दैनिक भास्कर, 22 अगस्त 2007 : इस समय सबसे ज्वलंत प्रश्न यही है कि क्या मनमोहन-सरकार गिर जाएगी? और गिर गई तो देश की राजनीति किधर जाएगी? परमाणु-समझौते का क्या होगा? भारत की विदेश नीति पर उसका क्या असर पड़ेगा?
सरकार के गिरने का अंदेशा इसलिए बढ़ गया है कि वामपंथियों द्वारा निकाला गया मध्यम मार्ग भी सरकार के गले नहीं उतर रहा है| शनिवार को अनेक टीवी चैनलों ने प्रचार कर दिया था कि अमेरिका के साथ हो रहे परमाणु-समझौते पर विचार करने के लिए सरकार एक कमेटी बैठा रही है| कमेटी का मतलब ही होता है, टालू मिक्शचर| किसी भी मसले को टालना हो तो उसे कमेटी के हवाले कर दीजिए| आप जब चाहें और जैसा चाहें, वैसा फैसला कमेटी कर देगी लेकिन कॉंग्रेस पार्टी इस पर राजी नहीं दिखाई पड़ती| कहा जा रहा है कि हमारी इस चालाकी को अमेरिकी समझ जाऍंगे और समझौता भंग हो जाएगा| भारत सरकार की विश्वसनीयता खतरे में पड़ जाएगी| याने कॉंग्रेस पार्टी को सरकार भंग होने की उतनी चिंता नहीं है, जितनी समझौता भंग होने की है| संसद का विश्वास खो देने को वह तैयार है लेकिन वह बुश प्रशासन का विश्वास खोने को तैयार नहीं है|
क्या ऐसा इसलिए है कि हमारे कम्युनिस्टों को कांग्रेस केवल कागजी शेर समझती है? उन्हें क्या उसने जबानी जमा-खर्च वाला दुकानदार मान रखा है? यदि हॉ तो ऐसा लगता है कि इस बार कॉंग्रेस पार्टी धोखा खा जाएगी| कम्युनिस्ट इतने आगे बढ़ गए हैं कि अब वे पीछे नहीं लौट सकते| अगर लौटेंगे तो खाई में गिरेंगे| बेचारे प्रकाश कारत, येचुरी और बर्द्घन जैसे लोगों की बात जाने दें, सोमनाथ चटर्जी और ज्योति बसु जैसे लोकपि्रय नेता भी चुनाव में मुंह की खाऍंगे| बंगाल और केरल में सिकुड़े हुए वामपंथी दलों का उनके गढ़ो में ही सफाया हो जाएगा| अब तक भारतीय कम्युनिस्ट गाहे ब गाहे नेहरू और इंदिरा के हाथ के खिलौने बनते रहे लेकिन वे मनमोहनसिंह को इतनी छूट नहीं देंगे| यहां सवाल उनके जानी दुश्मन का है| अमेरिका का है| अमेरिका ने कार्लमार्क्स को दफना दिया, सोवियत संघ को भंग करवा दिया, चीन को पूंजीवाद का पथिक बना दिया और दुनिया के कम्युनिस्टों की कमर तोड़ने के लिए बड़ी से बड़ी तिकड़मे कीं| ऐसे अमेरिका के साथ, उस सरकार को वे कोई समझौता क्यों करने देंगे, जो उनके सहारे पर टिकी हुई है| इस समझौते में अनेक छेद हैं| अगर नहीं होते तो भी कम्युनिस्ट इसका विरोध जरूर करते| अगर इसी तरह का समझौता कभी पहले या आज भी रूस या चीन के साथ हो तो जाहिर है कि हमारे वामपंथी उसके समर्थन के लिए कोई न कोई तर्क ढूंढ लाते|
फिर भी मानना पड़ेगा कि इस सारे मामले में भारत के कम्युूनिस्ट काफी संजीदा ढंग से काम कर रहे हैं| उन्होंने वैसा पलट-प्रहार नहीं किया, जैसा वी.पी. सिंह पर भाजपा ने किया था| मनमोहनसिंह की उत्तेजक टिप्पणी के बावजूद उन्होंने बीच का रास्ता निकाला है| यह कहना गलत है कि भारत-अमेरिकी परमाणु समझौता या तो तुरंत संपन्न हो या वह भंग हो जाएगा| यह जरूरी नहीं कि अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा अभिकरण की सितंबर में होने वाली बैठक में भारत-केंदि्रत विशेष प्रोटोकॉल पर दस्तखत होने ही चाहिए| क्यों होने चाहिए? भारत सरकार ने क्या लिखित में ऐसा कोई वायदा किया है? क्या समझौते के मूलपाठ में ऐसी कोई शर्त है? नहीं है| आई.ए.ई.ए. के साथ प्रोटोकॉल की यह बात चाहे जितनी देर बाद शुरू की जा सकती है और चाहे जितनी लंबी खींची जा सकती है| इसी प्रकार ‘परमाणु सप्लायर्स क्लब’ के 46 सदस्यों का अधिवेशन मई 2008 में होगा| भारत के लिए वे जल्दबाजी क्यों करेंगे और भारत उन्हें जल्दबाजी के लिए क्यों ठेले? भारत अगर चाहे तो वह उसे मई 2008 के आगे भी खिसका सकता है| इन दो शर्तो के पूरा हुए बिना इस समझौते पर दस्तखत नहीं होगे| इन दोनों शर्तो को पूरा करवाने की अवधि के दौरान भारत सरकार एक साथ दो काम कर सकती है| एक तो वह गैर-कॉंग्रेसी दलों को पटाए-समझाए और दूसरा वह बुश-प्रशासन के साथ दुबारा वार्ता करे| यह प्रकि्रया इतनी लंबी खिंच सकती है कि भारत और अमेरिका, दोनों देशों में चुनाव का समय आ जाए| तब तक सरकार बनी रहे और समझौता भी अधर में लटका रहे|
