नवभारत टाइम्स, 30 Jan 2008 : भारत में विदेश नीति के क्षेत्र में पिछला हफ्ता यूरोप के नाम रहा। पहले ब्रिटेन केप्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन भारत आए और फिर फ्रांस के राष्ट्रपति निकोला सार्कोजी। दोनों ने भारतके साथ परमाणु समझौते की पेशकश की और भारत को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने की वकालत भी।
पहले यह देखें कि इस यूरोपीय पहल का महत्व क्या है और फिर यह कि दोनों में अंतर क्या है। ब्रिटेन और फ्रांस दोनों ही अमेरिकी खेमे के राष्ट्र हैं। वास्तव में ये दोनों ही शीतयुद्ध काल में वही भाषा बोलते थे जो अमेरिका बोलता था। लेकिन भारतके सवाल पर दोनों ही आज अमेरिका से आगे निकल गए हैं। भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता दिलाने के प्रश्न पर अमेरिका चीन की तरह हकलाता है, दबी जुबान में बात करता है, आनाकानी करता है, लेकिन रूस, फ्रांस और ब्रिटेन एक स्वर में बात करते हैं। यह स्पष्ट है कि जब तक अमेरिका और चीन तैयार नहीं होंगे। संयुक्त राष्ट्र के ढांचे में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं हो सकता। यह जानते हुए भी अगर तीन महाशक्तियां भारत का साथ देती हैं, तो देर-सबेर अन्य दो महाशक्तियों को भी साथ देने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
ब्रिटेन, फ्रांस और रूस तीनों ही भारत को अपने हथियार, विमान और तकनीक आदि बेचना चाहते हैं। भारत का लंबा-चौड़ा बाजार देखकर किसके मुंह में पानी नहीं आएगा? इसलिए वे भारत को महाशक्ति की उपाधि से मंडित करने में भी कोई संकोच नहीं करते। वे अमेरिका और चीन की तरह कंजूसी क्यों बरतें? वे यह भी जानते हैं कि उनके कहने भर से तुरंत कुछ होना-जाना नहीं है, लेकिन भारत तो खुश हो ही जाएगा। उसके लिए तो इतना भर काफी है। इस दृष्टि से भारत सरकार अपनी पीठ थपथपा सकती है कि उसे पांच में से तीन महाशक्तियों का स्पष्ट समर्थन मिल गया है।
जैसा कि अंतरराष्ट्रीय राजनय में होता है, यह समर्थन तीनों देश अपने राष्ट्रहित केलिए दे रहे हैं, लेकिन इसका अंतर हमें जरूर समझ लेना चाहिए। रूस और भारत का तो लंबे समय तक गहरा मैत्री संबंध रहा है। कश्मीर हो, गोवा हो, भारत-पाक युद्ध हों या विदेश नीति के दूसरे उलझे हुए मुद्दे हों, रूस ने हमेशा भारत का साथ दिया है। अमेरिका के कुछ विदेश मंत्री इसी कारण भारत की गुट निरपेक्षता को ढोंग कहा करते थे। आज भी रूस अगर हमें हथियार और महाशक्ति मान्यता देने को तैयार है, तो वह पुरानी परंपरा को ही आगे बढ़ा रहा है। जहां तक फ्रांस का सवाल है, उसने राजनीतिक मुद्दों पर भले ही भारत का साथ नहीं दिया हो, लेकिन अमेरिका का अंधानुकरण करते हुए उसने भारत को हथियारों की सप्लाई कभी बंद नहीं की। रूस के बाद वही भारत का दूसरा सबसे बड़ा सप्लायर बन गया था। अब वह स्थान इस्त्राइल को मिल गया है। लेकिन फ्रांस का वश चले तो वह नंबर वन बनना चाहेगा। इसलिए फ्रांसीसी शस्त्र निर्माता कंपनियों के मालिकों को सार्कोजी अपने साथ लाए। इन मेहमानों ने अमेरिकी और इस्त्राइली हथियारों की बेलाग आलोचना की और भारत का आह्वान किया कि वह सर्वश्रेष्ठ हथियार उनसे खरीदे।
