पंजाब केसरी, 03 मार्च 2004। पहला प्रश्न तो यही है कि यदि सोनिया गॉंधी विदेशी नहीं होतीं तो भी क्या वे इस लायक होतीं कि भारत की प्रधानमंत्री बनतीं? भारत जैसे विशाल और जटिल राष्ट्र के प्रधानमंत्री बनने के लिए जो न्यूनतम गुण किसी व्यक्ति में होने चाहिए, क्या वे भी सोनिया गॉंधी में हैं? यहॉं सोनिया गॉंधी की कमजोरियॉं गिनाने का ओछा काम करना मुझे उचित नहीं लगता लेकिन वे राजीव गॉंधी के अनुभव से भी कुछ क्यों नहीं सीखना चाहतीं? राजीव गॉंधी पर प्रधानमंत्री पद जबर्दस्ती थोपा गया| उसका नतीजा क्या हुआ? राष्ट्र, पार्टी, परिवार और स्वयं राजीव ने उसका खामियाजा भुगता| खुर्राट पार्टी नेताओं ने कैसी-कैसी राजनीतिक पहलें कीं और कैसे-कैसे कानून बनवाए? खुशामद की फिसलपट्टी पर राजीव गॉंधी फिसलते ही चले गए| राम मंदिर शिलान्यास, शाह बानो मामला, पत्रकार-विरोधी कानून जैसे कदमों ने राजीव-शासन को हास्यास्पद बना दिया| बोफर्स तोपों ने नेहरू परिवार की इज़्जत के परखचे उड़ा दिए| ऐसा नहीं है कि दूसरे सभी प्रधानमंत्री दूध के धुले हुए हैं लेकिन अनुभवहीन राजीव हाथ की सफाई दिखाने में सफल नहीं रहे और प्रचार की पनचक्की में पिस गए| शहीद इंदिरा गॉंधी के पुण्य से उन्हें जितनी सीटें मिली थीं, उनके कारनामों के कारण वे आधी रह गईं| पद गया, प्रतिष्ठा गई और प्राण भी चले गए| श्रीलंका में ऐसे गलत पासे उनसे फिंकवाए गए कि श्रीपेरेम्बदूर में वे बेमौत मारे गए| भारत मर्माहत हुआ| राजीव गॉंधी का यह दर्दनाक इतिहास क्या काफी नहीं है, सोनियाजी को यह सिखाने के लिए कि जिसका काम, उसी को साजे ! जो नेक सलाह उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के पहले राजीव गॉंधी को दी थी, वही मैं उन्हें देना चाहता हॅूं| सोनियाजी के प्रति मेरी गहरी सहानुभूति है| वे मेरी हमउम्र हैं| उनका बर्ताव अपने कॉंग्रेसियों के प्रति चाहे महारानियों-जैसा हो लेकिन मैंने उन्हें अपने साथ हमेशा शिष्ट, विनम्र और मुक्त पाया है| यह उन्हें तय करना होगा कि वे खुदगज़र् और खुर्राट नेताओं की कठपुतली की तरह अपनी जिंदगी गुजारना चाहती हैं या एक स्वतंत्र और स्वाभिमानी आधुनिक महिला की तरह ! यों तो प्रधानमंत्री पद बहुत दूर की कौड़ी है लेकिन अगर वह हाथ आ भी गया तो भी कठपुतली के शाप से वे मुक्त नहीं हो सकतीं| वास्तव में प्रधानमंत्री पद उनके कठपुतलीपन को हजारगुना अधिक बढ़ा देगा|
प्रधानमंत्री पद दूर की कौड़ी इसलिए भी है कि वे विदेशी मूल की हैं| विदेशी मूल एक मात्र कारण नहीं है लेकिन महत्वपूर्ण कारण है| यदि विदेशी मूल के ए.ओ.ह्यूम कॉंग्रेस के संस्थापक हो सकते हैं और सिस्टर निवेदिता आदि कई विदेशी मूल के लोग कॉंग्रेस अध्यक्ष बन सकते हैं तो सोनिया गॉंधी प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकतीं? शायद बन जातीं, लेकिन वैसे असाधारण गुण तो उनमें होने चाहिए थे| हेनरी कीसिंजर अमेरिका के केवल विदेश-मंत्री पद तक पहॅुंचे, जर्मन मूल के होने के कारण राष्ट्रपति नहीं बन सकते थे लेकिन इतने गुणी थे कि अमेरिका में मॉंग होने लगी कि विदेशी मूल का व्यक्ति यदि राष्ट्रपति बनने योग्य हो तो उसे बनने दिया जाए| क्या ऐसे कोई बेमिसाल गुण सोनियाजी में हैं? ए.ओ.