जनसत्ता, 20 नवंबर 2010 | श्रीमती आंग सान सू ची की रिहाई से सारी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया है, क्योंकि सारी दुनिया उन्हें मानव-स्वतंत्र्ता की मशाल मानती हैं| सूची की रिहाई ने म्यांमार-जैसे अलग-थलग पड़े राष्ट्र को दुबारा विश्व-राजनीति के मानचित्र् पर ला खड़ा किया है| सू ची की तुलना नेल्सन मंडेला और बेनज़ीर भुट्रटो से भी की जाती है| कुछ हद तक यह ठीक है लेकिन नेल्सन मंडेला की तरह सू ची ने कोई भूमिगत हिंसक अभियान कभी नहीं चलाया और बेनज़ीर की तरह उन्होंने कभी सत्ता-सुख नहीं भोगा| 1990 के चुनाव में उन्होंने 59 प्रतिशत वोट और 80 प्रतिशत संसदीय सीटें जरूर जीती थीं लेकिन म्यांमारी फौज ने उन्हें सत्ता देने की बजाय जेल में डाल दिया| यदि 1990 में लोकतंत्र् का गला नहीं घोटा जाता तो आज म्यांमार की शक्ल की कुछ और होती| लगभग 15 साल तक नज़रबंद रहनेवाली सू ची को जब पिछले शनिवार को रिहा किया गया तो उनका स्वागत करने के लिए हजारों लोग सड़कों पर दौड़ पड़े| आज सू ची की हैसियत एक जिंदा शहीद की-सी है| सू ची की रिहाई से दुनिया का हर लोकतंत्र्प्रेम गद्रगद् हो गया है|
लेकिन यहाँ मुख्य प्रश्न यह है कि म्यांमार के फौजी शासन ने अब ताजा चुनाव के एक हफ्ते बाद सू ची को रिहा क्यों किया ? पहले क्यों नहीं किया ? जाहिर है कि यदि उन्हें चुनाव के पहले रिहा कर दिया जाता तो चुनाव की सारी चौपड़ ही उलट जाती| उनकी नज़रबंदी का समय तो पूरा हो चुका था लेकिन एक झूठे बहाने की ओट में उनकी नजरबंदी बढ़ा दी गई| एक अमेरिकी कूटनीतिज्ञ उनके घर के पास की एक नहर में से कूदकर उनके घर में क्यों चला गया ? सू ची और उसके बीच कोई साजिश चल रही थी क्या ? इधर उनकी नजरबंदी बढ़ाई और उधर नया चुनाव कानून बनाया गया, जिसमें लिख दिया गया कि कोई भी अपराधी व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता और यह नियम उस पर भी लागू होगा, जिसका पति या जिसकी पत्नी विदेशी हो| सू ची के पति बि्रटिश थे और एक विदेशी के साथ साजिश का अपराध उन पर थोप ही दिया गया था| सू ची ने तय किया कि उनकी ‘नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी’ नामक पार्टी चुनाव का बहिष्कार करेगी| 20 साल बाद होनेवाले इस चुनाव में अब जो दो प्रमुख पार्टियाँ रह गई, वे फौजियों की पार्टियाँ ही हैं| सू ची की पार्टी में फूट पड़ गई और फौजी सरकार ने उनकी पार्टी की मान्यता ही खत्म कर दी| रिहाई के तुरंत बाद सू ची ने पहला काम यह किया कि यांगोन के उच्च न्यायालय में पार्टी को दुबारा मान्यता दिलाने की याचिका लगाई म्यांमार मामलों के कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि यदि सू ची खुद चुनाव से बाहर हो जातीं और अपनी पार्टी को चुनाव लड़ने देतीं तो शायद उसे 1990 से भी ज्यादा वोट मिलते| लेकिन 7 नवंबर को हुए चुनावों के परिणाम क्या होंगे, इसके संकेत तो आते जा रहे हैं| फौजी पार्टी ‘यूनियन सॉलिडेरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी’ की विजय में जरा भी संदेह नहीं है| उसके मुकाबले पुराने शासक जनरल ने विन की ‘नेशनल युनिटी पार्टी’ भी कुछ सीटें जरूर जीतेगी| शेष छोटी-मोटी 37 पार्टियों के हाथ कुछ लगेगा या नहीं, कुछ पता नहीं| सू ची की रिहाई इस चुनाव के बाद इसीलिए की गई है कि उनके मैदान में आ जाने के बावजूद सत्ता-समीकरणों पर कोई खास असर नहीं पड़नेवाला है|
