दैनिक भास्कर, 28 जुलाई 2009 : कर्नाटक सरकार बच्चों की पढ़ाई के लिए कन्नड़ माध्यम को अनिवार्य बनाना चाहती है| उच्चतम न्यायालय ने कर्नाटक सरकार के इस फैसले को रद्रद कर दिया है| न्यायालय का निर्णय सही है, क्योंकि पहली से पांचवीं तक के सभी बच्चों पर अगर आप कन्नड़ माध्यम थोपेंगे तो आप अपना तर्क स्वयं काटेंगे| इसमें शक नहीं कि बच्चों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से पढ़ाना सर्वश्रेष्ठ है| अगर यह सही है तो यह बताएं कि कर्नाटक के लाखों बच्चे, जिनकी मातृभाषा मराठी, तेलुगु, तमिल और हिंदी है, वे क्या करेंगे ? उनकी मातृभाषा कन्नड़ तो नहीं है| इसके अलावा अभिभावकों के सारे विकल्प बंद करनेवाले आप कौन हैं ? राज्य सरकार कैसे तय करेगी कि किस बच्चे को किस माध्यम से पढ़ाया जाए ? यह अधिकार तो अभिभावक का ही हो सकता है| क्या किसी भी राज्य सरकार की इतनी सामर्थ्य है कि वह हर बच्चे की माता-पिता बन जाए ? कर्नाटक सरकार अपनी बात गैर-सरकारी स्कूलों पर भी थोपना चाहती है| इसके पीछे उसका सोच शायद यह हो कि सभी बच्चों को एक-जैसी शिक्षा मिले| उनमें भेद-भाव न हो| यह सोच अच्छा है लेकिन न्यायाधीशों का यह तर्क भी गौर करने लायक है कि भारत में जैसी शिक्षा-व्यवस्था है, नौकरी-व्यवस्था है, समाज-व्यवस्था है, उसमें सिर्फ मातृभाषा से पढ़े हुए बच्चों का भविष्य क्या होगा ? उन्हें क्या क्लर्क की नौकरी भी मिल पाएगी ? क्या वे अपने जीवन में किसी अच्छे मुकाम पर पहुंच पाएंगे ? अदालत ने यह भी पूछा है कि क्या वे अभिभावक मूर्ख हैं, जो चालीस-चालीस, पचास-पचास हजार रू. देकर अपने बच्चों का अंग्रेजी-माध्यम के स्कूलों में प्रवेश करवाते हैं ? अपना पेट काटकर आखिर लोग अपने बच्चों को इन स्कूलों में क्यों भेज रहे हैं ? अदालत की चिंता यह भी है कि यदि सारे बच्चों पर मातृभाषा थोप दी गई तो गांव के बच्चे तो बिल्कुल ही डूब जाएंगे क्योंकि मालदार और शहरी बच्चे ‘प्राइवेट ट्यूशन’ वगैरह लेकर नौकरियां हथिया लेंगे| उक्त तर्कों को पढ़कर ऐसा लगता है कि राज्य सरकार और उच्चतम न्यायालय एक-दूसरे के विरूद्घ हैं| लेकिन हम थोड़ी गहराई में जाएं तो मालूम पड़ेगा कि दोनों की चिंताएं बिल्कुल एक-जैसी हैं और दोनों ही कोई ऐसा रास्ता तलाशना चाहते हैं, जिससे सबके बच्चों को समान शिक्षा मिले और आगे जाकर नौकरियों में भी समान अवसर मिलें| अदालत ने एक भी शब्द ऐसा नहीं कहा है, जिसका दूर-दूर तक कोई गलत मतलब निकाल सके| अदालत ने यह नहीं कहा कि पढ़ाई का माध्यम यदि मातृभाषा होगी तो पढ़ाई खराब होगी| उसकी चिंता सिर्फ इतनी है कि मातृभाषावाले बच्चे पिछड़ जाएंगे| तो असली मुद्रदा यह है कि क्या यथास्थिति बनी रहे ? क्या एक देश में दो तरह की शिक्षा-पद्घति चलती रहे ? यदि एक पद्घति गरीबों, ग्रामीणों पिछड़ों के लिए है और दूसरी पद्घति मालदारों, शहरियों और सवर्णों के लिए है तो उसका नतीजा क्या होगा ? क्या हमारे देश दो वर्गों में नहीं बंट जाएगा ? क्या भारत और इंडिया अलग-अलग नहीं दिखेंगे ? एक देश के पेट में पल रहे इन देशों का द्वंद्व कहीं भारत को डुबो तो नहीं देगा ? क्या इस दुविधा का समाधान यह है कि सभी बच्चों के लिए अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई अनिवार्य कर दी जाए ? उच्चतम न्यायालय ने यह भी नहीं कहा है| तो क्या किया जाए ? इस मुद्रदे पर हमारा सोच सिर के बल खड़ा है| उसे पांव के बल खड़ा करें| पत्तों और फूलों को सींचना बंद करें| जड़ों पर ध्यान दें| इस समस्या की जड़ क्या है ? जड़ है,-नौकरी, रूतबा, सम्मान ! यदि नौकरी से, रूतबे से, सम्मान से आप अंग्रेजी की अनिवार्यता हटा दें तो अंग्रेजी कौन पढ़ेगा ? इस देश की सरकारें संस्कृत या फ्रांसीसी या चीनी भाषा को अनिवार्य क्यों नहीं करतीं ? ये भाषाएं अंग्रेजी के मुकाबले कहीं अधिक समृद्घ हैं और चीनी तो कहीं ज्यादा