दैनिक भास्कर, 11 अक्टूबर 2007 : सरकार को यों तो दस दिन की मोहलत और मिल गई है लेकिन वह यह समझ नहीं पा रही है कि कम्युनिस्टों के साथ चल रही रस्साकशी में वह रोज़ अपना कितना नुकसान करती जा रही है| 22 अक्तूबर तक मोहलत मिलने के कारण सेंसक्स में तो उछाल आ गया लेकिन सरकार के इक़बाल में कितनी गिरावट आ गई, क्या इसका अंदाज कॉंग्रेसियों को है? सेंसेक्स का जादू किन पर चलता है? देश के 5-7 प्रतिशत लोगों पर! क्या इनके वोट के दम पर कोई सरकार खड़ी की जा सकती है? और सेंसक्स तो बहुत निर्मम है| जिस दिन सरकार गिरने की नौबत आई, वह सैकड़ों सूचकांक नीचे लुढ़क जाएगा|
सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों ने एक अ-मुद्दे को मुद्दा बना लिया है| और मुद्दा भी ऐसा कि जैसे कोई जीवन-मरण का सवाल हो| यदि भारत-अमेरिकी परमाणु सौदा संपन्न न हो तो भारत का क्या बिगड़ जाएगा? और यदि सौदा संपन्न हो जाए तो क्या भारत रातोंरात मालामाल हो जाएगा? क्या वह महाशक्ति बन जाएगा? क्या परमाणु बिजली इतनी सस्ती और इतनी ज्यादा हो जाएगी कि भारत का हर घर वातानुकूलित हो जाएगा? इन प्रश्नों का जवाब दिए बिना कॉंग्रेसी और कम्युनिस्ट आपस में भिड़े हुए हैं|
कम्युनिस्टों ने अपनी छवि काफी खराब कर ली है| वे गीदड़ भभकियों के सरताज़ बन गए है| एक ही नाक के दोनों नथुनों से वे उल्टी और सीधी सॉंस एक साथ ले रहे हैं| प्रधानमंत्री ने कलकत्ते में कह दिया कि उन्हें जो करना है, वे कर लें और सोनिया गांधी ने हरयाणा में कह दिया कि जो परमाणु सौदे का विरोध कर रहे हैं, वे विकास-विरोधी हैं| इसके बावजूद प्रणव मुखर्जी द्वारा आयोजित संयुक्त बैठक में से हमारे कॉमरेड लोग हॅंसते-मुस्कराते बाहर निकल आते हैं| अखबारों के चित्र् देखकर समझ पाना कठिन होता है कि हम नेताओं को देख रहे हैं या मसखरों को देख रहे हैं| किसी चुनी हुई सरकार को चलाना या गिराना मसखरी बन गया है| अमेरिका-विरोध का नशा कम्युनिस्टों पर इतना सवार है कि वे कुछ भी करने को उतारू हैं| वे अपने पूर्व-स्वामी देशों से भी कोई सबक नहीं ले रहे| आज चीन और रूस का रवैया क्या है और अमेरिका के साथ उनके रिश्ते कैसे हैं, यह जानने की जरूरत भी हमारे कम्युनिस्ट नहीं समझ रहे| यदि अपने आदतन अमेरिका-विरोध पर वे काबू पा सकें तो वे सचमुच भारत की बड़ी सेवा कर सकते हैं| हिंदुस्तान के राजनीतिक दलों में सर्वाधिक सि़द्घांतनिष्ठ और पाक-साफ लोग कम्युनिष्ट पार्टियों में ही हैं| अगर वे कॉंग्रेस पार्टी के नेताओं और कार्यकर्त्ताओं को यह समझा सकें कि वे इस परमाणु-सौदे को अमेरिका-विरोध के कारण नहीं, भारत के राष्ट्रहित की रक्षा के कारण रद्द कर रहे हैं तो वे कॉंग्रेस का भी भला करेंगे और खुद का भी! बार-बार सरकार गिराने की धमकी देना और परमाणु उर्जा आयोग के अध्यक्ष को वियना में और वियना की परमाणु एजेंसी के अलबरदेई को नई दिल्ली में बर्दाश्त करना आखिर किस बात का सूचक है? या तो कामरेड चुप हो जाऍं या अपनी धमकी को अंजाम दें|
ज़रा सोचें कि इस मुद्दे पर कम्युनिस्टों ने सरकार गिरा दी तो क्या होगा? पं. बंगाल और केरल में भी लोकसभा की सीटें बचाना मुश्किल हो जाएगा| इन दोनों प्रांतों के आम मतदाताओं को परमाणु-सौदे से क्या लेना देना है? उनको तो कुछ दूसरे स्थानीय मुद्दे ही मथित कर रहे हैं| इसीलिए बंगाल के कम्युनिस्ट नेता अपने राष्ट्रीय नेताओं की नीति का स्पष्ट समर्थन नहीं कर रहे हैं| यदि परमाणु-सौदे को लेकर कम्युनिस्ट पार्टियॉं चुनाव के मैदान में उतरेंगी तो उन्हें कौन वोट देगा? उल्टे, उन पर यह आरोप लगेगा कि कांग्रेस की बुर्जुआ नीतियों पर वे खर्राटे खींचती रहीं| हजारों किसान आत्महत्या करते रहे, दाल और सब्जियों के भाव आसमान छूते रहे, 80 करोड़ से ज्यादा लोगों को रोजाना 20 रूपये से भी कम पर गुजारा करना पड़ रहा है, ग्रामीण रोजगार योजना सफल नहीं हो पा रही है, गॉंव और शहर का फासला बढ़ता चला जा रहा है, वर्ग-चेतना की बजाय जाति-चेतना ने भारतीय राजनीति का टेंटुआ कस लिया है, फिर भी भारत की कम्युनिस्ट पार्टियॉं एक ऐसे मुद्दे को तूल दिए हुए हैं, जो चुनाव की दृष्टि से बहुत दूर की कौड़ी है| इसका मतलब यह नहीं कि कम्युनिस्ट पार्टियॉं गलत हैं| असली प्रश्न यह है कि परमाणु-सौदे के मुद्दे को क्या वे सारे देश की जनता के गले उतार सकती हैं? क्या वे सारे देश में इस मुद्दे पर कॉंग्रेस को टक्कर दे सकती हैं? क्या बंगाल और केरल के बाहर उनकी कोई हैसियत है? वे मूलत: क्षेत्रीय पार्टी हैं| उनकी राजनीति का मूलाधार स्थानीय मुद्दे हैं| वे क्या सोचकर विदेश नीति के एक उलझे हुए मुद्दे को अपना चुनावी परचम बनाने पर आमादा हैं?