फौजी शासन चाहता तो अब भी वह सू ची को नज़रबंद किए रख सकता था| उसका कोई क्या बिगाड़ लेता ? संयुक्तराष्ट्र संघ के अनेक प्रतिबंधों के बावजूद फौज ने अपना निर्मम शिकंजा ढीला नहीं होने दिया| फौजी शासक इतने दुस्साहसी हैं कि उन्होंने संयुक्तराष्ट्र महासचिव बान-की मून को सू ची से नहीं मिलने दिया| तो फिर उन्होंने अभी सू ची को रिहा किया ही क्यों ? इसका एक प्रमुख कारण तो यह है कि म्यांमार की निंदा चारों तरफ से हो रही है| इस मुद्दे पर चीन के अलावा कोई भी राष्ट्र उसका समर्थन नहीं कर रहा है| प्रतिबंधों का सीधा असर फौज पर तो कुछ नहीं है लेकिन म्यांमार की जनता दिनोंदिन गरीब और असहाय होती जा रही है| तीन साल पहले बौद्घ भिक्षुओं के अपूर्व विद्रोह ने फौज का दम फुला दिया था| अब फौज को यह समझ में आ रहा है कि उसे कोई बीच का रास्ता निकालना होगा| सू ची की रिहाई अचानक नहीं हुई है| अभी सारे तथ्य सामने नहीं आए हैं लेकिन मेरा अनुमान है कि सू ची और सेनापति थानश्वे के बीच लंबे संवाद के बाद ही यह रिहाई संभव हुई है|
यदि उन दोनों के बीच कोई आपसी समझ नहीं होती तो रिहाई के बाद सू ची का रवैया काफी उखाड़-पछाड़ का हो सकता था लेकिन हम ज़रा तीन मुद्दों पर गौर करें| एक तो सू ची ने अपने संघर्ष को अहिंसक बनाए रखने पर जोर दिया है| दूसरा उन्होंने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपील की है कि वह म्यांमार पर से सभी प्रतिबंध उठा ले ताकि जन-साधारण की दुर्दशा समाप्त हो| यही बात फौज भी कह रही है| तीसरी बात सू ची ने यह कही है कि वे राष्ट्रीय मेल-मिलाप चाहती हैं याने वे नागरिक स्वतंत्र्ताओं और मानव अधिकारों के लिए तो जरूर लड़ेंगी लेकिन फौजी शासन के साथ बातचीत करने में भी उन्हें कोई एतराज़ नहीं है| उन्होंने एक पत्र्कार-परिषद में यह भी कहा है कि नए चुनावों से उपजी संसद को भी वे मान्य करेंगीं, हालांकि चुनावी धांधलियों को उजागर करने में वे पीछे नहीं हटेंगी| इसका अर्थ क्या यह नहीं हुआ कि वे बेनज़ीर के चरण-चिन्हों पर चलने की कोशिश कर रही हैं| फौज के साथ सीमित समझौता करके औपचारिक लोकतंत्र् की बहाली की यह कोशिश कहां तक सफल होगी, कुछ नहीं कहा जा सकता| यह असंभव नहीं कि सू ची का भी वही हश्र हो, जो बेनज़ीर का हुआ है| यह भी संभव है कि उन्हें दुबारा नज़रबंद कर दिया जाए या उन्हें देश-निकाला दे दिया जाए| देश-निकाले की आशंका के कारण ही वे अपने पति की अंत्येष्टि में शामिल होने लंदन नहीं गई थीं|
फौज और सू ची के बीच भावी रिश्ता कैसा रहेगा, म्यांमार की जनता ही तय करेगी| यदि पांच करोड़ के इस देश में लाखों लोग सड़कों पर उतर आए तो म्यांमार की फौज को जनरल मुशर्रफ, नेपाल नरेश और शाहंशाहे-ईरान की तरह गद्दी छोड़नी ही पड़ेगी| यदि सू ची की रिहाई म्यांमारी जनता को उत्तेजित नहीं कर पाई तो फौज और सू ची के बीच लंबी लड़ाई या प्रतिस्पर्धा तो चलती ही रह सकती है| जाहिर है कि दुनिया के ज्यादातर छोटे-बड़े देश सू ची के प्रति सहानुभूतिपूर्ण होंगे लेकिन इस द्वंद्व में भारत की भूमिका क्या होगी ?
