राष्ट्रीय सहारा, 14 नवम्बर 2004 : देश में कोई बड़े से बड़ा राजनेता गिरफ्तार हो जाए तो भी किसी को सदमा नहीं पहुंचता लेकिन अगर किसी धर्मध्वजी पर उंगली भी उठती है तो लोग बेचैन हो जाते हैं| कॉंची कामकोटि के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती की गिरफ्तारी ऐसा ही सदमा है| गिरफ्तारी और लंबे मुकदमों के बावजूद हमारे नेतागण अक्सर बरी हो जाते हैं | उम्मीद की जाती है कि धर्मध्वजी भी इसी तरह बरी हो जाऍगें लेकिन बुनियादी सवाल यह है कि हमारे धर्मध्वजी भी उन्हीं कुकर्मों में लिप्त क्यों पाए जाते हैं जिनमें नेतागण पाए जाते हैं? इसका मूल कारण शायद यह है कि साधुओं और नेताओं के जीवन का लक्ष्य एक ही होता है – सत्ता, पैसा और यौन ! लक्ष्य एक ही है लेकिन रास्ते अलग-अलग हैं| एक राजनीति का रास्ता पकड़ता है तो दूसरा अध्यात्म का ! एक के पास जन-सेवा का पर्दा है और दूसरे के पास त्याग का ! सबके अपने-अपने पर्दे हैं| पर्दों के पीछे सब कुछ खुला है| जब तक पर्दा पड़ा रहे, सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहता है| ज्यों ही पर्दा उठता है, तहलका मच जाता है| मोह-भंग हो जाता है| लगता है कि सब कुछ धोखा है| न कोई नेता ईमानदार है और न कोई साधु लेकिन क्या यह सच है? देश में ईमानदार नेताओं और सच्चे साधुओं की कमी नहीं है| वे हैं लेकिन निर्लिप्त| इतने निर्लिप्त कि वे ठगों के विरुद्घ अभियान चलाने में भी ‘लिप्त’ नहीं होना चाहते| उनकी यह निर्लिप्तता उनकी अपनी विश्वसनीयता पर भी प्रश्न-चिन्ह लगा देती है| गेहॅंू के साथ घुन भी पिस जाती है|
लेकिन कुछ अपवाद भी हैं| आंध्र के युवा समाज-सेवक विश्वनाथ स्वामी के नाम पर ध्यान जाता है| इस युवक ने कल्कि अवतार नामक व्यक्ति का भांडाफोड़ किया| अब वह हरिद्वार के कुछ बाबा लोगों के पीछे पड़ा है| कुछ ही दिनों में वह एक-दो नाम-गिरामी ‘आध्यात्मिक दुकानदारों’ के मुंह पर से पर्दा उठाएगा| अध्यात्म के क्षेत्र में चलनेवाली ठगी राजनीति की ठगी से अधिक भयंकर है| राजनीति में तो विरोधी दल की वक्र -दृष्टि के कारण एक-दूसरे के विरुद्घ सतत पोल-खोल अभियान चलता रहता है लेकिन अध्यात्म के क्षेत्र में तो दृष्टि ही नहीं होती| अंधता होती है| अंध-श्रद्घा ! भक्तों की यह अंध-श्रद्घा ही साधु-सन्यासियों की फिसलपट्टी बन जाती है| सन्मार्ग पर चलने के लिए भक्तों को साधुओं के मार्गदर्शन की जितनी जरूरत होती है, उतनी ही जरूरत साधुओं को भक्तों की निगरानी की होती है लेकिन अंध-श्रद्घा के कारण भक्त चूक जाते हैं| इसीलिए उन्हें कभी-कभी सदमे भी उठाने पड़ते हैं|
यासर अराफात के बाद
यासर अराफात और फलस्तीन एक-दूसरे के उसी तरह पर्याय बन गए हैं, जैसे भारत और गॉंधी, चीन और माओ, क्यूबा और कास्त्रो आदि बन गए हैं| अराफात की अंत्येष्टि के दृश्य आयतुल्लाह खुमैनी की याद दिलाते हैं| इस्लामी जगत में जो सम्मान और प्रेम खुमैनी और अराफात को मिला, वह बड़े-बड़े बादशाहों को भी नसीब नहीं हुआ| पश्चिम के लिए अराफात रास्ता भी थे और रास्ते की चट्टान भी थे| पश्चिम अराफात को फलस्तीन का इतना बड़ा नेता मानता