रा. सहारा, 26 जुलाई 2004। जहॉं तक दक्षेस का सवाल है, इस्लामाबाद में हुआ विदेश मंत्रियों का सम्मेलन सफल ही माना जाएगा| इसके कई कारण हैं| एक तो इस सम्मेलन में किन्हीं भी दो देशों के बीच तू-तू – मैं-मैं नहीं हुई| सभी विदेशमंत्रियों ने कूटनीतिक सौजन्य का प्रदर्शन किया| दूसरा, 13वें दक्षेस शिखर सम्मेलन की तिथियॉं निश्चित हुईं और उसके विचारणीय विषयों पर सहमति हुई| तीसरा, दक्षेस के बहाने दक्षिण एशियाई राष्ट्रों के विदेश मंत्रियों ने अनेक महत्वपूर्ण द्विपक्षीय मामलों पर भी चर्चा की|
यह तीसरी बात ही दक्षेस में चार चॉंद लगाती है| वरना दो दशक बीत गए और दक्षेस ने अभी तक चलना भी नहीं सीखा| विदेश नीति के कुछ निराशावादी विचारक तो यहॉं तक कह रहे हैं कि दक्षेस तो हमेशा के लिए मर गया| अब उससे कोई उम्मीद नहीं| वे यूरोपीय संघ और एसियान का उदाहरण देते हैं| ये दोनों क्षेत्रीय संगठन कहॉं से कहॉं पहुंच गए| आज सारे यूरोप की मुद्रा एक हो गई, यूरोपीय संसद बन गई, वीज़ा खत्म हो गए, व्यापार मुक्त हो गया, प्रतिरक्षा-दृष्टि में भी साम्य उत्पन्न हो रहा है, नए-नए सदस्य बन रहे हैं लेकिन दक्षेस के नाम पर सिर्फ जबानी जमा-खर्च हो रहा है| पिछले 12 सम्मेलनों में नेताओं ने आसमान तक छलांगे भरी, 182 सामूहिक घोषणाऍं कीं लेकिन ज़मीन पर चलने का ठिकाना तक नहीं है| सवा अरब लोगों की शिक्षा, चिकित्सा, भूख, भय की कोई भी खबर नहीं ली गई| दक्षेस के सातों देशों ने मिलकर किसी भी क्षेत्र में ऐसा ताम-झाम खड़ा नहीं किया कि दुनिया कहे कि दक्षिण एशिया ‘संगच्ध्वं, संवदध्वं’ के मार्ग पर चल पड़ा है|
यह आरोप बहुत हद तक सही है लेकिन दक्षेस तो अभी किशोर वय को भी प्राप्त नहीं हुआ| यूरोपीय संघ की नींव अब से पचास साल पहले और ‘एसियान’ की लगभग 40 साल पहले पड़ चुकी थी| शुरू के कुछ वर्षों में ये संगठन भी कछुआ गति से ही चलते रहे| इनमें और दक्षेस में बहुत फर्क भी है| दक्षेस में भारत अपने पड़ौसियों से इतना बड़ा है कि सब मिलकर भी उसके एक-तिहाई के बराबर भी नहीं हैं| यह स्थिति भयोत्पादक है| इससे यूरोप और आग्नेय एशिया मुक्त हैं| उन क्षेत्रों के अनेक महत्वपूर्ण राष्ट्र एक-दूसरे के मुकाबले लगभग बराबर हैं| दूसरा, जैसा भयंकर विवाद भारत और पाकिस्तान के बीच है, वैसा इन क्षेत्रों के किन्हीं भी राष्ट्रों के बीच नहीं है| तीसरा, अमेरिका की सरपरस्ती में जर्मनी और फ्रांस जैसे राष्ट्रों ने अपना पारम्परिक वैमनस्य छोड़कर एक ही सैन्य-शिविर के तहत रहना स्वीकार किया| इसी प्रकार आग्नेय एशिया में यह नहीं हुआ कि इंडोनेशिया जैसे गुट-निरपेक्ष राष्ट्र से पंगा लेने के लिए कोई पड़ौसी राष्ट्र अमेरिकी या रूसी शिविर में शामिल हो गया, जैसा कि पाकिस्तान हो गया था| चौथा, यूरोपीय संघ के सभी राष्ट्र ईसाई रहे हैं जबकि दक्षिण एशिया मज़हबों का अजायबघर है| यहॉं विभिन्न राष्ट्रों के क्षेत्र-बाहर ऐसे सम्पर्क बन गए, जो बराबर दुखदायी सिद्घ हुए है| इन विपरीत तत्वों के बावजूद दक्षेस अब तक चल रहा है, यह क्या कम बड़ी बात है| जनवरी 2006 से लागू होनेवाला रियायती व्यापार समझौता इतना चमत्कारी होगा कि लोग यह भूल जाऍंगे कि दक्षेस बीस साल तक सिर्फ जबानी जमा-खर्च करता रहा|
