जनसत्ता, 12 सितंबर 2002। पहला प्रश्न तो यही है कि जयललिता ने सोनिया का मुद्दा क्यों उठाया ? इसी वक़्त क्यों उठाया ? काँग्रेसियों का जवाब है कि केंद्र सरकार की खुशामद में उठाया| खुशामद इसलिए कि वे कई आपराधिक मामलों में फँसी हुई हैं| केंद्र की कृपा पाने का इससे बेहतर पैंतरा क्या होगा कि सोनिया का मुद्दा उछाल दिया जाए| काँग्रेसियों का यह तर्क गले नहीं उतरता| इसके कई कारण हैं| पहला तो यही कि असली मसला सोनिया का नहीं , प्रधानमंत्री का है| आज अचानक इस तरह की बहस का चल पड़ना कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा, यही बहुत खतरनाक है, भाजपा-गठबंधन सरकार के लिए| खास तौर से तब जबकि अभी-अभी उप-प्रधानमंत्री पद का बिरवा रोपा गया है| क्या जयललिता के बयान से यह ध्वनित नहीं होता कि वर्तमान राष्ट्रीय नेतृत्व अब चलाचली की वेला में है | सोनिया क्या, किसी के भी प्रधानमंत्री बनने की बात क्या यह भय उत्पन्न नहीं करती कि वर्तमान नेतृत्व के सूर्य पर शंका के बादल छा गए हैं और उसका अस्ताचल निकट ही है| स्वयं जयललिता ने कह दिया है कि वे तीसरे विकल्प की तलाश में हैं याने गैर-भाजपा और गैर-काँग्रेस विकल्प ! जयललिता का तीसरा विकल्प फिलहाल धुएँ के छल्ले से ज्यादा कुछ नहीं है लेकिन भावी प्रधानमंत्री की बहस ने देश में अच्छा-खासा धुंधलका फैला दिया है| इससे असली फायदा किसका हो रहा है ? सोनिया गाँधी का या अटलबिहारी वाजपेयी का ? ज़ाहिर है कि सोनिया का| श्री वाजपेयी का सबसे ज्यादा नुकसान अगर किसी के हाथों हो रहा है तो वह जयललिता के हाथों| यदि भाजपा के कार्यकर्त्ता सोनिया की बहस से खुश हो रहे हैं तो मानना पड़ेगा कि वे केवल शब्द पकड़ रहे हैं, अर्थ तो उनके हाथों से फिसला चला जा रहा है| यह बहस सोनिया की नहीं, प्रधानमंत्री की है| प्रधानमंत्री के साथ फिलहाल उनके समीकरण जो भी हों, हम यह न भूलें कि जयललिता ने पहले वाजपेयी-सरकार गिराई थी और अब वह वाजपेयी-प्रतिष्ठा गिरा रही हैं|
सोनिया के सवाल पर काँग्रेसियों का नाराज़ होना स्वाभाविक है| जिसके जो हाथ पड़ रहा है, वही वह जयललिता के सिर दे मार रहा है| जयललिता से वे पूछ रहे हैं कि रामचंद्रन कौन थे ? क्या वे विदेशी नहीं थे ? वे श्रीलंका में पैदा नहीं हुए थे ? आडवाणी और इंदर गुजराल कहां पैदा हुए थे ? यदि जयललिता को विदेशी से इतनी नफ़रत है तो उन्होंने उस काँग्रेसी-सरकार के समर्थन में राष्ट्रपति को पत्र क्यों लिखा था, जिसकी प्रधानमंत्री केवल सोनिया ही बन सकती थी ? क्या जयललिता खुद प्रधानमंत्री बनने के दिवा-स्वप्न देखने लगी हैं ? उन्हें कहीं स्त्री-सुलभ ईर्ष्या का दौरा तो नहीं पड़ गया है| आखिर वे सोनिया के पीछे क्यों पड़ गई हैं ? क्या वे उस प्रसिद्घ चाय-पार्टी को भूल गईं, जिसमें उन्होंने और सोनिया ने मिलकर वाजपेयी सरकार को गिराने का संकल्प किया था| जयललिता शायद इस गलतफहमी में जी रही हैं कि अगर सोनिया और उनमें से किसी एक को चुनना है तो भारत उन्हें ही चुनेगा| सोनिया बनाम जयललिता का युद्घ छिड़ जाए तो जाहिर है कि उसका परिणाम क्या होगा ? सोनिया विदेशी मूल की हैं, इसके बावजूद लोग जयललिता को नहीं चुनेंगे| भारत तमिलनाडु नहीं है| प्रतिशोध की राजनीति का जो फायदा जयललिता को तमिलनाडु में मिलता रहा है, वह सारे भारत में नहीं मिल सकता| दूसरे शब्दों में जयललिता खुद को सोनिया के मुकाबले खड़ा करके, सोनिया को ही मजबूत बना रही हैं| बल्कि यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वे विदेशी मूल के मुद्दे को ही रफा-दफ़ा करने का काम कर रही हैं|