सार्कोजी ने भारत-फ्रांस संबंधों को क्रेता-विक्रेता संबंधों से भी आगे ले जाने की बात कही। इसमें संदेह नहीं कि फ्रांस की विदेश नीति पर्याप्त स्वायत्त है। वह ब्रिटेन की तरह अमेरिका का अनुवर्ती नहीं है। यदि फ्रांस चाहे तो वह सचमुच भारत-फ्रांस सामरिक सहयोग का नया ढांचा खड़ा कर सकता है। यह कम हिम्मत की बात नहीं कि सार्कोजी ने भारत को जी-8 का सदस्य बनाने की बात कही। दूसरे शब्दों में, फ्रांस भारत को संपन्न राष्ट्रों की महफिल में बैठने लायक मानता है। सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का यह पूर्व-राग हो सकता है।
जहां तक परमाणु समझौते का प्रश्न है, फ्रांस की पहल के उलटे और सीधे दोनों अर्थ लगाए जा सकते हैं। उलटा अर्थ तो यह है कि हमारे वामपंथी इस घटनाक्रम से जरा सबक लें। जिस सौदे का समर्थन फ्रांस जैसा स्वायत्त देश भी कर रहा है, वे उसका विरोध क्यों कर रहे हैं? अब तो पांचों महाशक्तियां भारत के परमाणु समझौते के मामले में एकमत हैं, फिर भी वामपंथी उसके खिलाफ क्यों हैं? लेकिन फ्रांस, ब्रिटेन, रूस और चीन की पहल का सही अर्थ यह नहीं है कि आंख मींचकरअमेरिका के साथ सौदा कर लिया जाए। इसका सही अर्थ यह है कि इन राष्ट्रों ने हाइड एक्ट की तरह दादागीरी का कोई प्रावधान हम पर थोपने की तैयारी नहीं की है। इन राष्ट्रों के साथ शांतिपूर्ण परमाणु ऊर्जा का समझौता करने में क्या बुराई है? फ्रांस ने तो अपनी लगभग 80 फीसदी बिजली परमाणु ऊर्जा से पैदा करके दुनिया के सामने उदाहरण पेश किया है। यदि भारत सरकार यह सिद्ध कर सके कि परमाणु ऊर्जा सस्ती और सुरक्षित है, तो वह फ्रांस से क्या, अन्य देशों से भी यह समझौता कर सकती है। परमाणु ऊर्जा एजेंसी और न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप की हरी झंडी मिलते ही भारत सरकार पहले शेष चार देशों से परमाणु समझौता करे और अमेरिका से सबसे बाद में बात करे। यदि अमेरिका अपने दबावकारी प्रावधान हटाने को तैयार हो, तो उससे भी समझौता किया जाए। ब्राउन और सार्कोजी की यात्राओं से यह नया विचार उभर रहा है।
भारत के विदेश नीति निर्माताओं को सार्कोजी की यात्रा ने यह सोचने का भी मौका दिया है कि पश्चिमी खेमे के सिर्फ अंग्रेजीभाषी देशों के साथ ही भारत केसंबंध ज्यादा घनिष्ठ क्यों हैं? फ्रांस, जर्मनी, इटली और स्कैंडिनेवियाई देशों की उपेक्षा क्यों होती रही है? क्या इसका कारण हमारी दो सौ साल की अंग्रेजों की गुलामी नहीं है? क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि फ्रांस में चीन के सत्रह हजार छात्र पढ़ रहे हैं, जबकि भारत के केवल सत्रह सौ? हम अपने छात्रों को चीनी, रूसी, जापानी, फ्रेंच और जर्मन जैसी समृद्ध भाषाएं सिखाने के बजाय सिर्फ अंग्रेजी रटाते रहते हैं। अंग्रेजी का एकाधिकार खत्म हो तो दुनिया के अनेक समर्थ देशों के साथ भारत का व्यापार कई गुना बढ़ सकता है। फ्रांस जैसे विशाल देश केसाथ सिर्फ छह अरब डॉलर का व्यापार इस सच की पुष्टि करता है। अमेरिकाऔर ब्रिटेन में शुरू हुए मंदी के दौर में इस तथ्य पर अपेक्षाकृत अधिक ध्यान दिए जाने की जरूरत है।
( लेखक विदेश मामलों के वरिष्ठ विश्लेषक हैं)
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