इस समय दक्षेस सफलता के कगार पर पहॅुंच गया है| यदि दक्षेस-राष्ट्रों के बीच सामूहिक आर्थिक सहकार मुक्त भाव से होने लगे तो 21वीं सदी को एशिया की सदी होने से कोई रोक नहीं सकता| दक्षेस की शक्ति पूर्णरूपेण प्रकट हो, इसके लिए यह जरूरी है कि इसमें ईरान, अफगानिस्तान और बर्मा को भी शामिल किया जाएग| बर्मा से ईरान तक बल्कि संपूर्ण मध्य एशिया तक एक ही सांस्कृतिक क्षेत्र हजारों वर्षों से सांस ले रहा है| उसमें एक साथ नया जीवन फूंकना जरूरी है| जैसे एसियान ने चीन, जापान, भारत और पाकिस्तान को अपना सहकारी माना है, वैसे ही दक्षेस को चाहिए कि वह चीन, रूस और मध्य एशिया के पॉंचों गणतंत्रों को अपना सहकारी बनाए| यदि यह हो सके तो दक्षिण एशिया अगले दस वर्षों में दुनिया के सबसे सम्पन्न इलाकों में गिना जाएगा| इस प्रक्रिया को तेज करने के लिए यह जरूरी है कि दक्षेस के शिखर सम्मेलन के साथ-साथ दक्षेस भूतल सम्मेलन भी हो याने नेताओं के साथ-साथ जनता का सम्मेलन भी हो| दक्षेस के दस राष्ट्रों से अगर दस हजार लोग हर साल पॉंच-सात दिन के लिए एक जगह जमा हों तो उनका दबाव इतना जबर्दस्त होगा कि नेतागण आगे बढ़ने को मजबूर हो जाऍंगे| ‘नेता-दक्षेस’ के साथ-साथ ‘जन-दक्षेस’ के आयोजन का भार सबसे पहले भारत को ही अपने कंधे पर उठाना चाहिए| अगर जन-दक्षेस की लोकपि्रयता बढ़ गई तो नेताओं द्वारा खड़े किए गए राजनीतिक विवाद अपने आप पीछे सरक जाऍंगे और आर्थिक सहकार आगे आ जाएगा|
इस्लामाबाद सम्मेलन की सबसे बड़ी उपब्धि यही है कि भारत और पाकिस्तान के विदेश मंत्र्िायों में जमकर बात हुई| क्या बात हुई, यह दोनों नहीं बता रहे| इसका एक अर्थ तो पक्का ही है कि दोनों पक्ष बात के इस सिलसिले को बरकरार रखना चाहते हैं| बात चलती रहे, टूटे नहीं, यही अपने आप में बड़ी बात है| पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से हुई श्री नटवरसिंह की मुलाकातों ने इस निष्कर्ष पर मुहर लगाई है कि भारत में नई सरकार बनते ही पाकिस्तान में जो गलतफहमी पैदा हो गई थी, वह अब दूर हो गई है| फिर भी पाकिस्तानी मित्रों का कहना है कि उनके सत्ता-प्रतिष्ठान को यह अभी तक पल्ले नहीं पड़ा है कि भारत में सत्ता का असली स्वामी कौन है? वह किनसे बात करे? सोनिया गॉंधी से, मनमोहन सिंह से, नटवरसिंह से या कम्युनिस्टों से? हमारा जवाब यह है कि सबसे करे| इसमें हर्ज क्या है? भारत का तंत्र किसी व्यक्ति या संस्था की बपौती नहीं है| वह पूरी तरह खुला हुआ है| इसीलिए विरोधी दलों से भी बात करने में कोई बुराई नहीं है| लोकतंत्र में सत्तारूढ़ होते हुए भी कोई दल सर्वशक्तिमान नहीं होता|
अच्छा हुआ कि पाकिस्तान ने द्विपक्षीय विवादों को दक्षेस में घसीटने पर ज्यादा जोर नहीं दिया| यदि कश्मीर, तमिल समस्या, फरक्का जल-विवाद जैसी द्विपक्षीय समस्याऍं दक्षेस के ढॉंचे में आ जातीं तो क्षेत्रीय सहकार का यह संगठन शुद्घ राजनीतिक अखाड़ा बन जाता| शायद अब तक दक्षेस का बिस्तर ही गोल हो जाता| पाकिस्तान यह कोशिश जरूर करता कि सारे पड़ौसी भारत के विरुद्घ लामबंद हो जाऍं| यह खुशी की बात है कि पाकिस्तान समेत सभी दक्षेस राष्ट्रों ने आतंकवाद के उन्मूलन का संकल्प किया है| ऐसा पहली बार हुआ है कि भारत ने सीमा-पार आतंकवाद के लिए पाकिस्तानी सरकार पर धुऑंधार हमला नहीं किया है और उसकी मजबूरियों को समझने की कोशिश की है| उधर पाकिस्तानी सरकार ने भी सीमा-पार आतंकवाद के भारतीय आरोप को एकाएक रद्द नहीं किया है| हो सकता है कि दोनों राष्ट्र अमेरिकियों को खुश करने की कोशिश कर रहे हों| जो भी हो, इस गैर-आर्थिक मुद्दे पर सब राष्ट्रों का एका उल्लेखनीय उपलब्धि है|