ह्यूम और सिस्टर निवेदिता जैसे त्यागी, आदर्शवादी और संघर्षशील महापुरुषों के साथ प्रधानमंत्री-पद के उम्मीदवारों की तुलना करना उन महापुरुषों का अपमान है| प्रधानमंत्री-पद तो एक कुर्सी है, जिस पर तरह-तरह के लोग बैठ जाते हैं या बिठा दिए जाते हैं| महापुरुष तो स्वयं बनना पड़ता है| वह किसी के बनाए नहीं बनता| यदि किसी कापुरुष को शत-प्रतिशत वोट भी मिल जाऍं तो भी वह उन वोटों से महापुरुष नहीं बन सकता| ह्यूम और निवेदिता इसलिए कॉंग्रेस के नेता नहीं बने कि उनकी सास या पति कॉंग्रेस के अध्यक्ष थे| उन्हें महानता उपहार में नहीं मिली थी| वह उन्होंने स्वयं अर्जित की थी| महापुरुषत्व के मुकाबले प्रधानमंत्री पद छोटा जरूर है लेकिन इतना छोटा नहीं है कि किसी को उपहार में दे दिया जाए| राजीव गॉंधी को देकर भारत भुगत चुका है| ऐसी गलती वह दुबारा क्यों करेगा? जो ठंडी छाछ से जल गया, वह अपने मॅुह में खौलता हुआ दूध क्यों उंडेलेगा?
सोनियाजी विदेशी मूल की हैं, इसीलिए वे खौलता हुआ दूध हैं| उनके अनुभव और उनकी अनुभूतियॉं राजीव गॉंधी जितनी भी नहीं हैं| इसमें शक नहीं कि उनकी चमड़ी के रंग के अलावा उनका सब कुछ भारतीय दिखाई पड़ता है| जी हॉं, भारतीय| साड़ी, हिन्दी, नमस्ते, गंगा में डुबकी, माथे पर तिलक, दाल-रोटी का भोजन, आलथी-पालथी मारकर बैठना – यह सब कुछ भारतीय है| लेकिन यह सब कुछ क्या बहिरंग नहीं है? नेतागीरी का चस्का आदमी से क्या-क्या नहीं करवा लेता? बहरूपियापन का दूसरा नाम ही नेतागीरी है| सोनियाजी इसमें पारंगत हो गई हैं, इसमें जरा भी शक नहीं लेकिन अंतरंग का क्या हाल है? अंदर का रंग ही असली रंग होता है| यदि इतालवी माता-पिता की संतान होते हुए भी वे इटली को भूल गईं तो इसे मानवीय चरित्र का कौनसा रूप कहा जाए? और अगर नहीं भूलीं तो भारत के प्रति उनकी आस्था को अखंड कैसे माना जाए? अधूरे चरित्र और अधूरी आस्था के किसी नागरिक को तो कोई राष्ट्र बर्दाश्त कर सकता है लेकिन क्या प्रधानमंत्री की कुर्सी में किसी ऐसे व्यक्ति को बिठाया जा सकता है? स्वाधीनता संग्राम के दौर में जो विदेशी सज्जन हमारे नेता बने, वे भी अपने मूल को भूले न होंगे लेकिन उनका यह दोहरा रूप उन्हें अधिक प्रामाणिक योद्घा बना रहा था| गोरे होकर भी गोरों के खिलाफ लड़ रहे हैं, यह तथ्य उन्हें भारत का हृदयहार बना रहा था लेकिन जब मामला संघर्ष का नहीं, सत्ता का हो, त्याग का नहीं, लाभ का हो, खोने का नहीं, पाने का हो तो सारा गणित उलट जाता है| ऐसे नेताओं के सद्रगुण भी लोगों को दिखाई नहीं पड़ते| सोनियाजी अपना वैधव्य कितने गरिमापूर्ण ढंग से काट रही हैं, कहीं इसकी सराहना भी नहीं सुनी जाती| आखिर ऐसा क्यों? क्या इसीलिए नहीं कि वे प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार हैं? इसमें शक नहीं कि वे प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार नहीं होतीं तो वे कॉंग्रेस में तो जान फॅंूक ही सकती थीं, शायद देश में भी जान फॅूंक देतीं| वे सिस्टर निवेदिता और मदर तेरेसा से भी बड़ा काम कर सकती थीं लेकिन वे हीनयान पर सवार हो गई हैं, जो ढलान की तरफ लुढ़कता चला जा रहा है| उनके पति जितनी सीटें छोड़ गए थे, उनके नेतृत्व में उनसे आधी रह गइ्र हैं| अब पता नहीं, कितनी बचेंगी?
