नेताओं को क्या हो गया है| कभी वे वरुण गॉंधी को उनके सिर पर बैठा रहे थे तो कभी डी.पी. यादव को और कभी हेमा मालिनी को ! ये तीनों व्यक्ति नहीं, प्रतीक हैं| त्रिदोष के प्रतीक ! राजनीति के तीन दोष ! वंशवाद, अपराधवाद और झटपटवाद ! क्या भाजपा का कॉंग्रेसीकरण हो रहा है ? क्या चाल, चेहरा और चरित्र की बात पीछे छूट गई है ? क्या भारतीय राजनीति में विचारधारा की अंत्येष्टि हो गई है ? ये प्रश्न ऐसे हैं, जिनका जवाब हॉं या ना में नहीं दिया जा सकता है| रंग तो दो ही हैं| काला और सफेद लेकिन इनके बीच तरह-तरह की झांइयॉं हैं|
सबसे पहले वंशवाद ! भाजपा और कॉंग्रेस के वंशवाद में अंतर है| कॉंग्रेस में वंश आता है तो वह पार्टी को प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी बना देता है जबकि भाजपा में वह अपनी प्राइवेट पूंजी को पार्टी-पूंजी बना देता है| नेहरू घराना और सिंधिया घराना, इसके जीवंत उदाहरण हैं| राजमाता विजया राजे सिंधिया और उनकी बेटियॉं कभी अखिल भारतीय या प्रादेशिक भाजपा पर कब्जा नहीं कर पाईं, जैसे कि इंदिरा या संजय या राजीव या सोनिया ने किया है| इसमें संदेह नहीं कि जनसंघ या भाजपा में जो घराने आए वे नेहरू घराने की तरह पार्टी-संस्थापक या पार्टी-निर्माता घराने नहीं थे| यदि श्यामाप्रसाद मुखर्जी, देवप्रसाद घोष, बलराज मधोक, दीनदयाल उपाध्याय, अटलबिहारी वाजपेयी, आडवाणी या कुशाभाऊ के परिवारवाले जनसंघ या भाजपा में आते तो शायद उसका चरित्र भी कॉंग्रेस जैसा हो जाता| यह सुसंयोग है कि भाजपा के ज्यादातर अध्यक्ष या तो अविवाहित लोग हुए या पुत्र-रोग से पीडि़त नहीं रहे|
कॉंग्रेस में भी नेहरू वंश अपवाद है| लाल बहादुर शास्त्री और नरसिंहराव के पुत्रों के अलावा किन-किन नेताओं के पुत्रों ने शीर्ष पर पहॅुंचने की कोशिश नहीं की लेकिन वे सब धरे के धरे रह गए| वे अपने पिताओं तक भी नहीं पहॅुंच पाए| देश को क्या, वे प्रान्त को भी अपनी जेब में नहीं डाल पाए| यदि वंश के कारण ही कोई सफल होता तो असली गॉंधी के वंशज गुमनामी के अंधेरे में क्यों खो गए और एक कमतर गॉंधी के वंशज क्यों दनदना रहे हैं ? इंदिरा गॉंधी भी आइंर् तो कोई नेण्हरू ने उन्हें गद्दी पर नहीं बैठाया| नेहरू के रहते वे कॉंग्रेस-अध्यक्ष जरूर बनीं लेकिन प्रधानमंत्री वे नेहरू के बाद ही बनीं| यदि सिंडीकेट के दादाओं को पटकनी नहीं मारनी होती और उस वक़्त कामराज को किसी ‘गूगी गुडि़या’ की जरूरत नहीं होती तो इंदिरा गॉंधी केवल सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनकर रह जातीं| यदि इंदिरा गॉंधी में अपना खुद का कमाल नहीं होता तो वे 1971 और 1979 का चुनाव भी नहीं जीत पातीं| 1967 और 1977 में भारत की जनता ने जो फैसला दिया, वह वंश-पूजा नहीं, क्षीर-नीर विवेक का उदाहरण है| 1984 में हुई राजीव की विजय वास्तव में दिवंगत इंदिरा गॉंधी की विजय थी| उसके बाद राजीव गॉंधी को एक बार (1989) और राव-केसरी और सोनिया गॉंधी को तीन बार (1996, 1998 और 1999) चुनाव हराकर भारत की जनता ने यह सिद्घ किया कि वह वंशपूजक नहीं है| इसीलिए पि्रयंका और राहुल को बलि का बकरा बनाकर कॉंग्रेसी अपना कल्याण नहीं कर रहे हैं लेकिन अगर भाजपा उनकी टक्कर में वरुण को उतार रही है तो कहा जाएगा, जैसे को तैसा| कॉंटे से कॉटा निकाला जाएगा और विष की औषघि विष होगा| राजीव गॉंधी और सोनिया गॉंधी ही कभी अपने पॉंव पर खड़े नहीं हो सके तो पि्रयंका, राहुल और वरुण कौनसा तीर मार लेंगे? बिना योग्यता, बिना अनुभव, बिना त्याग-तपस्या यदि आप शीर्ष पर पहॅुंच भी जाऍं तो आप क्या कर लेंगे ? खुद भी लुढ़केंगे और देश को भी लुढ़काऍंगे !