इस बीच में यह भी संभव है कि अमेरिका की सीनेट ही इस समझौते को रद्द कर दे| भारत सरकार के सुयोग्य अफसरों ने पिछले दो वर्षो में एड़ी-चोटी का जोर लगाकर ऐसे-ऐसे शब्द इस समझौते में घुसवा दिए हैं कि जिनसे अमेरिकी संसद (कॉंग्रेस) के कानूनों का स्पष्ट उल्लंघन होता है| कांग्रेस अपने राष्ट्रपति का यों तो काफी सम्मान करती है लेकिन कई बार राष्ट्रपति की ही पार्टी का बहुमत होने के बावजूद वह राष्ट्रपति द्वारा की गई संधियों को रद्द कर देती हैं| राष्ट्रपति वुडरो विल्सन राष्ट्रसंघ के मामले में और राष्ट्रपति क्लिंटन सीटीबीटी के मामले में पहले ही मात खा चुके हैं| बुश के मात खाने की संभावना अब इसलिए भी ज्यादा हो गई है कि अमेरिकी कॉंग्रेस के दोनों सदनों में विरोधी दल (डेमोक्रेटिक पार्टी) का बहुमत हो गया है| इसके अलावा दिसंबर 2006 में अमेरिकी कांग्रेस ने ‘हाइड एक्ट’ इसलिए पास किया था कि कहीं भारत के तेज़-तर्रार अफसर बुश-प्रशासन को बुद्घू न बना जाऍ| भारत के प्रधानमंत्री के लिए ‘हाइड एक्ट’ सबसे सुरक्षित गली है| उस गली में फंसते ही यह समझौता अपने आप दम तोड़ देगा| वे बड़बोले बनकर अपनी सरकार क्यों गिरवाना चाहते हैं|?
यदि सरकार गिर गई तो कॉंग्रेस और वामपंथियों को बराबरी का नुकसान होगा| दोनों एक-दूसरे को देशद्रोही सिद्घ करेंगे| वामपंथी लोगों को बताऍंगे कि मनमोहनसिंह कैसे भारत की संप्रभुता को अमेरिका के हाथों गिरवी रख रहे थे और कांग्रेसी गड़े मुर्दे उखाड़ेंगे और बताऍंगे कि कम्युनिस्टों की नीति ही है, भारत का विरोध करना और रूस और चीन के हितों के लिए लड़ मरना| इस गृहयुद्घ का लाभ भाजपा और तीसरे मोर्चे को मिलेगा| कांग्रेस-गठबंधन की पार्टियॉं रस्सा तुड़ाकर भागेंगी| वे या तो तीसरे मोर्चे में जाऍंगी या भाजपा से हाथ मिलाऍंगी| आम जनता को यह समझना असंभव होगा कि कांग्रेस ने अपनी सरकार क्यों गिराई? परमाणु-मुद्दा इतना उलझा हुआ है कि आम मतदाता उसे समझ ही नहीं पाएगा| कॉंग्रेस को वह सहानुभूति-वोट नहीं मिल सकता, जो कभी भाजपा को मिला था| पता नहीं कांग्रेस पर कौनसा भूत सवार हो गया है? वह बैठे-ठाले आत्महत्या को निमंत्र्ण क्यों दे रही है? वह चाहे तो अमेरिकी कांग्रेस की तरह भारतीय संसद को अंतरराष्ट्रीय संधियों और समझौतों की पुष्टि का अधिकार भी दिलवा सकती है| इस संवैधानिक संशोधन के लिए सभी दल तैयार हो जाऍंगे| इस संशोधन के तहत अगर यह समझौता रद्द हो जाता है तो सॉप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी| जैसे रूज़वेल्ट और क्लिंटन को इस्तीफा नहीं देना पड़ा, वैसे ही मनमोहन-सरकार भी बच जाएगी|
यदि गुस्से में आकर डॉ. मनमोहनसिंह खुद इस्तीफा दे दें तो उससे भी कोई हल निकलनेवाला नहीं है| सोनिया गांधी को मनमोहनसिंह जी की तरह भरोसेमंद आदमी ढूंढना मुश्किल हो जाएगा| अब वे प्रतिभा पाटील को भी प्रधानमंत्री नहीं बना सकतीं| जो भी नया प्रधानमंत्र्ी बनेगा, वह ‘लंगड़ी बत्तख’ ही माना जाएगा| अमेरिका के साथ किया जा रहा यह समझौता क्या इतना फायदेमंद है कि इसके लिए सरकार गिरा दी जानी चाहिए? इस समझौते के न होने पर कुछ फायदों से भारत वंचित जरूर हो जाएगा लेकिन इसके होने पर भारत का कितना नुकसान होगा, इसकी कल्पना कॉंग्रेस-नेतृत्व को अवश्य करनी चाहिए|
(लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष है)
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