नवभारत टाइम्स, 28 अप्रैल 2008 : सरकार और उद्दंड नेताओं पर हमारी अदालतें आजकल जैसे कोड़े बरसाती हैं, उसके कारण उनकी प्रतिष्ठा में चार चॉंद लग गए हैं लेकिन क्या इसी कारण अदालतों और जजों को कानून के ऊपर मान लिया जाना चाहिए? अगर उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन की बात मान ली जाए तो हमारे जज सिर्फ स्वतंत्र् ही नहीं होंगे, कानून के ऊपर भी होंगे| मुख्य न्यायाधीश महोदय का कहना है कि न्यायधीशों के पद संवैधानिक हैं, इसलिए ‘सूचना का अधिकार’ उन पर लागू नहीं होता| लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी का कहना है कि ‘सूचना का अधिकार’ सब पर लागू होना चाहिए, जजों पर भी| यह बहस इसलिए चल पड़ी है कि पिछले सप्ताह जजों और मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में प्रधानमंत्र्ी ने कह दिया कि सरकार और न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार विशेष चुनौती है|
न्यायपालिका और भ्रष्टाचार ! राम, राम !! ये दोनों शब्द साथ-साथ बोले ही नहीं जाने चाहिए| इन दोनों का दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं होना चाहिए| हमारे जजों का यह सोच दर्शाता है कि इस मुद्दे पर वे कितने संवेदनशील हैं| यह स्वाभाविक है| हमारे ज्यादातर जज साधारण वेतन, साधरण सुविधा और बहुत कम प्रसिद्घि के बावजूद बड़ी मेहनत और निर्भयता से काम करते हैं| उनमें से कई तो असाधारण प्रतिभा के धनी होते हैं| अनेक भारतीय जजों को संसार के श्रेष्ठतम विधिवेत्ताओं की श्रेणी में भी रखा जा सकता है लेकिन क्या इसी कारण उन्हें यह अधिकार मिल जाता है कि वे कानून के ऊपर रहें? जो कानून सब पर लागू होता है, वह उन पर लागू नहीं हो| क्यों नहीं हो?
मुख्य न्यायाधीश कहते हैं कि उनका पद संवैधानिक है| तो क्या शेष सभी सरकारी पद संवैधानिक नहीं हैं? राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, प्रधानमंत्र्ी, लोकसभा अध्यक्ष, राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के पद क्या संवैधानिक नहीं हैं? यदि उन सब पर सूचना का अधिकार लागू हो सकता है तो जजों पर क्यों नहीं हो सकता? क्या वजह है कि जजों को छोड़ दिया जाए, उन्हें छुआ न जाए? ‘सूचना-अधिकार अधिनियम-2005′ ने किसी को भी नहीं छोड़ा है| उसकी परिधि से कोई भी बाहर नहीं है| कोई भी नागरिक यदि भारत के किसी भी बड़े से बड़े सरकारी पदाधिकारी के बारे में जानकारी मॉंग सकता है तो जजों के बारे में क्यों नहीं मांग सकता? अगर जज लोग स्वयं ही यह मॉंग रखें कि उनके बारे में कोई जानकारी न मॉंगी जाए तो इससे बढ़कर अटपटी बात क्या होगी? उन्हें तो लोगों को प्रोत्साहित करना चाहिए कि उनके बारे में वे ज्यादा से ज्यादा जानकारी मॉंगें| जजों के बारे में जो जानकारियॉं सामने आऍंगी, वे भारतीय जनता के लिए बहुत प्रेरणादायक होंगी| उनकी सादगी, उनकी स्वच्छता, उनकी मर्यादा इतनी असाधारण होगी कि उससे समाज में शुद्घ आचरण के उच्चतम मानदंड स्थापित हो जाऍंगे| यदि कुछ जजों के बारे में अपि्रय जानकारियॉं सामने आ गईं तो उसका भी क्या बुरा मानना? उससे भी जज-समुदाय का लाभ ही होगा| कुछ सड़ी मछलियों के कारण सारा तालाब गंदा क्यों हो? और यह मामला तो सिर्फ जानकारी का है, तथ्यों का है, सच का है| इसमें न कोई आरोप होते है न दावे होते है और न ही कोई फैसले होते है| सच अगर सबके सामने आए तो इसमें बुराई क्या है| समझ में नहीं आता कि जजों और अदालतों के बारे में तथ्यों के प्रगट होने से उनकी स्वतंत्र्ता कैसे प्रतिहत होती है? खासतौर से तब जबकि तथ्य वहीं होंगे, जिन्हें जज प्रगट करेंगे| न्यायपालिका का स्वतंत्र् रहना बेहद जरूरी है लेकिन इसके लिए क्या उसे चारों तरफ से दड़बे में बंद कर देना जरूरी है?
