R Sahara, 12 Feb 2005 : राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के पद पर एम.के. नारायणन की नियुक्ति ने इस बहस को ठंडा कर दिया है कि भारत की सुरक्षा के लिए कोई सलाहकार परिषद् भी होनी चाहिए या नहीं| इसका मतलब क्या लगाया जाए? क्या यह नहीं कि सारा किस्सा कुर्सी का है? याने किसी खास आदमी को जब तक कुर्सी न मिले, तब तक बहस चलती रहे और कुर्सी मिलते ही वह ठंडी पड़ जाए| यह स्थिति बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है| यह सही है कि सुरक्षा सलाहकार के पद पर बहुत-से पुराने विदेश सचिवों, केबिनेट सचिवों, रक्षा-विशेषज्ञों और अन्तरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञों की नज़रें गड़ी रहती हैं और उस पद को हथियाने के लिए वे सारे दॉंव-पेच लगाते हैं लेकिन अब जबकि नारायणन की नियुक्ति हो चुकी है, हमें गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का स्वतंत्र पद बरकरार रखा जाए या नहीं? यदि रखा जाए तो उसके अधिकार और कर्तव्य क्या-क्या हों| इसके अलावा कोई राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद भी बनाई जाए या नहीं? यदि बनाई जाए तो उसका स्वरूप क्या हो और उसके भी अधिकार और कर्तव्य क्या-क्या हों?
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का पद समाप्त कर दिया जाए, यह बात आज तक किसी ने भी नहीं कही| याने इस पद की उपयोगिता है, यह सभी स्वीकार करते हैं लेकिन पिछले पॉंच-छह साल का अनुभव बड़ा जटिल है| इस पद को लेकर मुख्य रूप से दो आपत्तियॉं उपस्थित होती हैं| पहली तो यह कि प्रधान सचिव को ही जब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बना दिया जाता है तो एक ही आदमी दो-दो ओवर-कोट एक साथ पहन लेता है| याने शरीर हल्का और कपड़े भारी ! दोनों दायित्व जिसके कंधे पर हों, वह दोनों के साथ न्याय नहीं कर पाएगा| एक दायित्व है, रोजमर्रा की तात्कालिक समस्याओं को हल करने का और दूसरा दायित्व है, भारत पर आनेवाले दूरगामी खतरों की पहचान का ! दोनों दायित्वों में कुछ समानताऍं जरूर हैं लेकिन मूलत: ये दो अलग-अलग तरह के काम हैं| दोनों समान हैं लेकिन दोनों में अंतर है याने समानांतर हैं| क्या रेल की दो समानांतर पटरियों को एक-दूसरे से चिपकाया जा सकता है? पिछले वर्षों में वे चिपकी ही रहीं, इसीलिए रेल चली ही नहीं| हमारा जहाज अपहृत हो गया, करगिल में पाकिस्तानी घुस गए और संसद पर हमला हो गया| इन तीनों मामलों में हम बुद्घू भी सिद्घ हुए और अकर्मण्य भी| अब इसमें चौथा भी जुड़ गया है| नेपाल में नरेश का सत्ता-ग्रहण ! हमारी सरकार बगलें झॉंक रही है| उसने ‘लोकतंत्र की हत्या’ के लिए नरेश की निंदा तो जमकर कर दी लेकिन उन्हें सशस्त्र सहायता जारी रखने की घोषणा भी उसे करनी पड़ी| उसे पता ही नहीं चला कि काठमांडो में सत्ता-पलट कैसे हो गया? अगर हमारे पास सचमुच कोई राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार है तो उसके कान तो खड़े होने चाहिए थे| अगर उसे पहले से पता न चला, न सही लेकिन नेपाल के बारे में कम से कम ऐसा बयान तो देना चाहिए था, जिस पर हमारी सरकार आगे तक टिकी रह सकती| सरकार फिसल गई | इसके बावजूद फिसल गई कि अब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का पद स्वतंत्र है| स्वतंत्र होते हुए भी वह अपनी उपयोगिता सिद्घ नहीं कर सका अर्थात प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव का पद और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का पद चाहे एक ही व्यक्ति के पास रहे या दो अलग-अलग व्यक्तियों के पास, अभी तक उसकी उपयोगिता सिद्घ होनी शेष है|
