दैनिक भास्कर, 13 अप्रैल 2011 : आजादी के बाद अनशन तो कई हुए, लेकिन अन्ना हजारे का अनशन अपूर्व था| इतने कम समय में इतनी जबर्दस्त प्रतिक्रिया पहले कभी नहीं हुई| श्रीरामुलू के अनशन ने आंध्रप्रदेश बनाया और तारासिंह और फतेह सिंह के अनशन ने पंजाब बनाया| अन्ना के अनशन ने अभी तक कुछ नहीं बनाया| लोकपाल भी नहीं| लेकिन इस अनशन ने सब सीमाएं तोड़ दीं| प्रांत, भाषा, जाति, मज़हब – कोई भी दीवार टिक न सकी| मानो पूरे देश में तूफान आ गया| चार-पांच दिन में ही सरकार की अकड़ ढीली पड़ गई| उसने घुटने टेक दिए|
आखिरकार यह अहिंसक चमत्कार हुआ कैसे ? क्या रहस्य है, इसका ! अन्ना हजारे जैसा विनम्र सिपाही रातांेरात राष्ट्रीय महानायक की तरह देदीप्यमान कैसे होने लगा ? लोगों को गांधी, लोहिया और जयप्रकाश क्यों याद आने लगे ? इसका मूल कारण है, संपूर्ण राष्ट्र में फैला भ्रष्टाचार-विरोधी आक्रोश ! एक के बाद एक इतने बड़े घोटाले हुए कि सारा राष्ट्र गहरे सदमें में उतर गया| इस सदमे से निजात दिलाने में न पक्ष सक्षम दिखा और न ही विपक्ष ! देश की राजनीति पथरा गई| जड़ हो गई| जड़ता के इस गहन अंधकार में अन्ना हजारे एक छोटे-से दीये की तरह उभरे| चार दिन में ही दीया दिनकर बन गया|
महाराष्ट्र के बाहर लोगों ने अन्ना हजारे का नाम भी नहीं सुना था और उन्हें यह भी पता नहीं था कि कौनसे बिल के लिए कैसी कमेटी बनाने पर अन्ना अड़े हुए हैं| लोकपाल क्या है और जन लोकपाल क्या है, इसका भी उन्हें कोई खास इल्म नहीं था| वे तो सिर्फ एक बात जानते थे कि अन्ना हजारे नामक एक बुजुर्ग ने भ्रष्टाचार के खिलाफ खांडा खड़का दिया है| भ्रष्टाचार के खिलाफ पहले से तनी हुई तोप के गोलों ने सरकार की नींद उड़ा दी| वे लोग भी अन्ना के पक्ष में कूद पड़े, जो भ्रष्टाचार किए बिना अपने धंधे में एक कदम भी आगे नहीं रख सकते| स्वयं अन्ना इस उद्दाम समर्थन को देखकर भौंचक थे| अन्ना की साफ-सुथरी छवि, सरल व्यक्तित्व और धोती-कुर्तें व गांधी टोपी ने इस समर्थन में चार चांद लगा दिए| ये बात दूसरी है कि अन्ना बार-बार अपने भाषणों में भगतसिंह, चंद्रशेखर और राजगुरू की माला जपते रहे| फौज का यह भूतपूर्व सिपाही हिंसा और अहिंसा के पचड़े में भी नहीं पड़ता| उसे लोग चाहे गांधी का अवतार कहते रहें, लेकिन उसके अनशन के दौरान बार-बार भ्रष्टाचारियों के हाथ काटने और उनको फांसी पर लटकाने की बातें जोर-जोर से कही जाती रहीं| क्या गांधीजी इसे बर्दाश्त करते|
यदि अखबारों और टीवी चैनलों ने इस अनशन को न उछाला होता तो अन्ना की गति भी शायद वही होती, जो मणिपुर में बरसों से अनशन कर रही महिला की हो रही है| अन्ना के पास न तो संगठन था, न पैसा और न ही कोई ‘कनेक्शन’| भारतीय मीडिया को सलाम कि उसने जनता की नब्ज पहचानी| सरकार घुटने नहीं टेकती तो क्या करती ? भ्रष्टाचार ने उसके घुटने पहले से तोड़ रखे हैं| उसने इन्हीं टूटे हुए घुटनों को अन्ना के सामने टिका दिया है| इसका श्रेय जितना अन्ना को है उससे कहीं ज्यादा बेचारी भारत सरकार को है| यह कहना बिल्कुल गलत है कि अन्ना ने सरकार को ‘ब्लेकमेल’ कर दिया| सारा देश पहले से ‘ब्लेकमेल’ हो रहा है| अन्ना ने इस देश को उजाल दिया है| ‘व्हाइटमेल’ कर दिया है|
यह खुशी की बात है कि इस अनशन की सफलता से अन्ना का दिमाग फूला नहीं| अपनी सीमाओं को वे खूब समझते हैं| यह बुद्घिमान होने का सबसे बड़ा प्रमाण है| लोकपाल-विधेयक बनाने के लिए जो संयुक्त समिति घोषित हुई है, यह अनशन की विजय जरूर है, लेकिन भ्रष्टाचार-निवारण की दिशा में बढ़ा हुआ यह एक छोटा-सा कदम है| डर यह है कि आंदोलनकारी इस राई को पहाड़ न समझ बैठें| पहली बात तो यह कि यह संयुक्त समिति बहुत हड़बड़ी में बनी है| इसमें लोक-मर्यादा का ध्यान रखा जाता और खुद अन्ना इसके बाहर रहते तो इसकी शान कुछ और होती| सिर्फ कांग्रेस के ही मंत्री इसमें क्यों रखे गए ? इसे सर्वदलीय समिति क्यों नहीं बनाया गया ? क्या अकेली कांग्रेस पार्टी इस विधेयक को कानून बनवा सकती है ? क्या इतने सांसद उसके पास हैं ?