जहॉं तक कॉंग्रेस का प्रश्न है, उसकी हालत कम्युनिस्टों से भी बदतर है| जैसे कभी हमारे कम्युनिस्ट सोवियत रूस औरचीन के लिए चिता में कूदने को तैयार रहते थे, वैसे ही आज कॉंग्रेस अमेरिका के लिए सती होने को तैयार है| क्यों है, समझ में नहीं आता| यह सौदा अभी ही संपन्न होना चाहिए, बुश के रहते हुए ही संपन्न होना चाहिए, यह अभी नहीं हुआ तो कभी नहीं होगा-इस तरह की बातें कॉंग्रेस क्यों कर रही है? इसका रहस्य क्या है? यह किन्हीं नेताओं का निजी मामला नहीं है| यह राष्ट्रीय मामला है| राष्ट्र की संसद और राष्ट्र की जनता की राय लिये बिना इसे संपन्न करना कहॉं तक उचित है? जिस बुश को सारी दुनिया नफरत की नज़र से देख रही है और जिसे निकाल बाहर करने के लिए अमेरिकी जनता कसमसा रही है, उसे हम अपना ‘सबसे बढि़या दोस्त’ घोषित करें और उसके लिए अपनी सरकार गिरवा ले, यह कौनसी राजनीति है? इस सौदे में कई घोर आपत्तिजनक प्रावधान हैं लेकिन मान लें कि नहीं हैं तो भी क्या हम साल-दो साल रूक नहीं सकते? अनेक अन्तरराष्ट्रीय समझौते ऐसे भी हुए हैं, जिन पर सालों-साल खींचा-तानी चलती रही है|
यदि इस सौदे को लेकर सरकार गिर गई तो सौदे का क्या होगा? क्या वह उठ पाएगा? उसे कौन उठाएगा? चुनाव में फॅंसी सरकार यदि सौदे पर दस्तखत करेगी तो वह उसकी मौत का परवाना होगा| हमारे चुनाव संपन्न होते-होते बुश की सरकार ‘लंगड़ी बत्तख’ की मुद्रा में आ जाएगी| वह भी हमारी सरकार की तरह सौदे पर दस्तखत करने का नैतिक अधिकार खो देगी| इसीलिए सरकार गिराने की कोई तुक दिखाई नहीं पड़ती| कुछ लोगों का मानना है कि कॉग्रेस खुद चुनाव का बहाना ढूंढ रही है| वह सोचती है, 9 प्रतिशत की आर्थिक प्रगति, सेंसक्स का उछाल, विदेशी मुद्रा की भरमार, मध्यम वर्ग की पौ-बारह, किसी बड़े धांधले की बदनामी का अभाव-ये वे तत्व हैं, जो उसे 200 सीटों तक पहुंचा देंगे| क्या यह सिर्फ ख्याली पुलाव नहीं है? विदेश-नीति के एक जटिल और निर्गुण मुद्दे पर वह वोटों की सगुण-साकार फसल कैसे काटेगी? किन पार्टियों से वह गठबंधन करेगी और कौनसी पार्टियॉं परमाणु मुद्दे पर उसका साथ देंगी| इस बार बिल्ली के भाग से जो छींका टूटा है, वह भी हाथ से जाता रहेगा| फुनगी पर बैठी बुलबल को पकड़ने के लिए वह हाथ के कबूतरों को क्यों उड़ा रही है? अगर वह इस मुद्दे को साल-दो साल के लिए टाल दे तो नई दिल्ली और वाशिंगटन में बैठी नई सरकारें इस पर शांतिपूर्वक विचार करेंगी और इस बीच मनमोहन-सरकार को जो समय मिलेगा, उसका वह आत्महत्या करते हुए किसानों को बचाने, 80 करोड़ लोगों को मनुष्यों की सुविधा देने और 9 प्रतिशत की प्रगति को गांवों तक पहुंचाने में उपयोग करेगी| अगर वह यह कर सकी तो दो साल बाद उसे लौटने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी| अपनी वापसी के दौरान व उस विवादास्पद सौदे पर भी जनता की मुहर लगवा सकती है|
(लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष है)
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