नेहरू वंश का कोई व्यक्ति कॉंग्रेस में तो शीर्ष पर पहॅुंच सकता है लेकिन भाजपा में तो यह असंभव ही है| भाजपा अब भी कार्यकर्ता-आधारित पार्टी है| राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े अन्य संगठनों की पकड़ कभी ढीली नहीं हुई है| इसीलिए भाजपा में विजातीय तत्वों का समावेश तो हो सकता है लेकिन वे भाजपा को निगल नहीं सकते| इसीलिए अरुण नेहरू और वरुण गॉंधी जैसे अगणित सदस्यों को वह आसानी से पचा सकती है| वरुण को केवल इसीलिए प्रवेश न दिया जाए कि वह संजय गॉंधी का पुत्र है, यह बात समझ में नहीं आती| वह संजय का पुत्र है तो मेनका का भी तो है| क्या वह फिरोज गॉंधी का पोता नहीं है ? क्या वह केवल इंदिरा गॉंधी का पोता है ? उसकी दादी और पिता की तरफ़ से वह कॉंग्रेसी है तो दादा और मॉं की तरफ से वह बगावती है, प्रतिपक्षी है| जहॉं तक शुद्घ हिन्दुत्ववादियों का प्रश्न है, ज़रा वे अपनी स्मृति को कुरेदें तो पाऍंगे कि कुछ मामलों में वे संजय को अपना हीरो मानते थे| भाजपा में पहॅुंचकर वरुण अपनी मॉं की कुर्सी और पिता की हिन्दुत्ववादी वृत्तियों को मजबूत करेगा| चेतन और अवचेतन दोनों की मालिश होगी|
जहॉं तक अपराधियों के भाजपा-प्रवेश का प्रश्न है, इसमें शक नहीं कि चार दिनों के लिए वैंकय्या नायडू ने कमल को कीचड़ में सान दिया था| इस एक काम ने भाजपा को जितना धक्का पहॅुंचाया है, उतना तहलका और जूदेव कांड ने भी नहीं| पैसे खाने के मामले में सारे नेता और सारे दल एक-जैसे ही हैं| भारतीय राजनीति की यह अपरिहार्य विवशता है लेकिन अपराधियों को गोद लेना तो अभी तक अनिवार्य नहीं हुआ है| उत्तर प्रदेश में अपनी सीटें बढ़ाने का लालच क्या इस हद तक पहॅुंच गया है कि एक-दो सीटों के लिए भाजपा ने सारे भारत में अपनी नाक नीची करना स्वीकार कर लिया था ? सत्ता तो कॉंग्रेस को भी चाहिए लेकिन उसने इतने नीचे गिरना स्वीकार नहीं किया| यदि अखबारों और कार्यकर्ताओं में कोहराम नहीं मचता तो डी.पी. यादव की गिनती शीघ्र ही भाजपा नेताओं में होने लगती|
इसी प्रकार फिल्मी सितारों और खिलाडि़यों को जरूरत से ज्यादा उछालकर भाजपा देश में क्या संदेश पहॅुंचा रही है ? क्या यह नहीं कि वह झटपट चुनाव जीतना चाहती है| किसी भी कीमत पर जीतना चाहती है| सिद्घांत और विचारधारा का कोई खास महत्व नहीं है| इसीलिए राजनीति, नेताओं से ज्यादा अभिनेताओं का खेल हो गया है ? जो अभिनेता अब तक राजनीति में आए है, उनकी भूमिका क्या रही है ? उन्होंने जनता की कौनसी सेवा की है ? अपने आचरण के आधार पर उन्होंने कौनसे लोक-प्रतिमान स्थापित किए हैं ? दक्षिण भारत में जो अभिनेता राजनेता बने, उन्होंने दुश्चारित्र्य, एकाधिकारवाद और परिवारवाद के अलावा कौनसी विरासत छोड़ी है ? उत्तर भारत के अभिनेता मुख्यमंत्री आदि तो नहीं बन सके लेकिन वे राजनीतिक दलों के वोटखेंचू विदूषकों का रोल अच्छी तरह निभाते रहे| इसी भीड़जुटाऊ भूमिका के लिए यदि भाजपा इन अभिनेताओं और खिलाडि़यों का इस्तेमाल कर रही है तो ये लोग छोटी-मोटी कुर्सियॉं पा जाने के लिए इन राजनीतिक दलों का इस्तेमाल कर रहे हैं| इस पारस्परिक शोषण पर किसे कोई आपत्ति क्यों हो सकती है ? यहॉं आपत्ति या चिंता की बात यही है कि यह प्रवृत्ति भारत की राजनीति को खोखला करती चली जाएगी| जिन कार्यकर्ताओं और नेताओं ने जन-सेवा में अपना जीवन खपा दिया, वे हतोत्साहित जरूर होंगे| अभिनेता नेता बनें या न बनें, डर यह है कि हमारे नेता अभिनेता बनने लगेंगे| वंशवाद, अपराधवाद और झटपटवाद के त्रिदोष कुछ नेताओं और दलों में सत्ता की हरारत तो पैदा कर सकते हैं लेकिन भारतीय राजनीति के शरीर को वे निश्चय ही कमजोर कर देंगे|
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