रा. सहारा, 13 मई 2008 : ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदी निजाद की नई दिल्ली यात्र इतनी छोटी थी कि उनकी जगह और किसी संक्षिप्त राष्ट्र के राष्ट्रपति होते तो उनकी तरफ किसी का ध्यान भी नहीं जाता| क्या बजह है कि पॉंच छ: घंटे की इस भारत-यात्रi पर दुनिया ने इतना ध्यान दिया? पहला कारण तो यही है कि अहमदीनिजाद को अमेरिका का दुश्मन माना जाता है और आजकल भारत अमेरिका से दोस्ती गांठने में दिन-रात एक किए हुए है| तो फिर एक म्यान में दो तलवारें कैसे रह सकती हैं| अमेरिका जिन तीन राष्ट्रों को ‘शैतान की आँत’ कहकर पुकारता है, उनमें से ईरान सबसे प्रमुख है| ईरान पर अमेरिका ने तरह-तरह के प्रतिबंध लगा रखे हैं| वह ईरान पर उसी तरह कब्जा करने की फिराक में है, जैसा उसने एराक पर किया हुआ है| अमेरिकी दबाव के कारण ही भारत ने अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी में ईरान के विरूद्घ दो बार मतदान कर दिया| ऐसे ईरान के राष्ट्रपति का भारत में स्वागत करना अपने आप में बड़ी हिम्मत का काम था| इस घटना ने भारतीय विदेश नीति पर आए लांछन को काफी हद तक धो दिया है| भारत ने पाकिस्तान और श्रीलंका की तरह ईरानी राष्ट्रपति की औपचारिक-यात्र तो आयोजित नहीं की लेकिन अचानक ही भारत को उसका फायदा मिल गया| स्वयं अहमदीनिजाद ने श्रीलंका से ईरान लौटते हुए भारत में सुस्ताने का प्रस्ताव रखा| भारत ने इसे स्वीकार कर लिया| सुस्ताने के लिए की गई इस यात्र ने भारत-ईरान संबंधों को चुस्ताने का काम किया| पिछले ढाई-तीन वर्षों में हमारे द्विपक्षीय संबंधों में जो सुस्ती का माहौल पैदा हो गया था, वह अब चुस्ती में बदल गया है|
पिछले दिनों ईरानी भारत पर खुले-आम ताना मारने लगे थे| वे कहते थे कि भारत ने खुद तो परमाणु बम बना लिया और वह ईरान पर उपदेश झाड़ता रहता है| अमेरिकी दबाव में फँसकर और सौ चूहे मारकर बिल्ली हज करने चली है| ईरान ने भारत की दोस्ती का पल्ला नहीं छोड़ा लेकिन यह भी कहा कि भारत-अमेरिकी परमाणु-सौदे का कोई औचित्य नहीं है| धीरे-धीरे ईरान भारत से दूर होता चला जा रहा था| ईरान का भारत से इतना मोहभंग होता जा रहा था कि यदि पाकिस्तान और अफगानिस्तान अमेरिका के आश्रित नहीं होते तो ईरान भारत के विरूद्घ शायद इस्लामी गुट खड़ा कर देता| उसे वह दक्षिण एशिया का इस्राइल घोषित कर देता| भारत के प्रति ईरानी रवैया वही होता, जो 1965 और 1971 के युद्घों में हुआ था| लेकिन ईरान ने ज्यादा उत्तेजित होने की बजाय अपनी नाराज़गी को धीरे-धीरे प्रगट करना शुरू कर दिया था| भारत और ईरान के बीच 25 बिलियन डॉलर का जो गैस का सौदा होने वाला था, उसे ईरान ने ताक पर रख दिया था| इसी प्रकार भारत ने भी 7-8 बिलियन डॉलर की जो ईरान-पाक-भारत गैस पाइप लाइन बनने वाली थी, उससे अपना हाथ खीच लिया था| भारत का तर्क यह था कि ईरान अपनी गैस की कीमत बहुत बढ़ा-चढ़ाकर मॉंग रहा है कि और पाकिस्तान ने पाइप-लाइन का किराया भी आसमान पर पहुँचा दिया है| लेकिन ईरानियों का मानना था कि भारत की ओर से ये बहाने अमेरिकियों को खुश करने के लिए बनाए जा रहे हैं| उनका सोचना यह भी था कि भारत को ऊर्जा की जरूरत है और यह जरूरत यदि अमेरिका अपनी परमाणु ऊर्जा से पूरी करने वाला है तो उसे ईरान की क्या जरूरत है? वह ईरानी गैस के लिए अमेरिका की परमाणु ऊर्जा की कुरवानी क्यों करे?
