रा. सहारा, 13 अप्रैल 2003: पश्चिमी टी.वी. चैनलों पर सद्दाम हुसैन जिस तरह लुढ़क रहे हैं, अगर असलियत यही है तो इससे अधिक शर्मनाक क्या हो सकता है| 24 साल तक एकछत्र राज करने के बावजूद बगदाद की लड़ाई आप 24 घंटे भी नहीं चला पाए, इस पर दुनिया को भरोसा नहीं हो रहा| ज़रा याद करें, द्वितीय महायुद्घ में लेनिनग्राद के घेराव को ! ज़रा याद करें, 1978 में सरदार दाऊद के तख्ता-पलट को| यदि जनता और फौज में सद्दाम-भक्ति नहीं थी तो न सही| कम से कम आप में तो आत्म-गौरव होना था| जिस दिन आप बगदाद की सड़कों पर दिखाई दिए, उसी दिन बंदूक पकड़कर बसरा चले जाते और शहीद हो जाते तो सारी दुनिया में आपका नाम हो जाता| काबुल के राजमहल में जब फौजियों ने तख्ता-पलट किया तो उन्होंने राष्ट्रपति दाऊद से आत्म-समर्पण के लिए कहा| समर्पण की बात जिस फौजी ने कही, उससे दाऊद ने कहा कि ‘क्या किसी शेर ने कभी किसी कुत्ते का आदेश माना है?’ यह कहकर दाऊद ने उसे अपनी पिस्तौल से ढेर कर दिया| नतीजन, सारा दाऊद परिवार और सैकड़ों अंगरक्षक मारे गए लेकिन आज तक कोई यह नहीं कह सकता कि दाऊद कायर या भगोड़े थे| जो लोग अमेरिकी कार्रवाई को सर्वथा अनैतिक मानते हैं, वे भी सद्दाम की शौर्यहीनता से व्यथित हैं|
यह माना जा सकता है कि एराक पर अब अमेरिकी कब्जा हो गया है| कब्जा ऐसी चीज़ है, जिसका खाना तो सरल है लेकिन पचाना कठिन है| अब नई उधेड़-बुन, नई जोड़-तोड़ शुरू हो गई है| कल तक जो अमेरिका पर थूक रहे थे, अब वे ही लार टपका रहे हैं| फ्रांस, जर्मनी और रूस लालायित हैं कि उन्हें ठेके मिल जाऍं और वे भी एराकी दीनारों को दोनों हाथों से उलीचें| बि्रटेन के धन्ना-सेठ चाहते हैं कि वे अमेरिकी धन्ना-सेठों से भी आगे निकल जाऍं, क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री ब्लेयर का इतना जबर्दस्त समर्थन किया था कि ‘बड़े मियॉं तो बड़े मियॉं, छोटे मियॉं सुभानअल्लाह’ बन गए हैं| अगर ब्लेयर को बुश से अधिक कटुता झेलनी पड़ी है तो अब उनके हिस्से में मधुरिमा भी अधिक ही आनी चाहिए| अमेरिकी और बि्रटिश उद्यमियों में मैत्रीपूर्ण खींचातानी शुरू हो गई है| भारत भी पीछे नहीं है| संसद में निन्दा-प्रस्ताव तो पारित हो गया लेकिन अब सरकार स्तुति-पाठ के अभ्यास में जुट गई है| एराक के अमेरिकी ठेकों की जूठन बटोरने में जुटी सरकार की रक्षा अब हिन्दी ही करेगी| हिन्दी के ‘निन्दा’ शब् का गलत अंग्रेजी अर्थ बताकर यह सरकार अपनी खाल बचाएगी और अमेरिकियों से कहेगी कि हमारी संसद ने केवल ‘आलोचना’ की है या ‘खेद’ व्यक्त किया है| याने हिंदी धोखा देने के लिए है, सेवा के लिए नहीं है| अपने आपको ‘राष्ट्रवादी’ कहनेवाली इस सरकार से कोई पूछे कि पिछले पॉंच साल में उसने हिंदी के लिए क्या किया है?