सुरक्षा सलाहकार के पद पर दूसरी बड़ी आपत्ति आती है, विदेश मंत्रालय की तरफ से| वाजपेयी सरकार के ज़माने में प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव श्री ब्रजेश मिश्रा विदेश मंत्री का ही काम करते थे, क्योंकि शुरू में यह मंत्रालय प्रधानमंत्री के पास था| जब श्री जसवंतसिंह विदेश मंत्री बने तो ब्रजेश मिश्रा क्या करते? उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बना दिया गया| एक म्यान में दो तलवारें ! विदेश मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय में निरन्तर रस्साकशी चलती रही| उसे थामने के लिए यशवंत सिन्हा को विदेश मंत्री बनाया गया| यह रस्साकशी नई नहीं है| अमेरिका में यह जमकर चलती रही| राष्ट्रपति आइज़नहावर के विदेश मंत्री जॉन फास्टर डलेस इतने तगड़े थे कि उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद को बराबर दबाए रखा और इसके विपरीत राष्ट्रपति निक्सन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी कीसिंजर ने उनके विदेश मंत्री विलियम रोजर्स को कभी अपनी मुंडी बाहर नहीं निकालने दी| वास्तव में रोजर्स को इस्तीफा देना पड़ा और 1973 में कीसिंजर ने दोनों पद सम्हाल लिए| इसी प्रकार राष्ट्रपति कार्टर के ज़माने में सुरक्षा सलाहकार ब्रजेन्स्की और विदेश मंत्री साइरस वान्स में टक्कर हुई और अब जार्ज बुश के ज़माने में कन्डोलीज़ा राइस और कोलिन पॉवेल का दंगल हम देख ही चुके हैं| यदि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का पद स्वतंत्र रहे याने वह न तो प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव के साथ मिलाया जाए और न ही विदेश मंत्री के साथ (जैसे कि अपवाद स्वरूप 1973 में कीसिंजर सलाहकार और विदेश मंत्री एक साथ बन गए थे) तो भी यह पद सरकार के विभिन्न अंगों में आंतरिक खींचातानी का कारण बन जाता है|
विदेश मंत्री नटवरसिंह और सुरक्षा सलाहकार ज्योतींद्रनाथ दीक्षित के बीच क्या कम रस्साकशी हुई है लेकिन नटवर लगभग डलेस साबित हुए, क्योंकि एक तो वे सोनिया गॉंधी के करीब हैं और दूसरा प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह को विदेशी मामलों में कोई खास रूचि नहीं है| दीक्षित अगर पॉंच साल रहते तो भी वे कभी कीसिंजर नहीं बन पाते| छह माह में ही उनका दम फूलने लगा था| अब एम.के. नारायणन के साथ विदेश मंत्री की अनबन होने का सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि विदेशी मामलों में उनकी पकड़ और महत्वाकांक्षा दीक्षित जैसी नहीं है लेकिन क्या यह स्थिति संतोषजनक है?
इस स्थिति से संतुष्ट होने का अर्थ यह है कि हम कुर्सीभरू लोग हैं| कुर्सी भर गई, हम खुश हो गए| पॉंच साल तक हम यही करते रहे| राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद्र की कभी बैठक तक नहीं हुई| कैसे होती? दर्जनों पुराने अफसरों, प्रोफेसरों और पत्रकारों को भी उसमें भर लिया गया| क्या इतनी बड़ी भीड़ के सामने आप अपनी गोपनीय नीतियॉं उजागर कर सकते हैं? यह मर्म की बात वाजपेयी-सरकार को बाद में पता चली| अप्रेल 1999 में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद संबंधी मंत्रिमंडलीय प्रस्ताव तो पारित कर लिया गया लेकिन जहॉं से वह नकल किया गया याने अमेरिका के अनुभव से हमने कुछ नहीं सीखा| यों भी अमेरिका में राष्ट्रपतीय प्रणाली है और भारत में प्रधानमंत्रीय ! वहॉं की संस्थाऍं यहॉं ज्यों की त्यों थोपी नहीं जा सकतीं| जरूरी यह है कि राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में केवल मंत्रियों, केबिनेट-सचिव, मंत्रालय-सचिवों, रक्षा और गुप्तचर उच्च-अधिकारियों को रखा जाए और उसकी बैठक कम से कम प्रति माह या हर पखवाड़े की जाए| राष्ट्रीय सुरक्षा के सभी आयामों पर सुतीक्ष्ण विचार-विमर्श हो| गैर-सरकारी विशेषज्ञों, शोध-संस्थाओं, विश्वविद्यालयों, पत्रकारों, नेताओं आदि से निरंतर और जीवंत सम्पर्क की नियमित व्यवस्था कायम की जाए| उनके अनुभव का लाभ उठाने के लिए उन्हें सक्रिय सहायता और प्रोत्साहन दिया जाए| ये सब जिम्मेदारियॉं राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार निभा सकता है| वह प्रधानमंत्री को तात्कालिक और खास तौर से दीर्घकालिक मुद्दों पर सलाह दे सकता है| वह सिर्फ सलाह दे, दादागीरी न करे| अमेरिका की तरह अगर भारत में दादागीरी चलाई जाएगी तो मंत्र्िामंडलीय व्यवस्था विकृत हो जाएगी|
Leave a Reply