दूसरी बात, सरकारी लोकपाल और जन-लोकपाल में जमीन-आसमान का अंतर है| यह कमेटी यदि उस अंतर को पाट सके तो यह दुनिया का आठवां आश्चर्य होगा| सरकारी लोकपाल बिल्कुल नखदंतहीन है और अन्ना के लोकपाल के चेहरे पर दांत ही दांत हैं| दोनों ने अपने-अपने विधेयक को इज्जत का सवाल बना रखा है|
दोनों पक्ष यदि अपनी जगह से बिदके तो जनता को वे क्या मुंह दिखाएंगे ? सरकारी कमेटी में हिस्सेदारी पाकर आंदोलनकारियों ने क्या लोक-प्रभुत्व की महिमा को घटाने का काम नहीं किया है ? और सरकार ने घुटने टेक कर क्या संसदीय संप्रभुता के साथ खिलवाड़ नहीं किया है ? एक दृष्टि से दोनों ही पक्ष पराजय को प्राप्त हुए हैं| जिन नेताओं को हम भ्रष्ट और चोर कह रहे हैं अब हम उनके साथ बैठकर उनकी थाली में ही जीमने को तैयार हो गए है| उधर सरकार ने अपनी कमजोरी के कारण जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की इज्जत भी दांव पर लगा दी है| इस स्थिति के बावजूद यदि कोई सर्वमान्य विधेयक बन जाए तो उसे सुखद अपवाद माना जा सकता है| यदि लोकपाल के मुद्दे पर कोई सर्वसम्मत विधेयक बन गया तो क्या वह लोकपाल मुनाफाखोर निगमों और तथाकथित गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) की भी खाट खड़ी करेगा या नहीं ? यहां सूत्र्धार के तौर पर अरविंद केजरीवाल की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है|
तीसरी बात और सबसे महत्वपूर्ण बात ! क्या लोकपाल कानून पास हो जाने से भ्रष्टाचार मिट जाएगा ? अन्ना कहते हैं कि 90 प्रतिशत मिट जाएगा| जिन 60 देशों में लोकपाल काम कर रहे हैं, उनमें से कई राष्ट्र अब भी अतिभ्रष्ट हैं| स्वीडन लोकपाल (ओम्बड्रसमेन) का पिता है| 202 साल से वहां लोकपाल काम कर रहा है लेकिन जरा याद करें कि बोफोर्स घोटाला किस देश ने किया था ? स्वीडन ने ! सबसे पुराने लोकपाल वाले इस देश ने अपने यहाँ भ्रष्टाचार खत्म किया या नहीं, उसने इसे भारत तक फैला दिया|
लोकपाल तो डॉक्टर की तरह होता है उसका काम सिर्फ उनका ईलाज करना है, जो रोगी हैं| वह सबका स्वास्थ्य ठीक कैसे रख सकता है| किसी गांव में हम एक डॉक्टर बैठा दे तो क्या पूरा गांव पूर्ण स्वस्थ रहेगा| पूर्ण स्वास्थ्य के लिए डॉक्टर नहीं, सब लोगों को अपने स्वास्थ्य की रक्षा स्वयं करनी होगी| भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के लिए राजनीति, कानून, संसद और अदालतों की भूमिका महत्वपूर्ण है, लेकिन उसे मिटाने के लिए जिस आध्यात्मिक और नैतिक आंदोलन की जरूरत है, उसका इंतजार भारत को आज भी है| यह काम नेताओं के बस का नहीं है| इस काम को कोई वास्तविक महापुरूष ही पूर्ण कर सकता हैं| इसके बिना हमारे नौकरशाह, सांसद और न्यायाधीश तो क्या, स्वयं लोकपालजी भ्रष्टाचार के सबसे बड़े स्त्रेत और संरक्षक बन सकते हैं|
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