दैनिक भास्कर, 30 जून 2010 । ठीक एक साल बाद अफगानिस्तान से नाटो फौजों की वापसी शुरू होने वाली है। असल सवाल यह है कि यह वापसी युद्ध जीतते हुए होगी या हारते हुए? जीतना मुश्किल नजर आ रहा है। यह अमेरिकी जनरल मैकक्रिस्टल की बर्खास्तगी ने ही सिद्ध कर दिया है।
मैकक्रिस्टल को अफगानिस्तान में अब तक कितनी सफलता मिली, यह अलग प्रश्न है, लेकिन उन्हें ओबामा का ब्रह्मास्त्र माना जाता था। उन्होंने करजई सरकार के साथ जैसा ताल-मेल बिठाया, किसी अन्य अमेरिकी जनरल ने नहीं बिठाया। मैकक्रिस्टल और उनके सहायकों ने अमेरिकी पत्रिका ‘रोलिंग स्टोन’ में ओबामा प्रशासन के बारे में जो अमर्यादित टिप्पणियां की हैं, उनसे पता चलता है कि अफगानिस्तान में अमेरिका की सामरिक स्थिति संतोषजनक नहीं है।
इस साल वहां जितने अमेरिकी फौजी मारे गए, पहले कभी नहीं मारे गए। जितना लंबा युद्ध अफगानिस्तान में चला, अमेरिका के इतिहास में पहले कभी नहीं चला। सहयोगी राष्ट्रों में घोर असंतोष है। नीदरलैंड्स, जर्मनी और कनाडा अपने फौजियों को वापस बुला लेना चाहते हैं। इन देशों की संसदों में यह मांग उठती रहती है।
जर्मनी के राष्ट्रपति और डच सरकार की इसी मुद्दे पर छुट्टी हो गई। ब्रिटेन के चुनाव अभियान में भी यह मुद्दा उछलता रहा। अमेरिका के कई सहयोगी राष्ट्र उसके ‘अफगान युद्ध’ को अतलगामी मानते हैं। स्वयं अमेरिका का मोहभंग हो रहा है। ओबामा की रणनीति पर सवाल उठ रहे हैं। तालिबान से समझौते का समर्थन करने वाले ओबामा प्रशासन को अमेरिकी लोग दिग्भ्रमित मानने लगे हैं। वे मानते हैं कि अफगानिस्तान इराक नहीं है। इराक की नीति अफगानिस्तान में नहीं चलेगी।
अमेरिका के इस दिग्भ्रम का सबसे ज्यादा लाभ पाकिस्तान को मिल रहा है। तालिबान से बातचीत में पाक सरकार करजई की सीधी मदद कर रही है। पाकिस्तान के सेनापति जनरल कयानी और आईएसआई के मुखिया शुजा पाशा काबुल जाकर अफगान नेताओं से मिल रहे हैं और सिराज हक्कानी जैसे तालिबान लड़ाकों को अपने साथ ले जा रहे हैं। यदि पाकिस्तानी पहल सफल हो गई तो काबुल में निश्चय ही पाकिस्तान का सिक्का खनकने लगेगा। ऐसी स्थिति में अफगानिस्तान की गैर-पठान जातियां-ताजिक, उज्बेक, हजारा आदि आग बबूला हो जाएंगी।
आंतरिक तनाव के इस संभावित दौर में यदि अमेरिका की वापसी शुरू हो गई तो कोई आश्चर्य नहीं कि अफगानिस्तान दुबारा गृहयुद्ध की चपेट में आ जाए। करजई सरकार के पास न तो यथेष्ट फौज है, न पुलिस है, न हथियार हैं और न पैसा है कि वह अपने पांव पर खड़ी रह सके। ऐसे में क्या होगा? अराजकता के अलावा क्या हो सकता है? अफगानिस्तान दुबारा आतंकवाद का गढ़ बन जाएगा!
ऐसे में भारत क्या करे? सिर्फ बगलें झांकता रहे? किसी अमेरिकी इशारे का इंतजार करता रहे? अपने कूटनीतिज्ञों, इंजीनियरों और मजदूरों को वहां मरता हुआ देखता रहे? सात-आठ हजार करोड़ रुपए की मदद को नाली में बह जाने दे? अफगानिस्तान को दुबारा पाकिस्तान की गोद में बैठ जाने दे? यदि यह हो भी गया तो अमेरिका का कोई खास नुकसान होने वाला नहीं है। वह अपना डोरी-डंडा उठाकर वापस वॉशिंगटन चला जाएगा। भारत कहीं नहीं जा सकता!
