राष्ट्रीय सहारा, 16 अप्रैल 2010 : श्रीलंका के संसदीय चुनाव में राष्ट्रपति महिंद राजपक्ष के गठबंधन को प्रचंड विजय मिली है| जनवरी में उन्होंने राष्ट्रपति का चुनाव जीता और अब संसद पर भी उनका वर्चस्व कायम हो गया है| 225 सदस्यों की संसद में उन्हें दो-तिहाई बहुमत मिल जाता, अगर उन्हें पांच सीटें और भी मिल जातीं| इन पांच सीटों की भरपाई ज्यादा कठिन नहीं होगी| विरोधी दलों के पांच सदस्यों को तोड़ना राजपक्ष के बाएं हाथ का खेल है| दूसरे शब्दों में महिंद राजपक्ष अब श्रीलंका पर राष्ट्रपति की तरह नहीं, सिंहल सम्राट की तरह राज कर सकते हैं| इस समय जितनी शक्ति राजपक्ष के हाथों में है, इसके पहले किसी भी श्रीलंकाई राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के हाथों में नहीं रही| यों भी अपनी पिछली सरकार में राजपक्ष के भाइयों और रिश्तेदारों का इतना वर्चस्व रहा है कि इस संसदीय विजय को राजपक्ष-राजवंश की स्थापना माना जा रहा है, खास तौर से इसलिए भी कि तमिल आतंकवादी युद्घ में जीत का सेहरा भी महिंद राजपक्ष के माथे पर ही बंधा है| महिंद राजपक्ष की तुलना पौराणिक सिंहल-सम्राट दत्तगामिनी के साथ की जा रही है|
राष्ट्रपति के चुनाव में जितनी कटुता और उठा-पटक हुई, इस चुनाव में नहीं हुई राजपक्ष के गठबंधन के जीतन की संभावना इतनी स्पष्ट थी कि लोग वोट डालने ही नहीं गए| श्रीलंका जैसे सुशिक्षित राष्ट्र में 55 प्रतिशत मतदान का होना लोगों की उदासीनता का सूचक है लेकिन यहां उल्लेखनीय तथ्य यह है कि श्रीलंका के पूर्व सेनापति शरथ फोन्सेका जेल में रहते हुए भी चुनाव जीत गए हैं| वे राष्ट्रपति का चुनाव तो हार गए लेकिन अब सांसद के रूप् में वे सत्तारूढ़ दल के लिए काफी मुसीबत खड़ी कर सकते हैं| यहां ध्यातव्य तथ्य यह भी है कि सिंहल उग्रवाद का प्रतिनिधित्व करनेवाली पार्टी जनता विमुक्ति पेरामून का लगभग सफाया हो गया है| उसे सिर्फ सात सीटें मिली हैं और लिट्रटे का समर्थन करनेवाली तमिल पार्टी-इलंकाई तमिल अरासू कच्छी-को 14 सीटें मिली हैं| याने श्रीलंका की जनता सिंहल उग्रवाल के पक्ष में नही है| वह तमिल उग्रवाद के पक्ष में इस दृष्टि से नहीं दिखाई देती कि सिंहल क्षेत्रें में से तमिल उम्मीदवार जीतकर नहीं ही आए हैं और तमिल क्षेत्रें में जो तमिल उम्मीदवार जीते हैं, उनके यहां मतदान का प्रतिशत बहुत नीचे तक चला गया है| दूसरे शब्दों में राजपक्ष सरकार को इस संसदीय चुनाव का स्पष्ट संदेश है कि वह ‘मध्यम मार्ग’ पर चले| प्रमुख विपक्षी दल ‘युनाइटेड नेशनल पार्टी’ के 59 सदस्य सरकार का तभी समर्थन करेंगे जबकि वह अतिवाद से बचेगी|
स्वयं राष्ट्रपति महिंद राजपक्ष ने अपने ‘महिंद चिंतन’ में जिस भावी श्रीलंका की परिकल्पना प्रस्तुत की है, उसमें दोनों प्रमुख जातियों – सिंहल और तमिल’ के मिल-जुलकर रहने की अभिलाषा प्रगट की गई है और राष्ट्रपति के पद को अधिक मर्यादित बनाने की बात कही गई है| जहां तक राष्ट्रपति के अधिकारों का सवाल है, इसमें ज़रा भी शक नहीं है कि जयवर्द्घन और चंदि्रका कुमारतुंग के मुकाबले महिंद राजपक्ष अधिक