लेकिन परमाणु-ऊर्जा सौदे के खत्म होने की जितनी संभावना बढ़ रही है, भारत की नजर में ईरान का महत्व उतना ही बढ़ता चला जा रहा है| पेट्रोलियन मंत्री मुरली देवड़ा ने पाकिस्तान जाकर ईरानी और पाकिस्तानी मंत्र्ियों से बात की और कीमत और किराए के मसलों को हल कर लिया| ऐसे में अहमदीनिजाद की भारत-यात्र लगभग निरापद हो गई| ईरानी राष्ट्रपति ने अपने संक्षिप्त भारत-प्रवास में कोई ऐसी बात नहीं कही कि भारत-अमेरिकी संबंधों पर कोई उल्टा असर पड़े| उन्होंने कहा कि अगले 45 दिनों में तीनों राष्ट्रों के अफसर मिलकर गैस पाइप लाइन के सौदे को हल कर लेंगे| इस दौरान यह भी साफ़-साफ़ पता चल जाएगा कि भारत-अमेरिकी परमाणु-सौदा होगा या नहीं| पाइप लाइन सौदे को पक्का करते समय तीनों देशों के अफसरों को पाइप लाइन सुरक्षा पर विशेष ध्यान देना होगा| पाकिस्तान में आतंकवाद और अस्थिरता का जैसा दौर चल रहा है, उसे देखते हुए पाइप लाइन में अरबों रूपया फँसाना कहॉं तक व्यावहारिक है, यह तय करना बेहद जरूरी है| ईरान और पाकिस्तान तो इस प्रायोजना में चीन को भी शामिल करना चाहते हैं| ऐसी स्थिति में यह पाइप लाइन एशिया का सबसे बड़ा राजनीतिक सेतु भी बन सकती है| चारों महत्वपूर्ण एशियाई राष्ट्र एकसूत्र् में बँध जाएँगे| इन राष्ट्रों के आपसी हित एक-दूसरे के साथ इतने गुथ जाएँगे कि उनके अनेक झगड़े अपने आप नेपथ्य में चले जाएँगे| सीमा-विवाद, तिब्बत, कश्मीर जैसे मुद्रदों के अनेक रचनात्मक हल सूझने लगेंगे| यहॉं तक कि अफगानिस्तान में स्थायित्व और संपन्नता का नया दौर शुरू हो सकता है| ईरान के साथ-साथ तुर्कमेनिस्तान, कज़ाकिस्तान और उज़बेकिस्तान के गैस और तेल से पूरे दक्षिण एशिया को पाटा जा सकता है| शंघाई सहयोग परिषद्र की कार्रवाई का भी अपूर्व विस्तार हो सकता है|
इस प्रकि्रया में अमेरिकी अड़ंगे की संभावना बहुत कम है, क्योंकि अमेरिका समझ चुका है कि वह अब ईरान पर कब्जा नहीं कर सकता है| अमेरिका के पूर्व विदेश मंत्रियों ने अपनी सरकार को सलाह दी है कि वह ईरान से मुठभेड़ का रास्ता छोड़े और बातचीत की राह पकड़े| ईरान के प्रति तुर्की का ही नहीं, अमेरिका के यूरोपीय मित्र्-देशों का झुकाव भी बढ़ता जा रहा है| रूस के साथ उसके संबंध पहले से ही उत्तम हैं| अहमदीनिजाद की दिल्ली-यात्र ने आपसी गलतफहमियों को काफी हद तक दूर कर दिया है| भारत चाहें तो वह अमेरिका और ईरान के बीच मध्यस्थता भी कर सकता है| क्षेत्रीय महाशक्ति होने के नाते अपने पड़ोसी देशों के साथ भारत के संबंधों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए| यह काफी अटपटी बात थी कि अमेरिका के खातिर ईरान से हमारे संबंध ठंडे पड़ते चले जा रहे थे| उम्मीद की जानी चाहिए कि भारत-ईरान घनिष्टता अगले एक दशक में पूरी दक्षिण-एशिया का नक्शा ही बदल डालेगी|
Leave a Reply