लोगों की भाषा है| इनमें से कोई भी भारत की किसी भी नौकरी के लिए अनिवार्य नहीं है| यदि अंग्रेजी भी उसी तरह अनिवार्य न हो तो उसके लिए अपनी जेब कोई क्यों कटाएगा ? अंग्रेजी वे ही लोग पढ़ेंगे, जिन्हें विदेशी-स्त्रेतों से अनुसंधान करना हो, अंग्रेजीभाषी देशों में जाकर अध्ययन, नौकरी या व्यवसाय करना हो या अंग्रेजी साहित्य का आनंद लेना हो| ऐसे लोगों की संख्या साल में दस-पन्द्रह हजार भी नहीं होगी| वे जरूर अंग्रेजी पढ़ें और अच्छी तरह पढ़े लेकिन उनकी खातिर देश के 18 करोड़ बच्चों पर अंग्रेजी क्यों थोपी जाए ? यह गनीमत है कि भारत में सब बच्चों पर अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई नहीं थोपी जाती है| पढ़ाई का माध्यम तय करने की स्वतंत्र्ता सबको है लेकिन अंग्रेजी की अनिवार्य पढ़ाई देश के लगभग सभी बच्चों पर थोपी जा रही है| इस अनिवार्य अंग्रेजी ने हमारे बच्चों को बर्बाद कर दिया है| बच्चे अपना सबसे ज्यादा वक्त अंग्रेजी पर ही खर्च करते हैं और सबसे ज्यादा फेल भी इसी में होते हैं| वे तंग आकर पढ़ाई से मुंह मोड़ लेते हैं| अंग्रेजी पढ़ाई की दुश्मन बन जाती है| बी.ए. तक पहुंचते-पहुंचते सिर्फ चार-पांच प्रतिशत छात्र् बचते हैं| अंग्रेजी के बौद्घिक बलात्कार के कारण बच्चों में मानसिक विकलांगता पैदा हो जाती है| वे हीनता-ग्रंथि से ग्रस्त हो जाते हैं| जो अंग्रेजी पढ़ लेते हैं, वे श्रेष्ठता-ग्रंथि से ग्रस्त हो जाते हैं| भारत में अंग्रेजी पढ़नेवाला सहज नहीं रह पाता, क्योंकि वह उसे ज्ञान की भाषा की तरह नहीं, नौकरी की, रूतबे की, अनावश्यक सम्मान की भाषा की तरह पढ़ता है| यदि हमारी सरकारें और अदालतें इस रहस्य को ठीक से समझ जाएं तो भारत में सांस्कृतिक क्रांति हो सकती है| मातृभाषाओं या हिंदी को किसी भी पाठशाला में अनिवार्य करने की कभी जरूरत पड़ेगी ही नहीं बशर्ते कि नौकरियों से अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म कर दी जाए| यदि अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म होगी तो लोग अपने आप अपनी मातृभाषा में प्रवीणता प्राप्त करेंगे और सब भाषाओं के बीच जोड़ बिठानेवाली भाषा को खुद खोजेंगे| अंग्रेजी को थोपने की कोशिश पिछले 200 साल से चल रही है लेकिन आज भी वह पांच प्रतिशत लोगों की भी भाषा नहीं बन पाई है| वह नक़ली राष्ट्रभाषा बनी बैठी है| इसके कुछ फायदे जरूर हैं लेकिन नुकसान उनसे कहीं ज्यादा है| राज्यों को चाहिए कि वे मातृभाषाओं को थोपने का नहीं, विदेशी भाषा को एच्छिक बनाने का आंदोलन चलाएं| मद्यपान को रोकने के लिए दुग्धपान को अनिवार्य करना जरूरी नहीं है|
( लेखक भारतीय भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष हैं और वे पहले ऐसे विद्वान हैं, जिन्होंने अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोधग्रंथ हिन्दी में लिखा था )
सिर चढ़ी नकली राष्ट्रभाषा
दैनिक भास्कर, 28 जुलाई 2009 : कर्नाटक सरकार बच्चों की पढ़ाई के लिए कन्नड़ माध्यम को अनिवार्य बनाना चाहती है| उच्चतम न्यायालय ने कर्नाटक सरकार के इस फैसले को रद्रद कर दिया है| न्यायालय का निर्णय सही है, क्योंकि पहली से पांचवीं तक के सभी बच्चों पर अगर आप कन्नड़ माध्यम थोपेंगे तो आप अपना तर्क स्वयं काटेंगे| इसमें शक नहीं कि बच्चों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से पढ़ाना सर्वश्रेष्ठ है| अगर यह सही है तो यह बताएं कि कर्नाटक के लाखों बच्चे, जिनकी मातृभाषा मराठी, तेलुगु, तमिल और हिंदी है, वे क्या करेंगे ? उनकी मातृभाषा कन्नड़ तो नहीं है| इसके अलावा अभिभावकों के सारे विकल्प बंद करनेवाले आप कौन हैं ? राज्य सरकार कैसे तय करेगी कि किस बच्चे को किस माध्यम से पढ़ाया जाए ? यह अधिकार तो अभिभावक का ही हो सकता है| क्या किसी भी राज्य सरकार की इतनी सामर्थ्य है कि वह हर बच्चे की माता-पिता बन जाए ?
