नवभारत टाइम्स, 3 जनवरी 2007 : फांसी तो सद्दाम को लगी है, लेकिन वह अनेक राष्ट्रों, पार्टियों और नेताओं के गले की फांस बन गई है| कुवैत और ईरान को ज़रा अभी छोड़ दें| उन दोनों देशों पर सद्दाम ने हमला किया था| इसीलिए वे तो गद्रगद् हैं, लेकिन लीब्या के अलावा दुनिया का कोई भी राष्ट्र ऐसा नहीं है, जिसने सद्दाम की हत्या को राजवध का दर्जा दिया हो और तीन दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित किया हो| लीब्या के शासक मुअम्मर कज्ज़ाफी को उनकी हिम्मत के लिए दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने दुनिया के सर्वोच्च महाबली को खुली चुनौती दे डाली| कज्ज़ाफी की सहानुभूति पाने के लिए अब सद्दाम तो जिंदा नहीं है, लेकिन उनकी बहादुरी को बर्दाश्त करने के अलावा अमेरिका क्या कर सकता है ? वह लीब्या को एराक़ नहीं बना सकता| दुनिया के धर्म-निरपेक्ष सुन्नी जगत में यासर अराफात, अब्दुल जमाल नासिर और सद्दाम हुसैन की तरह अब कज्ज़ाफी का नाम भी चमकने लगेगा| सद्दाम की हत्या दुनिया के सुन्नियों को अब शायद दो खेमों में बांटने का काम कर सकती है| एक तो सउदी अरब के पोगापंथी जीहजूरिए खेमे में और दूसरे उसामा बिन लादेन के पश्चिम-विरोधी खेमे में| फिलहाल, बादशाह, सुल्तान और शेख चाहे जो कहें, दुनिया का सारा सुन्नी जगत सद्दाम को शहीद और महानायक मान रहा है| सद्दाम की फांसी इस्लामी जगत में एक नए गठजोड़ को जन्म देगी| सद्दामवादी और उसामावादी अब एक हो जाएंगे|
मुस्लिम जगत की कितना विडंबना है कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान-जैसे राष्ट्र अपना मुंह सिए हुए हैं| उनकी जुबान को लकवा मार गया है| वे सद्दाम की फांसी की निंदा नहीं कर रहे| ये दोनों राष्ट्र सद्दाम-विरोधी नहीं हैं| सद्दाम ने इन राष्ट्रों का कोई नुक्सान नहीं किया है, लेकिन हम ये कैसे भूल सकते हैं कि ये दोनों राष्ट्र अमेरिका के अंगूठे के नीचे दबे हुए हैं| यदि काबुल से अमेरिकी फौजें हट जाएं तो हामिद करज़ई को अपनी जान के लाले पड़ जाएंगे और पाकिस्तान को मुशर्रफ ने पूरी तरह अमेरिका का बगलबच्चा बना दिया है| इसीलिए इन दोनों राष्ट्रों ने सद्दाम की फांसी को एराक़ का आंतरिक मामला बताकर छुट्टी पा ली है, लेकिन क्या उन्हें यह पता नहीं कि इसी फांसी को अल-क़ायदा के लोग अब करज़ई और मुशर्रफ के गले का फंदा बनाने की कोशिश करेंगे ?
भारत की प्रतिक्रिया भी अजीब है| केवल साम्यवादी पार्टियां और मुस्लिम-वोटप्रेमी पार्टियां ही सद्दाम की फांसी की निंदा कर रही हैं| साम्यवादी इसलिए कर रहे हैं कि उन्हें हर क़ीमत पर अमेरिका का विरोध करना है| स्वयं सद्दाम ने एराक़ के कम्युनिस्टों की जमकर धुनाई की थी| साम्यवादियों को इसकी भी चिंता नहीं है कि सद्दाम तानाशाह था और उसने ईरान के आयतुल्लाहों के विरुद्घ अमेरिका से सांठ-गांठ कर रखी थी| यदि साम्यवादियों के विरोध में कुछ दम होता तो वे उस सरकार पर पर्याप्त दबाव डालते, जो उनके टेके के बिना एक दिन भी नहीं चल सकती| जो अन्य दल सद्दाम की फांसी पर आंसू बहा रहे हैं, उनका मुख्य लक्ष्य अपने-अपने राज्य के चुनावों में मुस्लिम वोट कबाड़ना है| सद्दाम की फांसी को इस्लामी रंग दिया जा रहा है| मज़हबी कार्ड खेला जा रहा है| जो लोग ऐसा कर रहे हैं, वे भूल गए कि पारंपरिक अर्थों में सद्दाम मुसलमान ही नहीं थे| वे इस्लामी तो बिल्कुल नहीं थे| उन्होंने एराक़ के सारे मुल्ला-मौलवियों को ठिकाने लगा दिया था| वे मुहम्मद अली जिन्ना, बबरक कारमल और नजीबुल्लाह की शैली के मुसलमान थे| सद्दाम को मज़हबी चश्मे से देखना बिल्कुल गलत है| सद्दाम पर शिया-सुन्नी तास्सुब खड़ा करना भी उचित नहीं है| वह एराक़ की अंदरूनी राजनीति थी| उसका भारत से क्या लेना-देना ? भारत के मुसलमान सद्दाम को लेकर शिया-सुन्नी खेमे में बंटें, यह बड़ी बदकि़स्मती है| वे अपने आपको तथाकथित अन्तरराष्ट्रीय इस्लाम की कठपुतलियां क्यों बनाएं ? वे हर अन्तरराष्ट्रीय मसले पर अपनी राय गुण-दोष के आधार पर क्यों नहीं बनाते ?
