दैनिक भास्कर, 28 जनवरी 2008 : हमारे कॉमरेड अब क्या कर रहे हैं? प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह जैसे ही चीन से लौटे, भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने झॉंझ-मजीरे कूट-कूटकर उनका स्वागत किया| करना ही था| दूसरों ने भी किया, क्योंकि उनकी यात्र सफल मालूम पड़ रही थी| यात्र की सफलता के पीछे व्यापार-वृद्घि आदि दूसरे तत्व तो थे ही, सबसे बड़ी बात यह थी कि सीमा-विवाद ने तूल नहीं पकड़ा| विश्लेषकों ने अंदाज लगाया कि चीन लालच में फॅंस गया है| 60 अरब डॉलर का रसगुल्ला इतना बड़ा है कि उसके मुंह में जाते ही उसकी बोलती बंद हो जाएगी| प्रधानमंत्री की यात्र के दौरान उसकी सचमुच बोलती बंद रही लेकिन अभी प्रधानमंत्री को लौटे हफ्ता भर ही हुआ है कि चीन ने अपना पुराना राग अलापना शुरू कर दिया है| उसने सिक्किम और भूटान से लगी सीमा-रेखा के भारतीय क्षेत्र् में भारतीय सेना की आवाजाही पर आपत्ति दर्ज की है| उसे आपत्ति है कि भारत सीमा के आस-पास सड़कें और पुल क्यों बना रहा है| चीन का यह रवैया सर्वथा निदंनीय है लेकिन देखना है कि हमारी कम्युनिस्ट पार्टियॉं अब कौन सी मुद्रा धारण करती हैं?
भारत-अमेरिकी परमाणु-सौदे पर हाय-तौबा मचानेवाली कम्युनिस्ट पार्टियों के सिर पर अब जूं भी नहीं रेंगेगीं| ऐसा क्यों है? अब वह ज़माना भी लद गया, जब हमारी कम्युनिस्ट पार्टियॉं पैसे, विचार और दिशा-निर्देश के लिए रूस और चीन पर निर्भर हुआ करती थीं| अब विचारधारा का बंधन भी एकदम ढीला पड़ गया है| रूस तो रूस, अब चीन भी पूंजीवादी पथ का पथिक बन गया है| ज्योति बसु और बुद्घदेव भट्टाचार्य भी चीनी नेता दंग स्याओ पिंग की तरह मानने लगे हैं कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बिल्ली गोरी है कि काली है| असली बात यह है कि वह चूहा मारती या नहीं? याने चीन हो या रूस सभी राष्ट्र अपना-अपना राष्ट्रहित साधने में लगे हैं| ऐसे में भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां अपना राष्ट्रहित छोड़कर परराष्ट्रहित-साधन करती क्यों दिखाई पड़ती हैं, समझ में नहीं आता| यदि आज वे चीन की आक्रामक नीति का विरोध करेंगी तो उनकी छवि में चार चॉंद लग जाऍंगे| लोग उन्हें राष्ट्रभक्त और राष्ट्रवादी मानने लगेंगे| वे जो भारत-अमेरिकी परमाणु-सौदे का विरोध कर रहे हैं, उसमें नई जान फुंक जाएगी| यह माना जाएगा कि भारत के कम्युनिस्ट अपने देश के हितों के लिए लड़ रहे हैं| वे अमेरिका का केवल अंध-विरोध नहीं कर रहे हैं| हमारे कम्युनिस्ट इतने ईमानदार हैं कि जब राष्ट्रहित का सवाल हो तो वे किसी को भी नहीं बख्शते, चाहे अमेरिका हो या चीन !