कर्नाटक सरकार अपनी बात गैर-सरकारी स्कूलों पर भी थोपना चाहती है| इसके पीछे उसका सोच शायद यह हो कि सभी बच्चों को एक-जैसी शिक्षा मिले| उनमें भेद-भाव न हो| यह सोच अच्छा है लेकिन न्यायाधीशों का यह तर्क भी गौर करने लायक है कि भारत में जैसी शिक्षा-व्यवस्था है, नौकरी-व्यवस्था है, समाज-व्यवस्था है, उसमें सिर्फ मातृभाषा से पढ़े हुए बच्चों का भविष्य क्या होगा ? उन्हें क्या क्लर्क की नौकरी भी मिल पाएगी ? क्या वे अपने जीवन में किसी अच्छे मुकाम पर पहुंच पाएंगे ? अदालत ने यह भी पूछा है कि क्या वे अभिभावक मूर्ख हैं, जो चालीस-चालीस, पचास-पचास हजार रू. देकर अपने बच्चों का अंग्रेजी-माध्यम के स्कूलों में प्रवेश करवाते हैं ? अपना पेट काटकर आखिर लोग अपने बच्चों को इन स्कूलों में क्यों भेज रहे हैं ? अदालत की चिंता यह भी है कि यदि सारे बच्चों पर मातृभाषा थोप दी गई तो गांव के बच्चे तो बिल्कुल ही डूब जाएंगे क्योंकि मालदार और शहरी बच्चे ‘प्राइवेट ट्यूशन’ वगैरह लेकर नौकरियां हथिया लेंगे|
उक्त तर्कों को पढ़कर ऐसा लगता है कि राज्य सरकार और उच्चतम न्यायालय एक-दूसरे के विरूद्घ हैं| लेकिन हम थोड़ी गहराई में जाएं तो मालूम पड़ेगा कि दोनों की चिंताएं बिल्कुल एक-जैसी हैं और दोनों ही कोई ऐसा रास्ता तलाशना चाहते हैं, जिससे सबके बच्चों को समान शिक्षा मिले और आगे जाकर नौकरियों में भी समान अवसर मिलें| अदालत ने एक भी शब्द ऐसा नहीं कहा है, जिसका दूर-दूर तक कोई गलत मतलब निकाल सके| अदालत ने यह नहीं कहा कि पढ़ाई का माध्यम यदि मातृभाषा होगी तो पढ़ाई खराब होगी| उसकी चिंता सिर्फ इतनी है कि मातृभाषावाले बच्चे पिछड़ जाएंगे| तो असली मुद्रदा यह है कि क्या यथास्थिति बनी रहे ? क्या एक देश में दो तरह की शिक्षा-पद्घति चलती रहे ? यदि एक पद्घति गरीबों, ग्रामीणों पिछड़ों के लिए है और दूसरी पद्घति मालदारों, शहरियों और सवर्णों के लिए है तो उसका नतीजा क्या होगा ? क्या हमारे देश दो वर्गों में नहीं बंट जाएगा ? क्या भारत और इंडिया अलग-अलग नहीं दिखेंगे ? एक देश के पेट में पल रहे इन देशों का द्वंद्व कहीं भारत को डुबो तो नहीं देगा ? क्या इस दुविधा का समाधान यह है कि सभी बच्चों के लिए अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई अनिवार्य कर दी जाए ? उच्चतम न्यायालय ने यह भी नहीं कहा है| तो क्या किया जाए ?