जयललिता के बड़प्पन और भाजपा की परिपक्वता का पता तो तब चलता जबकि वे सोनिया पर तीर बरसाने की बजाय असली मुद्दे पर बहस चलाते| मुद्दा सोनिया नहीं है, मुद्दा है, देसी-विदेशी ! देसी-विदेशी का मुद्दा उठाने में आखिर वेंकटचलैया आयोग क्यों चूक गया ? उसे लकवा क्यों मार गया ? संविधान की समीक्षा करनेवाले आयोग ने इस मुद्दे को विचार के लायक क्यों नहीं पाया ? क्या सरकार के डर को उसने अपना डर बना लिया| क्या वह यह सोचकर झिझक गया कि यदि उसने इस मसले को मुद्दा बनाया तो कहीं सोनिया गांधी महानायिका न बन जाए ? सोनिया पर फोकस न आ जाए, इसलिए यह मुद्दा ही न उठाओ, इससे बढ़कर नैतिक कायरता क्या हो सकती है ? सोनिया को अभी तक कांग्रेसियों के अलावा किसने अपना नेता माना है ? और काँग्रेसियों का भी क्या भरोसा ? उसने अपने कई खरे सिक्के नाली में फेंक दिए, जैसे 1969 की इंदिरा गांधी, 1996 के नरसिंहराव और 1998 के सीताराम केसरी तो वह खोटे सिक्के को कब तक उछालते रहेंगे ? आज की नाव को कल का तिनका बनने में कितनी देर लगती है| काँग्रेस जितनी पतिव्रता है, उतनी ही पतिहन्ता भी है|
विदेशी मूल का मुद्दा काँग्रेसी उठाएँ, यह असंभव है| जिन्हें उठाना था, वे उठा चुके लेकिन यह वह मुद्दा है, जो अब उठना ही चाहिए| अमेरिका जैसे देश में यह मुद्दा पहले दिन ही उठा और उन्होंने अपने संविधान में प्रावधान कर दिया कि जिसका जन्म अमेरिका में नहीं हुआ हो, वह राष्ट्रपति नहीं बन सकता है| अमेरिका वह देश है, जिसमें लगभग सभी लोग विदेशों से आए हैं| फिर भी वे विदेशी के बारे में इतने सावधान हैं| भारत के संविधान-निर्माताओं ने यह सावधानी नहीं बरती, क्योंकि अंग्रेज को भगानेवाले यह कल्पना ही नहीं कर सकते थे कि कोई विदेशी आकर भारत में राज भी कर सकता है, खास तौर से जिसकी चमड़ी गोरी हो| काली चमड़ीवाले भारतीय राजाओं की सूची बनाने लगें तो हजारों वर्ष के इतिहास में ऐसे सैंकड़ों नाम मिल जाएँगे, जिन्हें हम विदेशी या परदेसी कह सकते हैं लेकिन उन दिनों का भूगोल कुछ ऐसा था कि देस और परदेस का फर्क करना ही मुश्किल हो जाता था| इसके अलावा तलवार के ज़ोर पर शासन होता था| शासक अपनी जनता चुनता था, जनता अपना शासक नहीं चुनती थी| आज राष्ट्र-राज्य की सीमाएँ भूगोल की छाती पर तलवारों की तरह खिंची हुई हैं और जनता पर कोई शासक बाहर से नहीं थोपा जा सकता| उसे अंदर से उगना पड़ता है| इसीलिए इतालवी मूल की कोई महिला या जर्मन मूल का कोई पुरुष भारत का प्रधानमंत्री बन भी जाए तो वह क्या कर लेगा ? वह मुँह की खाए बिना नहीं रहेगा| उसका अज्ञान, उसका अपरिचय, उसका संकोच, उसके संस्कार उसे ले डूबेंगे| चोर दरवाज़े से पहुँचने की क़ीमत विदेशी क्या, देसी आदमी को भी चुकानी पड़ती है| भारत में जन्मे होने के बावजूद राजीव गांधी का हश्र क्या हुआ ? इज़्ज़त गई, सत्ता गई और फिर जान भी चली गई| हर शॉर्टकट के नीचे एक पातालगामी खाई भी खुदी रहती है| कोई भारत का कर्णधार बने और फिर उस खाई में जा गिरे, इसके पहले ही कोई इन्तज़ाम ऐसा होना चाहिए कि भारत जैसे विराट राष्ट्र को जुआ खेलने पर मजबूर न किया जाए|
यहाँ सवाल सिर्फ प्रधानमंत्री का नहीं है (सोनिया का तो बिल्कुल ही नहीं), देश के हर किसी महत्त्वपूर्ण पद का है| किसी भी संवैधानिक पद पर क्या विदेशी मूल के व्यक्ति को नियुक्त किया जा सकता है ? क्या उसकी संतानों को भी वही छूट मिलनी चाहिए, जो अन्य किसी भारतीय के बच्चों को मिलती है| सिर्फ सरकारी पदों ही नहीं, राजनीतिक दलों में भी अगर सच्चा लोकतंत्र हो तो ऐसे लोग ऊपर आ ही नहीं सकते, जिनका मूल जनता में न हो और विदेशों में हो या सिर्फ राजमहलों में हो| राजनीतिक दलों की आंतरिक दुर्दशा का खमियाज़ा देश को भुगतना पड़ सकता है लेकिन इसका दोष किसी विदेशी मूल के नेता के माथे कैसे मढ़ा जा सकता है ? वह कोई चंगेज़ या तैमूर की तरह तलवार के ज़ोर पर पार्टी-अध्यक्ष नहीं बनता है| अगर दोष देना ही है तो उन जयचंदों और मीर जाफ़रों को देना होगा जो इस तरह की देसी या विदेशी ढालोंं की ओट में अपनी भोंतरी तलवारें भांजते रहते हैं|
Leave a Reply