यदि हमारे कम्युनिस्ट राष्ट्रीय मुद्दों पर निष्पक्षता और निर्भयता का परिचय दें तो वे अपने आपको तथाकथित तीसरे मोर्चे के नेतृत्व के भी योग्य बना पाऍंगे| यह ठीक है कि उनके अमेरिका-विरोध का साथ देने में तीसरे मोर्चे के घटकों को कोई आपत्ति नहीं होगी लेकिन चीन पर उनके मौन का समर्थन कौन करेगा? वे मुलायम और चंद्रबाबू नायडू को नाराज किए बिना नहीं रहेंगे| सब घटकों और साधारण जनता को भी आश्चर्य होगा कि ये कैसे वामपंथी हैं, जो चीन का अंध-समर्थन करते हैं और अमेरिका का अंध-विरोध, खास तौर से तब जबकि चीन और अमेरिका के आपसी रिश्ते घनिष्टतम होते जा रहे हैं| क्या छोटे मियॉं बुद्घू साबित नहीं हो रहे, जो यह भी नहीं देख पाते कि दो बड़े मियॉं गल-मिलव्वल कर रहे हैं?
इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि अपने देशभक्ति प्रदर्शित करने के लिए हमारे-कम्युनिस्ट चीन का अंध-विरोध शुरू कर दें| यदि वे ऐसा करेंगे तो उनकी स्थिति काफी हास्यास्पद बन जाएगी| वास्तव में उनकी प्रतिकि्रया वैसी ही होनी चाहिए, जैसी कि किसी जिम्मेदार राजनीतिक दल की होनी चाहिए| भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों के नेताओं में जितने पढ़े-लिखे और आदर्शवादी लोग हैं, उतने बहुत कम दलों में है| ऐसे विचारशील नेतृत्व से आशा की जाती है कि वे चीन को समझाऍं| उसे बताऍं कि अब साम्राज्यशही के दिन लद गए| अंग्रेज के ज़माने में चीनी सम्राटों ने नेपाल, भूटान, सिक्किम, लद्दाख और अरूणाचल हजम करने के जो सपने देखे थे, उन्हें साकार करना अब असंभव है| जिस तिब्बत को उन्होंने पचास साल पहले निगला था उसे वे आज तक हजम नहीं कर पाए हैं| इक्कीसवीं सदी भौगौलिक विस्तारवाद नहीं, व्यापारवाद, समृद्घिवाद, सहयोगवाद की सदी है| अरूणाचल के तवांग क्षेत्र् पर दावा बोलकर चीन क्या पाना चाहता है? चीन को हानि ही हानि है| चीन के पास भारत के मुकाबले कई गुना ज़मीन है| तवांग लेकर वह कितनी जम़ीन अपनी जम़ीन में जोड़ लेगा? चीन की जनसंख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है| भारत से सवाई है| तवांग के कुछ हजार लोगों के जुड़ जाने से चीन कौनसी आबादी की प्रतिस्पर्धा जीत लेगा? तवांग के सवाल पर तनाव खड़ा करके चीन अपने 60 अरब डॉलर के भारत-चीन व्यापार को खटाई में क्यों डालना चाहता है? चीन अगर यह समझता है कि दिल्ली में एक पैबंदलगी चादर बिछी हुई है और वह उसमें छेद करने में सफल होगा तो यह उसकी गलतफहमी है| मनमोहन सरकार की मदद करने पर देश का हर दल उतारू हो जाएगा| प्रधानमंत्री चीन को रियायत देने का सपना भी नहीं देख सकते| वे अरूणाचल के दौरे के समय तवांग क्यों नहीं जा रहे हैं? अगर उन्हें तवांग नहीं भी जाना था तो अब तो अवश्य जाना चाहिए और चीन को स्पष्ट संदेश दे देना चाहिए कि सीमा के मामले में भारत कोई समझौता नहीं करेगा| पिछली सरकार ने तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया, इससे बड़ी रियायत क्या हो सकती है? यदि भारत की उदारता को चीन उसकी कमजोर समझता है तो सीमा-विवाद को हल करना असंभव हो जाएगा| चीन का ताजा रवैया उस सैद्घांतिक सहमति के भी विरूद्घ है, जो दोनों देशों के बीच 2005 में हुई थी| यदि चीन अपने रवैए पर अडि़यलपन दिखाता है तो देश के सभी दलों को भारत सरकार के साथ तुरंत एकजुट होने की जरूरत है, खासकर कम्युनिस्ट पार्टियों को, क्योंकि वह बेचारी सरकार उन्हीं की बैसाखियों पर चल रही है|