शक्तिशाली राष्ट्रपति बने रहेंगे| वे पाकिस्तान के आसिफ ज़रदारी की तरह शक्ति त्याग नहीं करेंगे बल्कि संभावना यह है कि वे दो-तिहाई बहुमत का लाभ उठाकर श्रीलंका के संविधान में संशोधन करवाएंगे और स्वयं को दो बार से ज्यादा चुनवाने का रास्ता खुलवा लेंगे| तब तक वे अपने बेटे को भी तैयार कर लेंगे| डर यही है कि यह निरंकुशता और निश्ंचितता कहीं श्रीलंका को भ्रष्टाचार के मार्ग पर न ढेल दे| उनके पिछले शासन-काल में भ्रष्टाचार के आरोपों की झड़ी लग गई थी लेकिन लिट्रटे-विरोधी युद्घ के कारण वे दरकिनार हो गए लेकिन हो सकता है कि इस बार विपक्ष कमजोर होने के बावजूद भ्रष्टाचार के कारण उन पर भारी पड़ जाए| नखदंतहीन ‘रिश्वत आयोग’ जब तक चमत्कारी काम करके नहीं दिखाएगा, राजपक्ष की छवि चमक नहीं पाएगी|
नई राज्यपक्ष सरकार के सामने इस समय दो बड़ी चुनौतियां हैं| एक तो श्रीलंका का आर्थिक पुनर्निमाण और दूसरा तमिलों का पुनर्स्थापन ! अब से कुछ दशक पहले तक श्रीलंका सारे दक्षिण एशिया में सबसे अधिक सुरक्षित और प्रगतिशील राष्ट्र था लेकिन लंबे गृह-युद्घ के कारण वे आर्थिक जड़ता को प्राप्त हो गया था| नए निर्माण-कार्य लगभग बंद हो गए थे और बेकारी बढ़ रही थी| लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों में अर्थ-व्यवस्था में काफी सुधार हुआ है| चाय का उत्पादन बढ़ा है और रबर की बढ़ती हुई कीमतों ने श्रीलंका के खाली खजानों में जान डाल दी है| दक्षिण एशिया में इस स्विटजरलेंड में पर्यटन-उद्योग दुबारा लौ पकड़ रहा है| पश्चिमी राष्ट्रों की मदद इधर घटी है लेकिन उधर भारत ने लगभग 6 हजार करोड़ की मदद दी है| चीन भी बढ़-चढ़कर सहयोग कर रहा है| युद्घ के जबर्दस्त खर्च और मंद अर्थ-व्यवस्था के कारण बजट का घाटा अभी तक काबू नहीं आ रहा है| इसके अलावा मानव अधिकारों के उल्लंघन के आरोप पर यूरोपीय राष्ट्रों ने भी कई प्रतिबंध लगा दिए हैं| ऐसी स्थिति में राजपक्ष सरकार को पहले से अधिक मुस्तैदी दिखानी होगी|
यदि दो लाख विस्थापित तमिलों के पुनर्वास में राजपक्ष सरकार ने ढील दे दी तो उसकी अंतरराष्ट्रीय छवि चौपट हो जाएगी| इस समय श्रीलंका के तमिल लोगों का मनोबल इतना गिरा हुआ है कि वे तुरंत कोई खतरा खड़ा नहीं कर सकते लेकिन ये शरणार्थी ही नए तमिल आतंकवाद की शरण-स्थली बन जाएंगे| ‘महेंद्र चिंतन’ में श्रीलंका को संघात्मक राज्य बनाने की बात दूर-दूर तक कहीं नहीं की गई है लेकिन वास्तव में शक्तियों का विकेंद्रीकरण नहीं किया गया तो उत्तर और पूर्व के तमिल क्षेत्रें में लिट्टे के पुनर्जन्म को रोकना असंभव हो जाएगा| श्रीलंका के प्रांतों का अधिकाधिक स्वास्यत्तता देने से केन्द्र कमजोर हो जाएगा, इस पारंपरिक सिंहल-सोच की गिरफ्त से बाहर निकलना बहुत जरूरी है| महिंद राजपक्ष अपनी लोकपि्रयता और अपनी प्रचंड शक्ति का सही उपयोग करें तो इस सिंहल जनमत को प्रभावी तरीके से बदल सकते हैं| उनके इस राजनीतिक महासंग्राम में भी भारत उनका साथ देगा, क्योंकि भारत अपने पड़ौस में शांति और स्थिरता चाहता है|
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