भारत ने सू ची की रिहाई का स्वागत किया है| सू ची को जब पहली बार गिरफ्तार किया गया था तो भारत ने फौजी सरकार के खिलाफ काफी कड़ी प्रतिक्रिया की थी लेकिन भारत ने धीरे-धीरे महसूस किया कि भारत के इस कठोर रवैए का फायदा चीन उठा रहा है| उन्होंने म्यांमार के फौजी शासकों के साथ सांठ-गांठ करके अपना प्रभाव इतना बढ़ा लिया था कि वह म्यांमार-भारत मामलों में अड़ंगे लगाने लगा था| म्यांमार भारत के मिजो और नागा बागियों के शरण देने लगा था| म्यांमार में बसे 30 लाख भारतवंशियों का जीना दूभर होने लगा था| इसके अलावा भारत को अपने पूर्वांचल के राज्यों को आपस में जोड़ने के लिए म्यांमार से जानेवाले सुगम मार्गों की जरूरत थी| म्यांमार के बंदरगाहों और थल-मार्गों के जरिए आग्नेय एशिया तक पहुंचना भी आसान होता है| म्यांमार के गैस और तेल के अकूत भंडारों से भी भारत लाभान्वित होना चाहता है| भारत की दालों की जरूरत की आपूर्ति सबसे ज्यादा म्यांमार ही करता है| यों भी म्यांमार का फौजी शासन भारत से संबंध सुधारने के संकेत भेजता रहता था| ऐसी स्थिति में भारत सरकार के सामने यह पहेली आ खड़ी हुई कि वह अपने राष्ट्रहितों की रक्षा करे या लोकतंत्र् की हवाई लड़ाई के लिए हवा में घूंसे चलाए ? भारत ने सू ची को रिहाई के लिए मैत्र्ीपूर्ण आग्रह कभी नहीं छोड़ा लेकिन उसने म्यांमार की फौजी सरकार के साथ पिछले डेढ़ दशक में अच्छे संबंध बना लिए| अनेक म्यांमारी नेता भारत आए और भारतीय नेता म्यांमार जाते रहे| म्यांमार के फौजी शासकों ने भारत को आश्वस्त किया कि वे वहां किसी प्रकार के भारत-विरोधी तत्वों को प्रभावशाली नहीं बनने देंगे| पिछले कुछ वर्षों में म्यांमार के नेताओं ने चीन के साथ थोड़ी सख्ती भी बरती है| उन्होंने चीन-समर्थक तत्वों को दबाने की कोशिश भी की है| भारत-म्यांमार संबंधों पर व्यंग्य कसनेवाले ओबामा भूल गए कि लोकतंत्र् की दुहाई देनेवाले अमेरिका ने पाकिस्तान, ईरान और सऊदी अरब जैसे राष्ट्रों में सदा तानाशाहियों को पनपाया-सरसाया| इसमें ज़रा भी संदेह नहीं कि यदि म्यांमार में दुबारा लोकतंत्र् का गला घोटने की कोशिश हुई तो भारत चुप नहीं बैठेगा लेकिन यदि म्यांमार की जनता ही चुप्पी लगाए बैठी रहेगी तो भारत की चिल्ला-पों का क्या फायदा होगा ?
सू ची आजाद रहें और राजनीति करती रहें, यह देखना भारत ही नहीं, सभी लोकतांत्र्िक राष्ट्रों का कर्तव्य है| संयुक्तराष्ट्र संघ को सू ची की रिहाई का विशेष स्वागत करना चाहिए और अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों को हटाकर उसका श्रेय सू ची को देना चाहिए| सू ची से अपेक्षा है कि वे अन्य 2200 राजनीतिक कैदियों की रिहाई की मुहिम भी छेड़े| यह असंभव नहीं कि औपचारिक सत्ता-प्रतिष्ठान में शामिल न होते हुए भी सू ची म्यांमार के राज-काज को चलाने में सक्रिय भूमिका निभाने लगें| फौज का मनोबल धीरे-धीरे नीचे गिरता चला जा रहा है| बढ़ते हुए भ्रष्टाचार और गरीबी को दूर करने में फौज असमर्थ हो गई है| ऐसी स्थिति में सू ची नैतिक शक्ति के दैदीप्यमान सूर्य की तरह म्यांमार के राजनीतिक आकाश में चमक सकती हैं| उनके समर्थकों को नई सरकार में समुचित स्थान दिए जा सकते हैं और पूर्ण लोकतांत्र्िक शासन की पूर्व-पीठिका के तौर पर एक ऐसी अंतरिम व्यवस्था कायम की जा सकती है, जो संघर्ष की बजाय सहयोग पर आधरित हो| सू ची म्यांमार के राष्ट्रीय समन्वय की प्रतीक बनकर उभर सकती हैं| यह तभी हो सकता है जबकि उनका हृदय प्रतिशोध-मुक्त हो और म्यांमार की फौज अपने बैरकों में ससम्मान लौटने को तैयार हो|
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