जहॉं तक ‘सूचना के अधिकार’ से किसी को ऊपर रखने का सवाल है, उस अधिनियम के शेडूल-दो के अनुसार केवल 23 ऐसी संस्थाऍं हैं, जिनसे सूचनाऍं नहीं मॉंगी जा सकतीं| आप स्वयं कल्पना कर सकते हैं कि वे संस्थाऍं कैसी होंगी, कौनसी होंगी? ये संस्थाऍं गुप्तचर-सेवाओं, रक्षा-सेवाओं, आर्थिक-अपराधों और विदेश-सेवाओं से संबंधित हैं| इन संस्थाओं में भी यदि भ्रष्टाचार और मानव अधिकार के उल्लंघन का कोई मामला है तो वह सूचना-अधिकार के अधीन होगा| ऐसी स्थिति में अदालतों को अपवाद क्यों बनाया जाए, यह समझ में नहीं आता? क्या अदालतों के काम-काज हमारी गुप्तचर-सेवाओं से भी अधिक गोपनीय कि़स्म के होते हैं? अगर होते हैं तो इससे बुरा क्या हो सकता है? अदालत के काम में सबसे अधिक पारदर्शिता होनी चाहिए| न्याय होना ही नहीं चाहिए, होता हुआ दिखना भी चाहिए, यह सिद्घांत संसार की सभी न्यायप्रणालियों में मान्य है| यदि कोई नागरिक किसी फैसले के बाद अगर यह जानना चाहे कि वादी या प्रतिवादी की संबंधित जज से कोई रिश्तेदारी है या नहीं तो इसमें क्या बुराई है? इसी प्रकार जजों के रिश्तेदारों को किसी सरकार ने किसी प्रकार के फायदे पहुंचाए हैं या नहीं, इस तरह की जानकारी पर पर्दा क्यों डाला जाए? आजकल इसी तरह के सवाल पर हमारे कुछ पूर्व जज महोदय झल्लाए हुए हैं| जजों से अगर यह पूछा जाए कि जज बनने के बाद उनकी संपत्ति में कितनी बढ़ोतरी हुई तो इसमें नाराज होने की बात क्या है? यदि बड़े-बड़े नेताओं को इसी मुद्दे पर अदालतें चित करती है तो चित करने का यह नैतिक अधिकार उनके पास कैसे आएगा? जजों के पास कानूनी अधिकार तो है लेकिन नैतिक अधिकार के बिना न्याय क्या खाली झुनझुना नहीं रह जाता है? नेताओं और सेठों पर ऊंगली उठाने के पहले जजों को यह बताना होगा कि उनके हाथ स्वच्छ हैं| सूचना का अधिकार इस मामले में उनका मददगार ही सिद्घ होगा| वह ऐसा मंच है, जिससे उनकी खुशबू सर्वत्र् अपने आप ही फैलेगी| उन्हें अपना ढिढौरा खुद पीटने की जरूरत नहीं पड़ेगी|
यह भी थोड़ी अजीब-सी बात है कि सवा साल से जजों संबंधी एक विधेयक अधर में लटका हुआ है| इस विधेयक का लक्ष्य जजों के भ्रष्टाचार और कदाचार संबंधी मामलों की जॉंच-पड़ताल करना है| सरकार को पता नहीं क्या झिझक है? यह विधेयक तुरंत पास किया जाना चाहिए| विधेयक के विभिन्न प्रावधानों के बारे में अगर जजों की सम्मतियॉं ले ली जाऍं तो और भी बेहतर रहेगा| यह भी चिंता का विषय है कि जजगण ने अपनी निजी संपत्तियों का ब्यौरा तक अपने-अपने मुख्य न्यायाधीशों को सौंपना शुरू नहीं किया है| इस नियम को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए| यदि जज चाहते हैं कि उन्हें सबसे अधिक सम्मान मिलना चाहिए तो उन्हें इसकी क़ीमत भी चुकानी होगी| भारत की न्यायपालिका के काम-काज और चाल-चलन पर खुली और लंबी बहस की जरूरत है| गुलाम भारत की अदालत और आजाद भारत की अदालत में जमीन-आसमान का अंतर होना चाहिए| यह अंतर अन्य संस्थाओं में तो काफी दिखाई पड़ता है लेकिन न्यायपालिका में न्यूनतम है| अंग्रेजों-जैसी वेषभूषा, अंग्रेजों-जैसी भाषा और अंग्रेजों-जैसी न्यायप्रणाली का भारतीयकरण आखिर कब होगा?
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