इस मुद्रदे पर हमारा सोच सिर के बल खड़ा है| उसे पांव के बल खड़ा करें| पत्तों और फूलों को सींचना बंद करें| जड़ों पर ध्यान दें| इस समस्या की जड़ क्या है ? जड़ है,-नौकरी, रूतबा, सम्मान ! यदि नौकरी से, रूतबे से, सम्मान से आप अंग्रेजी की अनिवार्यता हटा दें तो अंग्रेजी कौन पढ़ेगा ? इस देश की सरकारें संस्कृत या फ्रांसीसी या चीनी भाषा को अनिवार्य क्यों नहीं करतीं ? ये भाषाएं अंग्रेजी के मुकाबले कहीं अधिक समृद्घ हैं और चीनी तो कहीं ज्यादा लोगों की भाषा है| इनमें से कोई भी भारत की किसी भी नौकरी के लिए अनिवार्य नहीं है| यदि अंग्रेजी भी उसी तरह अनिवार्य न हो तो उसके लिए अपनी जेब कोई क्यों कटाएगा ? अंग्रेजी वे ही लोग पढ़ेंगे, जिन्हें विदेशी-स्त्रेतों से अनुसंधान करना हो, अंग्रेजीभाषी देशों में जाकर अध्ययन, नौकरी या व्यवसाय करना हो या अंग्रेजी साहित्य का आनंद लेना हो| ऐसे लोगों की संख्या साल में दस-पन्द्रह हजार भी नहीं होगी| वे जरूर अंग्रेजी पढ़ें और अच्छी तरह पढ़े लेकिन उनकी खातिर देश के 18 करोड़ बच्चों पर अंग्रेजी क्यों थोपी जाए ? यह गनीमत है कि
भारत में सब बच्चों पर अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई नहीं थोपी जाती है| पढ़ाई का माध्यम तय करने की स्वतंत्र्ता सबको है लेकिन अंग्रेजी की अनिवार्य पढ़ाई देश के लगभग सभी बच्चों पर थोपी जा रही है| इस अनिवार्य अंग्रेजी ने हमारे बच्चों को बर्बाद कर दिया है| बच्चे अपना सबसे ज्यादा वक्त अंग्रेजी पर ही खर्च करते हैं और सबसे ज्यादा फेल भी इसी में होते हैं| वे तंग आकर पढ़ाई से मुंह मोड़ लेते हैं| अंग्रेजी पढ़ाई की दुश्मन बन जाती है| बी.ए. तक पहुंचते-पहुंचते सिर्फ चार-पांच प्रतिशत छात्र् बचते हैं| अंग्रेजी के बौद्घिक बलात्कार के कारण बच्चों में मानसिक विकलांगता पैदा हो जाती है| वे हीनता-ग्रंथि से ग्रस्त हो जाते हैं| जो अंग्रेजी पढ़ लेते हैं, वे श्रेष्ठता-ग्रंथि से ग्रस्त हो जाते हैं| भारत में अंग्रेजी पढ़नेवाला सहज नहीं रह पाता, क्योंकि वह उसे ज्ञान की भाषा की तरह नहीं, नौकरी की, रूतबे की, अनावश्यक सम्मान की भाषा की तरह पढ़ता है|
यदि हमारी सरकारें और अदालतें इस रहस्य को ठीक से समझ जाएं तो भारत में सांस्कृतिक क्रांति हो सकती है| मातृभाषाओं या हिंदी को किसी भी पाठशाला में अनिवार्य करने की कभी जरूरत पड़ेगी ही नहीं बशर्ते कि नौकरियों से अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म कर दी जाए| यदि अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म होगी तो लोग अपने आप अपनी मातृभाषा में प्रवीणता प्राप्त करेंगे और सब भाषाओं के बीच जोड़ बिठानेवाली भाषा को खुद खोजेंगे| अंग्रेजी को थोपने की कोशिश पिछले 200 साल से चल रही है लेकिन आज भी वह पांच प्रतिशत लोगों की भी भाषा नहीं बन पाई है| वह नक़ली राष्ट्रभाषा बनी बैठी है| इसके कुछ फायदे जरूर हैं लेकिन नुकसान उनसे कहीं ज्यादा है| राज्यों को चाहिए कि वे मातृभाषाओं को थोपने का नहीं, विदेशी भाषा को एच्छिक बनाने का आंदोलन चलाएं| मद्यपान को रोकने के लिए दुग्धपान को अनिवार्य करना जरूरी नहीं है|
( लेखक भारतीय भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष हैं और वे पहले ऐसे विद्वान हैं, जिन्होंने अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोधग्रंथ हिन्दी में लिखा था )
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