सचमुच भारत कहीं नहीं जा सकता। यदि भारत यह चाहे कि वह अफगानिस्तान से दूरी बनाकर रखे तो भी नहीं रह सकता। पिछले तीस वर्षो में उसकी नीति लगभग यही रही, सिवाय तालिबान के दौर में, जबकि उसने ‘उत्तरी गठबंधन’ की थोड़ी-बहुत गुपचुप मदद की थी। भारत का यह अलगाव उसे भारी पड़ा। भारत की निष्क्रियता ने तालिबानी आतंकवाद की सक्रियता बढ़ा दी। भारत के जहाजों के अपहरण किए गए, कश्मीर की घाटी को कंपा दिया गया, भारत की संसद पर हमला हुआ।
अफगान भूमि और तालिबान को पाकिस्तान भारत के विरुद्ध निरंतर इस्तेमाल करता रहा। अफगानिस्तान की अस्थिरता के कारण मध्य एशिया के गणतंत्रों तक पहुंचने के थलमार्ग भी बंद रहे। मध्य एशिया के तेल, गैस और अन्य खनिजों के खजानों पर ताले लग गए। अफगान-ईरान सीमांत पर बनाए गए भारतीय मार्ग का भी कोई ठोस लाभ नहीं मिल रहा। भारत है तो क्षेत्रीय महाशक्ति, लेकिन अपने ही क्षेत्र में पड़ने वाले काबुल में वह भीगी बिल्ली की तरह दुम दबाए खड़ा दिखाई देता है। यह सीन बदलना चाहिए।
तो क्या भारत अफगानिस्तान में अपनी फौजें भेज दे? यह बिल्कुल गलत होगा। 1981 में जब प्रधानमंत्री बबरक कारमल ने यही चाहा था तो मैंने उनका विरोध किया था। लेकिन पिछले तीन साल से मैं लगातार यह कह रहा हूं कि भारत की फौजी सहायता के बिना अफगान संकट का हल लगभग असंभव है। मेरे इस मूल प्रस्ताव का कुछ अमेरिकी नीति-निर्माताओं ने गलत अर्थ लगाया और उन्होंने प्रयत्न किया कि अफगानिस्तान में अमेरिकी फौजों की जगह भारतीय फौजें चली जाएं। अच्छा हुआ कि ऐसा नहीं हुआ।
फौजी सहायता का अर्थ है- अफगानिस्तान में कम से कम पांच लाख फौजियों की राष्ट्रीय सेना तुरंत खड़ी करना! यह काम केवल भारत कर सकता है, पाकिस्तान नहीं, क्योंकि औसत अफगान पाकिस्तानी वर्चस्व से घृणा करता है। वह अफगानिस्तान को पाकिस्तान का पांचवां प्रांत नहीं बनने देना चाहता। भारत के इस मार्ग में पाकिस्तान ही एकमात्र रोड़ा है। लेकिन पाकिस्तान को सहयोग के लिए तैयार किया जा सकता है।
मैकक्रिस्टल की जगह नियुक्त जनरल पेट्रेयस इस पहल का स्पष्ट समर्थन लगभग दो साल पहले ही कर चुके हैं। यदि अमेरिका खर्च का जिम्मा ले तो जुलाई 2011 के पहले भारत के हजारों फौजी प्रशिक्षक यह काम आसानी से पूरा कर सकते हैं। इस योजना पर अमेरिकी खर्च उसके वर्तमान खर्च का दसवां हिस्सा भी नहीं होगा। तालिबान को अफगान फौजी ही जड़ से उखाड़ सकते हैं। विदेशी फौजें वहां हमेशा हारी हैं। अमेरिका अपवाद नहीं हो सकता।
इस पहल का लक्ष्य काबुल को नई दिल्ली का उपग्रह बनाना नहीं है। अफगानिस्तान अत्यंत स्वाभिमानी राष्ट्र है। जिसने भी उसे अपना उपग्रह बनाने की कोशिश की, वह अपने दांत तुड़वाकर वहां से विदा हुआ है। इसका लक्ष्य अफगानिस्तान को अपने पांव पर खड़ा करना है। इसका अर्थ यह भी कतई नहीं कि पाकिस्तान को अफगान मानचित्र से बिल्कुल बाहर करना है। ऐसा करना असंभव है। अफगानिस्तान में पाकिस्तान के वैध स्वार्थ हैं और दोनों राष्ट्रों के बीच अटूट और गहन संबंध हैं। भारत को उन्हें मान्यता देनी होगी।
यदि भारत उन्हें समुचित मान्यता दे तो यह संभव है कि इस्लामाबाद और दिल्ली की मैत्री का रास्ता काबुल होकर चलने लगे। दक्षिण एशिया में शांति और सहयोग का नया अध्याय शुरू हो जाए। ओबामा के बच निकलने के लिए इससे बेहतर रास्ता क्या हो सकता है? यदि पांच लाख की अफगान फौज अपने पांव पर खड़ी हो तो यह सवाल अप्रासंगिक हो जाएगा कि अफगानिस्तान में अमेरिका जीत रहा है या हार रहा है। अफगानिस्तान में अफगानिस्तान ही जीतेगा।
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