सोनिया गॉंधी को कोई भी कानून प्रधानमंत्री बनने से नहीं रोक सकता| अगर उनके प्रधानमंत्री बनने की जरा भी संभावना होती तो उन्हें रोकने के लिए कानून जरूर बन जाता| कानून नहीं है, इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें कोई नहीं रोकेगा| उन्हें भारत की जनता रोक रही है| आम जनता के लिए ‘मूल’ शब्द निरर्थक है| वह सिर्फ एक शब्द समझती है-विदेशी ! किसी भारतीय से शादी करने पर कोई स्वदेशी कैसे हो जाता है और नागरिकता लेने से क्या बदल जाता है, आम आदमी इन बारीकियों को नहीं समझता| उसे डराने के लिए विदेशी का भूत काफी है| यों भी गोरी चमड़ी और पराधीनता का भारत में लंबा साथ रहा है| राष्ट्र के अचेतन मन से इस भय को सोनिया गॉंधी कैसे निकाल पाऍंगी? याद रहे, चेतन मन के मुकाबले अचेतन मन हजारगुना शक्तिशाली होता है| कॉंग्रेसी इस रहस्य को समझ गए हैं लेकिन नेहरू परिवार की अंध-भक्ति के कारण किसी में मॅुंह खोलने की हिम्मत नहीं है|
कॉंग्रेसी जान गए हैं कि उनका ब्रह्मास्त्र फुस्स हो गया है| वह गीला पटाखा साबित हुआ है| अब अपनी वेदी सजाने के लिए वे नए बकरों की तलाश में हैं| उन्हें जरा भी संकोच नहीं है| वे बड़े निर्मम हैं| अब वे सोनिया गॉंधी के प्यारे-प्यारे बच्चों को झांेकने के लिए तैयार हो गए हैं| ऐसे बच्चे, जिनका भारतीय बाप इस दुनिया में नहीं है और जिन पर अपनी इतालवी मॉं की छाया मॅंडरा रही है| इसमें शक नहीं कि ये बच्चे अपनी मॉं के मुकाबले ज्यादा स्वीकार्य होंगे लेकिन सार्वजनिक जीवन का उन्हें इतना अनुभव भी नहीं हैै, जितना कि राजीव गॉंधी को था ! आखिर कॉंग्रेसियों को हुआ क्या है? न उनके पास नेता है, न नीति है| नीतियों के अभाव में वे नेता के बच्चों को आगे बढ़ा रहे हैं याने लोकसभा के आसन्न चुनाव को वे अनजाने ही व्यक्तिमूलक बना रहे हैं| यह चुनाव सिद्घांतों, नीतियों और नारों पर नहीं, व्यक्तियों पर केंदि्रत हो रहा है| इसे ‘अटलजी बनाम सोनियाजी’, होने से कौन रोक सकता है? इसे ‘अटलजी बनाम सोनियाजी के बच्चे’ बनाने से कॉंग्रेस को क्या फायदा है? हाथी बनाम मेमने की लड़ाई में कौन जीतता है? विदेशी मॉं या बाप के बच्चे प्रधानमंत्री बन सकते हैं या नहीं, यह इतने दूर की कौड़ी है कि उसे झेलने के लिए अभी दौड़ना तो बचकाना हरकत ही है|
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