मानव-संसाधन विकास मंत्री डॉ. मुरली मनोहर जोशी के अभिनंदन-ग्रंथ का नाम है – सौवर्र्र्र्र्र्ण ! सौ वर्ण याने सौ रंग ! यह शीर्षक सुमित्रानंदन पंत के एक नाटक से लिया गया है| यह गंरथ इतना सुंदर और विलक्षण बन पड़ा है कि इसे कहीं और से नाम उधार लेने की जरूरत नहीं रह गई है| नंदन-ग्रंथ इन ऑंखों के सामने से गुजरे हैं लेकिन जैसी सुरुचि, आत्मीयता और पांडित्य इस ग्रथ में है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है| जोशीजी देखने में जैसे मनोहर हैं, उनके चित्रों में वे उनसे भी अधिक खिल उठे हैं| अटलजी, चंद्रशेखरजी, विश्वनाथप्रतापजी और गुजरालजी के साथ उनके चित्र हैं लेकिन आडवाणीजी के साथ उनका कोई अलग चित्र क्यों नहीं है? जो है, वह एक संयुक्त-सा चित्र है| प्रधानमंत्री तो देवेगौड़ाजी भी रहे हैं| सम्पादकगण उन्हें भी भूल गए हैं| ग्रंथ में जोशीजी के बारे में डेढ़ सौ पृष्ठ हैं, जो आत्मीय प्रसंगों और मूल्यांकन से ओत-प्रोत हैं| शेष दो सौ पृष्ठों में शिक्षा, भारतीय संस्कृति, दर्शन, विज्ञान, तकनीक तथा समाज शास्त्र आदि विषयों पर देश के चुने हुए विद्वानों के लेख हैं| इसीलिए यह ग्रंथ दर्शनीय के साथ-साथ संग्रहणीय भी बन गया है| संपादिका डॉ. मीरा श्रीवास्तव ने वास्तव में उल्लेखनीय कार्य कर दिया है|
हर साल रामनवमी पर श्री बसंतकुमार बिड़ला मध्यान्ह-भोज का आयोजन करते हैं| इसी दिन घनश्यामदासजी बिड़ला का जन्म-दिन भी होता है| बिड़ला-परिवार के लगभग सभी सदस्य इस भोज में शामिल होते हैं| भोज का आयोजन, जिस फॉर्म हाउस में होता है, उसका नाम है – ‘मुदित परिवेश’! हर साल प्रसिद्घ कथावाचक रामकिंकरजी महाराज की उपस्थिति अत्यंत महत्वपूर्ण होती थी| लेकिन इस बार वे कैसे होते? अब वे सशरीर वहॉं कभी नहीं होंगे लेकिन इस बार कृष्णकुमारजी बिड़ला वहॉं दिखे| शोभना भरतिया तो हमेशा आती ही हैं| इस बार उनके पुत्र और पुत्रवधू भी वहॉं थे| हिंदी के कुछ गिने-चुने साहित्यकार भी वहॉं होते हैं| बसंतकुमारजी अतिथियों को खुद बड़े प्रेम से भोजन कराते हैं लेकिन समय की जितनी पाबंदी उनके यहॉं है, उतनी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री निवास में भी नहीं होती| ठीक साढ़े बारह बजे लोग आ जाते हैं और डेढ़ बजे तक हाल खाली हो जाता है| प्रत्येक अतिथि का व्यक्तिगत स्वागत बसंतकुमारजी और उनकी पत्नी सरलाजी बड़े मनोयोग से करते हैं| सरलाजी प्रसिद्घ विदर्भ-केसरी श्री ब्रजलाल बियाणी की सुपुत्री हैं| बियाणीजी अपने अंतिम दिनों में इंदौर में रहते थे और विश्व-विलोक नामक पत्रिका चलाते थे| अब से 40 साल पहले उस पत्रिका में लिखने और लगभग प्रतिदिन बियाणीजी का दर्शन करने का सुयोग हुआ करता था|
पूर्व प्रधानमंत्री ह.डो. देवेगौड़ा आजकल घर से संसद आने-जाने के लिए संसदीय बस का इस्तेमाल करते हैं| उसका किराया पॉच रु. है| इसका मतलब यह नहीं कि उनके पास कार नहीं है| कार है और ड्राइवर भी है| उनके गॉंव का जो लड़का खाना बनाता है, वह कार भी चलाता है| लेकिन इस बार उनकी पत्नी और दो पोते भी साथ आए हुए हैं| कार उन्हीं के काम आती है| एस.पी.जी. की जो बुलेट-प्रूफ सरकारी कार उन्हें मिली हुई थी, वह हटा ली गई है, क्योंकि उन्होंने एस.पी.जी. हटाने के लिए प्रधानमंत्री को एक पत्र लिख दिया था|
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