राष्ट्रीय सहारा, 28 जनवरी 2006 : फलस्तीन के आम-चुनाव में ‘हमस’ की प्रचंड विजय विश्व-राजनीति की महत्वपूर्ण घटना है| फलस्तीन यों तो कोई स्वतंत्र् और संप्रभु राष्ट्र नहीं है| उसकी जनसंख्या और राष्ट्रीय सम्पदा भी नगण्य ही है लेकिन पश्चिम एशिया की राजनीति का वह बेरोमीटर है| फलस्तीन में जो कुछ होता है, उसका सीधा प्रभाव इस्राइल पर पड़ता है और इन दोनों राष्ट्रों के बीच जो कुछ होता है, उससे पश्चिम एशिया के मुस्लिम राष्ट्र की नहीं, संसार की महाशक्तियाँ भी प्रभावित होती हैं| इसीलिए ‘फतह’ की हार और ‘हमस’ की विजय पर पश्चिम के प्रमुख देश बौखलाए हुए हैं| अमेरिका, बि्रटेन, फ्रांस और जर्मनी जैसे देश फलस्तीन के चुनाव पर जितना ध्यान दे रहे हैं, उतना तो वे दुनिया के बड़े राष्ट्रों के चुनावों पर भी नहीं देते|
‘हमस’ की विजय अपने आप में अजूबा है| जब से ‘हमस’ नामक संगठन की स्थापना हुई है, वह पहली बार चुनाव जीता है| ‘फतह’ मातृ-संगठन था| उसके उग्रवादियों ने ‘हमस’ बनाया लेकिन यासिर अराफात उन पर हमेशा भारी पड़ते रहे| उन्होंने ‘हमस’ को कभी जीनते नहीं दिया| अराफत बडे़ ऊँचे कलाकार थे| वे गरम और नरम नीति एक साथ चलाते थे| हिंसा और अहिंसा, युद्घ और वार्ता, शांति और आतंक की परस्पर विरोधी धाराओं को उन्होंने ऐसा गड्डमड्ड किया हुआ था कि ‘हमस’ के नेतागण उनसे आंतरिक नीति और विदेश नीति, दोनों में मात खा जाते थे| इस बार अराफात नहीं हैं| उनकी जगह महमूद अब्बास हैं| वे राष्ट्रपति हैं| इसके बावजूद उनकी पार्टी ‘फतह’ को 132 सदस्यों की संसद में केवल 43 सीटें मिली जबकि ‘हमस’ ने 76 सीटों पर कब्जा कर लिया|
‘हमस’ की इस प्रचंड विजय का कारण क्या है? इसका कारण यह नहीं है कि वह हिंसा में विश्वास करता है और इस्राइल को खत्म करना चाहता है बल्कि यह है कि पिछले एक-सवा वर्ष में ‘फतह’ की सरकार ने कुशासन और भ्रष्टाचार के नए प्रतिमान कायम किए हैं| फलस्तीन की जनता अराफात के महाप्रयाण के बाद साफ़-सुथरी सरकार की आशा कर रही थी लेकिन उनके उत्तराधिकारी अब्बास ने जो सरकार नियुक्त की, उसने गरीब फलस्तीनियों की मुसीबतों में इज़ाफा किया| वह न तो ‘हमस’ के आतंक पर नियंत्र्ण कर पाई और न ही वह इस्राइल की आक्रामक नीतियों को मुकाबला कर पाई| आम आदमियों की रोटी, कपड़ा, मकान और सुरक्षा पहले से भी अधिक खतरे में पड़ गई| उसके मुकाबले जिन इलाकों में ‘हमस’ का कब्जा था, वहाँ स्कूल-कालेज, अस्पताल, स्थानीय प्रशासन आदि ढंग से चलते रहे| ‘फतह’ की तरह ‘हमस’ के नेता पैसों की हेरा-फेरी भी नहीं करते| उन्होंने आर्थिक स्वच्छता और प्रशासनिक दक्षता के इतने संुदर उदाहरण प्रस्तुत किए कि चुनाव जीतना उनके बाएँ हाथ का खेल हो गया| ‘फतह’ के साथ पश्चिमी लोगों ने उसे रद्द कर दिया| जिन फलस्तीनियों ने अभी साल भर पहले महमूद अब्बास जैसे नरमपंथी को लोकपि्रय नेता के रूप में चुना, उन्होंने ही उनकी पार्टी और सरकार को कूडे़दान के हवाले कर दिया| अब्बास राष्ट्रपति के पद पर अभी विराजमान रहेंगे लेकिन प्रधानमंत्री और मंत्री तो ‘हमस’ के ही होंगे|
