देश के 22 राजनीतिक दलों की एक संगोष्ठी में उन्होंने भारत सरकार को जो 11 सुझाव दिए हैं, उन लगभग सभी सुझावों को मैं कमोबेश अपने लेखों में पिछले दो महिने से दोहराता रहा हूं। इसीलिए उन सुझावों का तो स्वागत ही करना होगा लेकिन सरकार पर उन्होंने जिस तरह के आरोप लगाए हैं, वे आज के हालात में अप्रासंगिक और हास्यास्पद भी हैं। उन आरोपों और अमर्यादित कटु निंदा के कारण उनके ये रचनात्मक सुझाव भी अपना महत्व खुद घटा लेते हैं। जैसे विरोधी नेताओं का यह सुझाव बहुत ही जरुरी और लाभकारी है कि हर परिवार को, जो आयकरदाता नहीं हैं, छह माह तक 7500 रु. प्रति मास दिया जाए। देश में आयकरदाताओं की संख्या 5-6 करोड़ से ज्यादा नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि लगभग 25 करोड़ परिवारों को यह राशि दी जाए। छह मास तक दी जानेवाली यह राशि इतनी बड़ी हो जाएगी कि सरकार हाथ ऊंचे कर सकती है। इस पर मेरा सुझाव यह है कि फिलहाल इस राशि को 7500 की बजाय 5000 रु. और छह माह की बजाय 3 माह के लिए कर दिया जाए लेकिन किया जरुर जाए।
इस तरह हर जरुरतमंद को 10 किलो मासिक मुफ्त खाना देना कठिन नहीं है। सरकार के भंडारों में पर्याप्त अन्न भरा हुआ है। मनरेगा की मजदूरी 100 की बजाय 200 दिन तक देने और उसकी राशि 250 रु. तक बढ़ाने की बात मैं पहले ही कह चुका हूं। प्रवासी मजदूरों की वापसी की मांग भी उचित है और यह भी ठीक है कि 20 लाख करोड़ की राहत वास्तव में दूर के ढोल की तरह सुहावनी है।
केंद्र सरकार को चाहिए कि वे प्रादेशिक सरकारों की राय और रणनीतियों का उचित सम्मान करे, यह मांग भी ठीक है कि लेकिन अफसोस की बात है कि इतने उपयोगी सुझाव देनेवाली इस संगोष्ठी में क्षुद्र राजनीति भी अपने निर्ल्लज रुप में प्रकट हुई। कांग्रेस की कामचलाऊ अध्यक्ष सोनिया गांधी ने नरेंद्र मोदी का नाम लिए बिना उन्हें लगभग तानाशाह कह डाला। सारे कोरोना-युद्ध को उन्होंने एक व्यक्ति का महिमा-मंडन बता दिया और यह आरोप भी ठोक दिया कि केंद्र सरकार सारी शक्ति प्रधानमंत्री कार्यालय में केंद्रित करके संविधान के संघवाद का उल्लंघन कर रही है। यह बात इंदिरा गांधी की बहू के मुंह से सुनने में कितनी हास्यास्पद लगती है।
कोरोना-संकट का यह समय युद्ध-काल जैसा है। ऐसे वक्त में किसी भी देश को एक सुनिश्चित और सुद्दढ़ नेतृत्व की जरुरत होती है। मोदी में जितनी भी योग्यता है, उसे वह नौकरशाहों के मार्गदर्शन में, प्रभावशाली ढंग से प्रकट कर रहे हैं। उससे ईर्ष्या करने की बजाय विरोधी दलों का रवैया रचनात्मक और सहयोगात्मक होना चाहिए।
Dr Lal Thadani says
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