हमारे कम्युनिस्ट चीन पर मौन तोड़ें
दैनिक भास्कर, 28 जनवरी 2008 : हमारे कॉमरेड अब क्या कर रहे हैं? प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह जैसे ही चीन से लौटे, भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने झॉंझ-मजीरे कूट-कूटकर उनका स्वागत किया| करना ही था| दूसरों ने भी किया, क्योंकि उनकी यात्र सफल मालूम पड़ रही थी| यात्र की सफलता के पीछे व्यापार-वृद्घि आदि दूसरे तत्व तो थे ही, सबसे बड़ी बात यह थी कि सीमा-विवाद ने तूल नहीं पकड़ा| विश्लेषकों ने अंदाज लगाया कि चीन लालच में फॅंस गया है| 60 अरब डॉलर का रसगुल्ला इतना बड़ा है कि उसके मुंह में जाते ही उसकी बोलती बंद हो जाएगी| प्रधानमंत्री की यात्र के दौरान उसकी सचमुच बोलती बंद रही लेकिन अभी प्रधानमंत्री को लौटे हफ्ता भर ही हुआ है कि चीन ने अपना पुराना राग अलापना शुरू कर दिया है| उसने सिक्किम और भूटान से लगी सीमा-रेखा के भारतीय क्षेत्र् में भारतीय सेना की आवाजाही पर आपत्ति दर्ज की है| उसे आपत्ति है कि भारत सीमा के आस-पास सड़कें और पुल क्यों बना रहा है| चीन का यह रवैया सर्वथा निदंनीय है लेकिन देखना है कि हमारी कम्युनिस्ट पार्टियॉं अब कौन सी मुद्रा धारण करती हैं?
भारत-अमेरिकी परमाणु-सौदे पर हाय-तौबा मचानेवाली कम्युनिस्ट पार्टियों के सिर पर अब जूं भी नहीं रेंगेगीं| ऐसा क्यों है? अब वह ज़माना भी लद गया, जब हमारी कम्युनिस्ट पार्टियॉं पैसे, विचार और दिशा-निर्देश के लिए रूस और चीन पर निर्भर हुआ करती थीं| अब विचारधारा का बंधन भी एकदम ढीला पड़ गया है| रूस तो रूस, अब चीन भी पूंजीवादी पथ का पथिक बन गया है| ज्योति बसु और बुद्घदेव भट्टाचार्य भी चीनी नेता दंग स्याओ पिंग की तरह मानने लगे हैं कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बिल्ली गोरी है कि काली है| असली बात यह है कि वह चूहा मारती या नहीं? याने चीन हो या रूस सभी राष्ट्र अपना-अपना राष्ट्रहित साधने में लगे हैं| ऐसे में भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां अपना राष्ट्रहित छोड़कर परराष्ट्रहित-साधन करती क्यों दिखाई पड़ती हैं, समझ में नहीं आता| यदि आज वे चीन की आक्रामक नीति का विरोध करेंगी तो उनकी छवि में चार चॉंद लग जाऍंगे| लोग उन्हें राष्ट्रभक्त और राष्ट्रवादी मानने लगेंगे| वे जो भारत-अमेरिकी परमाणु-सौदे का विरोध कर रहे हैं, उसमें नई जान फुंक जाएगी| यह माना जाएगा कि भारत के कम्युनिस्ट अपने देश के हितों के लिए लड़ रहे हैं| वे अमेरिका का केवल अंध-विरोध नहीं कर रहे हैं| हमारे कम्युनिस्ट इतने ईमानदार हैं कि जब राष्ट्रहित का सवाल हो तो वे किसी को भी नहीं बख्शते, चाहे अमेरिका हो या चीन !