यहाँ सबसे पहला प्रश्न तो यही है कि राष्ट्रपति अब्बास और ‘हमस’ की सरकार कदम से कदम मिलाकर कैसे चलेंगे| राष्ट्रपति एक पार्टी का और प्रधानमंत्री दूसरी पार्टी का! अभी-अभी एक सुझाव यह भी आया है कि ‘हमस’ और ‘फतह’ मिलकर संयुक्त सरकार बनाएँ| अगर ऐसा संभव हो जाए तो फलस्तीनियों के हाथ काफी मजबूत हो जाएँगे लेकिन ‘हमस’ के कई प्रमुख नेता मानते हैं कि ‘फतह’ का नेतृत्व अमेरिकियों की कठपुतली है| यदि उन्हें सरकार में ले लिया गया तो फलस्तीनियों को न्याय मिलने से रहा| फलस्तीनियों को अगर न्यास मिलना है तो वह बंदूक की नोंक पर ही मिलेगा| उधर इस्राइल में गज़ब की सुगबुगाहट हो गई है| वहाँ 28 मार्च को चुनाव होनेवाले हैं| अभी तक यह अनुमान था कि एरियल शेरों की नई पार्टी ‘कदीमा’ जीतेगी| शेरों अपनी बीमारी के कारण नेपथ्य में चले गए हैं लेकिन इस्राइली जनता अब भी उनकी शांतिवादी नीतियों की समर्थक हैं| फलस्तीन में ‘हमस’ की विजय के कारण यह समर्थन ढीला पड़ सकता है| इस्राइल के उग्रवादी तत्वों को अब यह नया अस्त्र् हाथ लग गया है| वे प्रयत्न करेंगे कि इस्राइल में ऐसी सरकार बन जाए, जो ‘हमस’ से बात करने से ही मना कर दे|
यह संभावना इसलिए भी प्रबल हो गई है कि अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने ‘हमस’ के बहिष्कार की घोषणा कर दी है| यूरोपीय राष्ट्रों का भी कहना है कि जब तक ‘हमस’ हिंसा नहीं छोड़ेगा और इस्राइल का मान्यता नहीं देगा, हम उससे बात नहीं करेंगे| यूरोपीय राष्ट्रों से यह भी कहा जा रहा है कि वे फलस्तीनियों को दी जा रही| मानवीय सहायता भी बंद कर दें ताकि ‘हमस’ की सरकार फेल हो जाए| इस तरह के निषेधात्मक विचारों का उत्पन्न होना स्वाभाविक है लेकिन ऐसा होना आवश्यक हो, यह मानना कठिन है| कई बार तो उल्टा ही होता है| आप चोर को चाबी दे दें तो चोरी बंद हो जाती है| हो सकता है कि ‘फतह’ की बजाय ‘हमस’ से बात करना ज्यादा आसान हो| ‘फतह’ तो नरम है ही, ‘हमस’ स्वयं को सफल करने की लालसा के कारण नरम पड़ सकता है| यदि ‘हमस’ फलस्तीनियों के लिए कोई सही समझौता करेगा तो ‘फतह’ उसका समर्थन करने के अलावा क्या कर सकता है याने शांति के आसार बढ़ सकते हैं| अब तक के कई शांति-समझौते इसलिए इसलिए भी असफल हुए हैं कि ‘हमस’ ने उनका डटकर विरोध किया है| अब ‘फतह’,’हमस’ की भूमिका नहीं निभा पाएगा| इसके अलावा यह कैसे संभव है कि ‘हमस’ फलस्तीन के अंदर तो सुशासन के लिए कमर कसे और बाहर वह युद्घ के नगाड़े बजाता रहे? ये दोनों काम एक साथ नहीं चल सकते| ‘हमस’ को अपना दर्शन और अपनी रणनीति, दोनों ही बदलने होंगे| लंबे समय तक विरोध में रहनेवाले दल जब अचानक सत्ता में आ जाते हैं तो उनमें विस्मयकारी परिवर्तन होने लगते हैं| शत्रु मित्र् बन जाते हैं और मित्र् शत्रु! रिचर्ड निक्सन जैसे शीतयुद्घ के पुरोधा और माओत्से तुंग के बीच आखिर संवाद कैसे कायम हुआ? हिंदुत्ववादी भाजपा और इस्लामवादी पाकिस्तान के बीच शांति-र्वात्ता क्यों आगे बढ़ती रही? आशा करनी चाहिए कि जो हिंसावादी ‘हमस’ शांतिपूर्ण चुनाव के जरिए सत्ता में आई है, वह फलस्तीन के अन्दर और बाहर, दोनों क्षेत्रें में शांति के लिए अभिनव पहल करेगी| ‘हमस’ की विजय पश्चिम एशिया में शांति का सूर्यारत नहीं, सूर्योदय बनकर उभरेगी, यही आशा है|
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