था कि वह उनसे लगातार बात करता था लेकिन उसे यह भी पता था कि अराफात मिट्टी का लोदा नहीं है कि जिसे जैसा चाहे, वैसा गॅूंध लिया जाए| इसीलिए पिछले दो साल से अमेरिका और इस्राइल ने उन्हें रामाल्ला के परिसर में घेर दिया था| वे अराफात की विदाई का इंतज़ार कर रहे थे| वे अराफात को सद्दाम हुसैन नहीं बना सकते थे लेकिन अब वे चाहते हैं कि फलस्तीन उसी रास्ते पर चले, जिस पर अफगानिस्तान चल पड़ा है और एराक़ चलनेवाला है| उनका सोच है कि जैसे सद्दाम ने एराक़ पर कब्जा कर रखा था, वैसे ही अराफात ने फलस्तीन पर कर रखा था| अब अफगानिस्तान, एराक़ और फलस्तीन – तीनों में लोकतंत्र आएगा और ये तीनों राष्ट्र शांति और समृद्घि के द्वीप बन जाऍंगे| कितने भोले हैं – बुश और ब्लेयर? तीनों राष्ट्रों में स्वस्थ लोकतंत्र स्थापित हो, यह तो प्र्रशंसनीय है लेकिन क्या केवल विटामिन ‘सी’ की गोलियॉं देकर केंसर, लीवर और दिल के मरीजों को ठीक किया जा सकता है? मज़र् अलग-अलग हैं तो दवा भी अलग-अलग होगी लेकिन इन दोनों नीम-हकीमों को कौन समझाए? इन्हें तो सुरक्षा-परिषद्र भी नहीं समझा सकती|
भाजपामेंलोकतंत्र
हमारे राजनीतिक समीक्षक यह मानकर चलते हैं कि भाजपा और माकपा – ये दोनों पार्टियॉें ऐसी हैं, जैसा कि बंद गोभी होता है| इनके अंदर क्या चलता रहता है, बाहर कुछ पता ही नहीं चलता| ये पार्टियॉं देश के लोकतंत्र को चलाती हैं लेकिन इनके अंदर लोकतंत्र चलता है या नहीं, यह कैसे पता किया जाए| इसका पता टी वी चैनलों ने दे दिया| यदि ये चैनल उमा भारती की नौटंकी बार-बार नहीं दिखाते तो शायद सारा मामला ही रफा-दफ़ा हो जाता| सारा देश हतप्रभ था कि हाय, भाजपा में यह क्या हो रहा है? स्वयंसेवकों की पार्टी में यह कुफ्र कैसे?
पहली बात तो यह कि उमा स्वयंसेवक कभी नहीं रहीं| यदि वे स्वयंसेवक रही होतीं तो बगावत की वाणी बोल ही नहीं सकती थीं| क्या सर्कस का शेर कभी शिकार खेल सकता है? वे भगवा वस्त्र पहनती हैं| खुद को संन्यासिन कहती हैं| संन्यासियों से बड़ा भी कोई होता है, क्या? बस, भगवान ही होता है| ऐसे में पार्टी अध्यक्ष को चुनौती देकर उमा ने कौनसा पाप कर दिया है? किसी संन्यासी को आप पार्टी में लेते हैं तो उसकी खरी-खोटी सुनने के लिए भी तैयार रहना ही होगा| और फिर यह भी क्या चुनौती है कि ‘आप मेरे खिलाफ़ अनुशासन की कार्रवाई कीजिए|’ यह तो विनम्र निवेदन था, जिसे पार्टी-अध्यक्ष ने तुरंत स्वीकार कर लिया| चुनौती तो उन्होंने अपने युवा-प्रतिद्वंद्वियों को दी थी| आरोप भर लगाया था| क्या अपने प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ़ भड़ास निकालना भी मना है? क्या यह अनुशासन-भंग है? यदि अपने भाइयों से कुछ शिकायत हो तो क्या ‘बेटी’ अपने ‘बाप’ के सामने रोये भी नहीं? यह रोना-धोना ही लोकतंत्र है| कर्म-स्वातंत्र्य न सही, वाक्र-स्वातंत्र्य तो लोकतंत्र का मर्म है| जो बात उमा ने पार्टी-बैठक में कही, वही वे लोकसभा में कहतीं तो क्या अध्यक्ष उन्हें सदन से निकाल देते? क्या हमारे राजनीतिक दल हमारी संसद से कुछ सीखेंगे?
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