यदि हमारे कम्युनिस्ट राष्ट्रीय मुद्दों पर निष्पक्षता और निर्भयता का परिचय दें तो वे अपने आपको तथाकथित तीसरे मोर्चे के नेतृत्व के भी योग्य बना पाऍंगे| यह ठीक है कि उनके अमेरिका-विरोध का साथ देने में तीसरे मोर्चे के घटकों को कोई आपत्ति नहीं होगी लेकिन चीन पर उनके मौन का समर्थन कौन करेगा? वे मुलायम और चंद्रबाबू नायडू को नाराज किए बिना नहीं रहेंगे| सब घटकों और साधारण जनता को भी आश्चर्य होगा कि ये कैसे वामपंथी हैं, जो चीन का अंध-समर्थन करते हैं और अमेरिका का अंध-विरोध, खास तौर से तब जबकि चीन और अमेरिका के आपसी रिश्ते घनिष्टतम होते जा रहे हैं| क्या छोटे मियॉं बुद्घू साबित नहीं हो रहे, जो यह भी नहीं देख पाते कि दो बड़े मियॉं गल-मिलव्वल कर रहे हैं?
इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि अपने देशभक्ति प्रदर्शित करने के लिए हमारे-कम्युनिस्ट चीन का अंध-विरोध शुरू कर दें| यदि वे ऐसा करेंगे तो उनकी स्थिति काफी हास्यास्पद बन जाएगी| वास्तव में उनकी प्रतिकि्रया वैसी ही होनी चाहिए, जैसी कि किसी जिम्मेदार राजनीतिक दल की होनी चाहिए| भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों के नेताओं में जितने पढ़े-लिखे और आदर्शवादी लोग हैं, उतने बहुत कम दलों में है| ऐसे विचारशील नेतृत्व से आशा की जाती है कि वे चीन को समझाऍं| उसे बताऍं कि अब साम्राज्यशही के दिन लद गए| अंग्रेज के ज़माने में चीनी सम्राटों ने नेपाल, भूटान, सिक्किम, लद्दाख और अरूणाचल हजम करने के जो सपने देखे थे, उन्हें साकार करना अब असंभव है| जिस तिब्बत को उन्होंने पचास साल पहले निगला था उसे वे आज तक हजम नहीं कर पाए हैं| इक्कीसवीं सदी भौगौलिक विस्तारवाद नहीं, व्यापारवाद, समृद्घिवाद, सहयोगवाद की सदी है| अरूणाचल के तवांग क्षेत्र् पर दावा बोलकर चीन क्या पाना चाहता है? चीन को हानि ही हानि है| चीन के पास भारत के मुकाबले कई गुना ज़मीन है| तवांग लेकर वह कितनी जम़ीन अपनी जम़ीन में जोड़ लेगा? चीन की जनसंख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है| भारत से सवाई है| तवांग के कुछ हजार लोगों के जुड़ जाने से चीन कौनसी आबादी की प्रतिस्पर्धा जीत लेगा? तवांग के सवाल पर तनाव खड़ा करके चीन अपने 60 अरब डॉलर के भारत-चीन व्यापार को खटाई में क्यों डालना चाहता है? चीन अगर यह समझता है कि दिल्ली में एक पैबंदलगी चादर बिछी हुई है और वह उसमें छेद करने में सफल होगा तो यह उसकी गलतफहमी है| मनमोहन सरकार की मदद करने पर देश का हर दल उतारू हो जाएगा| प्रधानमंत्री चीन को रियायत देने का सपना भी नहीं देख सकते| वे अरूणाचल के दौरे के समय तवांग क्यों नहीं जा रहे हैं? अगर उन्हें तवांग नहीं भी जाना था तो अब तो अवश्य जाना चाहिए और चीन को स्पष्ट संदेश दे देना चाहिए कि सीमा के मामले में भारत कोई समझौता नहीं करेगा| पिछली सरकार ने तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया, इससे बड़ी रियायत क्या हो सकती है? यदि भारत की उदारता को चीन उसकी कमजोर समझता है तो सीमा-विवाद को हल करना असंभव हो जाएगा| चीन का ताजा रवैया उस सैद्घांतिक सहमति के भी विरूद्घ है, जो दोनों देशों के बीच 2005 में हुई थी| यदि चीन अपने रवैए पर अडि़यलपन दिखाता है तो देश के सभी दलों को भारत सरकार के साथ तुरंत एकजुट होने की जरूरत है, खासकर कम्युनिस्ट पार्टियों को, क्योंकि वह बेचारी सरकार उन्हीं की बैसाखियों पर चल रही है|
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