सितम्बर में दोनों देशों के विदेश मंत्री फिर मिलेंगे| इस बीच दोनों तरफ के अफसर आठ विवादास्पद मुद्दों पर भी बातचीत करेंगे| दोनों देशों के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है कि जिसे घुमाते ही 50-55 साल पुरानी गांठें खुल जाऍंगी| कश्मीर का हल होना तो दूर की बात है, अभी तो भारत-पाक बस मुजफ्फराबाद में ही अटक गई है| भारत का यह प्रस्ताव समझ में नहीं आया कि हमारे कश्मीरी इधर से उधर जाने के लिए भारतीय पारपत्र का इस्तेमाल करें| उधर जो कश्मीर है, पाकिस्तान के कब्जे में, वह भी कानूनी तौर पर तो भारत का ही हिस्सा है| अपने ही हिस्से में पारपत्र ले जाने का मतलब क्या है? क्या हमने मान लिया है कि कब्जाया हुआ कश्मीर पाकिस्तान का है? पाकिस्तान का हाल तो यह है कि वह भारतीय कश्मीर को भी भारत का हिस्सा नहीं मानता| इसीलिए उसने संयुक्तराष्ट्र पारपत्र की बात उठाई है| यह बेजा बात है| यदि दोनों देश अपने-अपने कश्मीरियों को कश्मीर में ही यात्रा के लिए पारपत्र देने को तैयार हों तो मानना पड़ेगा कि दोनों ने यथास्थिति को स्वीकार कर लिया है| नियंत्रण-रेखा अंतरराष्ट्रीय सीमा बन चुकी है| फिलहाल पारपत्र की बजाय पहचान-पत्र भी जारी किया जा सकता है| यह सब इतने पेचीदा सवाल हैं कि अगले डेढ़-दो माह में हल नहीं हो सकते| दोनों राष्ट्रों को अपना-अपना पक्ष प्रस्तुत करने में अभी कई माह लगेंेगे| पाकिस्तान के फौजी नेता परवेज़ मुशर्रफ का यह आग्रह नहीं, दुराग्रह ही है कि कश्मीर समस्या किसी सुनिश्चित समयावधि में हल हो| यदि वे इस दुराग्रह पर टिके रहे तो बातचीत का चलना असंभव हो जाएगा| क्या वे सीमापार आतंकवाद को बंद करने की कोई तिथि घोषित कर सकते हैं? इसी तरह पाकिस्तान की यह मांग भी उचित नहीं मालूम पड़ती कि दूसरे मुद्दों पर गाड़ी तभी आगे बढ़ेगी जबकि वह कश्मीर पर आगे बढ़े| अगर सम्पूर्ण भारत-पाक वार्ता को पाकिस्तान कश्मीर के खूंटे से बांध देगा तो वह लौटकर दुबारा आगरा पहुंच जाएगा| परवेज मुशर्रफ हथेली पर सरसों उगाने की कोशिश करेंगे तो उनकी हथेली पर निराशा के केक्टस उग आऍंगे| इसीलिए अभी सारा जोर समाधान खोजने की बजाय बातचीत को जारी रखने पर होना चाहिए| अगर बातचीत ही टूट गई तो समाधान क्या होगा? समाधान का जो भी हो, दक्षेस का अगल शिखर सम्मेलन ही खटाई में पड़ जाएगा| या तो कोई न कोई प्रधानमंत्री उपस्थित होने से मना कर देगा या केवल अपने विदेश मंत्री को भेज देगा| जरूरी यह है कि दक्षेस को हर क़ीमत पर जिन्दा रखा जाए ! यदि दक्षेस जिन्दा रहेगा तो शिखर सम्मेलन स्थगित होने के बावजूद भारत और पाकिस्तान में बातचीत के द्वार खुल रहेंगे| यह खुशी की बात है कि पाकिस्तानी पत्रकारों के हमले के जवाब में पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने दक्षेस की जमकर दुहाई दी| उन्होंने कहा कि जिस आधार पर दक्षेस की आलोचना होती है, उसकी आधार पर संयुक्त राष्ट्र संघ की आलोचना क्यों नहीं होती? दक्षेस जैसा भी है, अभी तो वही खिड़की है, जिसके ज़रिए पड़ौसियों से बात हो रही है| अभी खिड़की खुली रहे तो कभी दरवाज़ा भी खुल जाएगा|
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