यदि गुण-दोष के आधार पर देखें तो सद्दाम भारत के परम मित्रें में से रहे हैं| बांग्लादेश संकट के समय उन्होंने खुलकर भारत का साथ दिया| कश्मीर के सवाल पर उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय इस्लामिक संगठन में भारत के पक्ष का समर्थन किया| बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय उन्होंने एराक़ में किसी भी प्रकार का प्रदर्शन नहीं होने दिया| उन्होंने भारत को सदा रियायती दामों पर तेल दिया| भारत-एराक़ व्यापार को 25 हजार करोड़ रु. तक बढ़ाया| भारतीय कंपनियों को रेल, सड़कें, पुल और भवन आदि बनाने के बड़े-बड़े ठेके दिए| भारतीय सैन्य अकादमियों से एराक़ी फौजियों को प्रशिक्षित किया| भारत के अनेक नेताओं के साथ उन्होंने घनिष्ठ व्यक्तिगत संबंध बनाए| एराक़ और भारत के संबंध इतने गहरे थे कि अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार ने संसद में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करवाया और एराक़ पर अमेरिकी कब्जे का विरोध किया| अब आश्चर्य है कि वही भाजपा सद्दाम की हत्या पर मौन है| वह राजनीतिक दल है या नहीं ? भाजपा के मौन ने उसकी प्रतिष्ठा को पैंदे में बिठा दिया है| उसे अमेरिका का पिट्रठू-सा बना दिया है| क्या भाजपा भी सद्दाम को मज़हबी चश्मे से देख रही है ? यदि हां तो माना जाएगा कि वह जवाबी सांप्रदायिकता के खांचे में फंस गई है| यदि नहीं तो उससे पूछा जाएगा कि क्या सद्दाम की हत्या उसी अमेरिकी कब्जे की संतान नहीं है, जिसकी भाजपा ने निंदा की थी ?
कांग्रेस पार्टी को सद्दाम के पक्ष में डटकर खड़े होना चाहिए था, लेकिन उसकी जुबान भी हकला रही है| सरकार की दुविधा तो समझ में आती है| यह नेहरू या इंदिरा गांधी की सरकार नहीं है, जो किसी अन्याय के विरुद्घ सीना तानकर खड़ी हो जाए| बाबुओं की सरकार सद्दाम की फांसी पर निराश है, यह क्या कम है ? ईरान और कुवैत की तरह उसने मिठाइयां नहीं बांटी, यह गनीमत है| उसे अमेरिका के साथ परमाणु-सौदा संपन्न करना है| वह अमेरिका का समर्थन करेगी या सद्दाम का ? सद्दाम उसे क्या दे देगा ? सद्दाम की दोस्ती सद्दाम के साथ गई| अब तो उसे बुश और हिलेरी क्लिंटन से अपना मतलब गांठना है| भारत ने अमेरिका का अनुचर बनना स्वीकार कर लिया है| उसे अब तीसरी दुनिया की नेतागीरी की कोई हसरत नहीं है| यदि हसरत होती तो 2003 में ही अमेरिकी हमले के विरुद्घ हो रहे विश्व-व्यापी प्रदर्शनों का वह नेतृत्व करता और अब तक अमेरिका को एराक़ से भागने के लिए मजबूर कर देता| सद्दाम की हत्या पर यदि अमेरिका को कोई खरोंच भी नहीं लगी तो वह कि़स्सा कई अन्य देशों में भी दोहरा सकता है| ताज़ातरीन हादसा यह है कि वह अब एराक़ की तरह सोमालिया में भी घुसने की कोशिश कर रहा है|
(लेखक अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और राजनीतिक विचारक हैं)
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